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नौकरी की ‘भरमार’ पर पीएम मोदी हेयरस्टाइलिस्ट के आंकड़े भी दे देते

भारत को हर साल डेढ़ लाख नए नाइयों की जरूरत!

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“भारत ने वित्त वर्ष 2016-17 में 17,000 नए चार्टर्ड अकाउंटेंट पैदा किए. उनमें से 5,000 ने शायद अपनी अकाउंटिंग प्रैक्टिस शुरू की होगी. यदि हम यह मानें कि हर अकाउंटिंग प्रैक्टिस ने 20 लोगों को नौकरी दी, तो अकाउंटिंग कंपनियों में एक लाख नए रोजगार पैदा हुए.”

“भारत हर साल 80,000 नए डॉक्टर, डेंटिस्ट और हेल्थकेयर ग्रेजुएट पैदा करता है. यदि मान लें कि इनमें से 60 फीसदी ने अपनी खुद की मेडिकल प्रैक्टिस शुरू की और हर एक ने पांच नए लोगों को रोजगार दिया, तो मेडिकल क्षेत्र ने 2,40,000 नए रोजगार सृजित किए.”

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“भारत हर साल 80,000 नए वकील पैदा करता है. यदि उनमें से 60 फीसदी ने अपनी खुद की लीगल प्रैक्टिस शुरू की और प्रत्येक ने दो-तीन लोगों को नौकरियां दी, तो लीगल सेक्टर ने दो लाख नए रोजगार पैदा किए.”

ये सब औपचारिक सेक्टर में रोजगार के अवसरों के आकलन का तरीका है जिसे करना अपेक्षाकृत आसान है. अनौपचारिक सेक्टर के लिए क्या किया जाता है? इसके लिए भी आकलन के तरीके मौजूद हैं.

“पिछले साल कुल 7.6 लाख नए कमर्शियल वाहन बेचे गए. यदि ये मान लें कि इनमें से 25 फीसदी पुराने वाहन के एवज में थे और 75 फीसदी बिना किसी प्रतिस्थापन के नए वाहन और हर एक नए वाहन पर दो लोगों को नौकरी मिली, तो परिवहन सेक्टर ने 11.4 लाख नए अनौपचारिक रोजगार सृजित किए.”

“पिछले साल 25.4 लाख पैसेंजर कार बेची गईं. मान लेते हैं कि इनमें से 20 फीसदी पुरानी कारों के एवज में थीं और 80 फीसदी बिना प्रतिस्थापन की नई कारें. यदि ऐसी नई कारों में से मात्र 25 फीसदी पर एक ड्राइवर को रोजगार मिला हो, तो सिर्फ इससे ड्राइवरों के पांच लाख नए रोजगार सृजित हुए.”

यदि आपको ये ऊपर दिए गए स्टेटमेंट किसी यूनिवर्सिटी कैंपस में कंसल्टिंग कंपनियों में नौकरी के इंटरव्यू की प्रेक्टिस कर रहे एमबीए डिग्री धारियों की बातचीत के अंश लगे हों, तो आमतौर पर आपका अनुमान सही होता. लेकिन हम असाधारण समय में जी रहे हैं. ये संसद में भारत के प्रधानमंत्री के भाषण का अंश है, जो जाहिर है 120 करोड़ भारतीयों के लिए नौकरियां पैदा करने में अपनी सरकार का रिकॉर्ड बता रहे थे.

अर्थव्यवस्था में रिकॉर्ड नंबर में रोजगार सृजन के बारे में प्रधानमंत्री ने भारत में हर साल बनने वाले वकीलों, डॉक्टरों, अकाउंटेंटों और वाहनों की संख्याओं का अर्थहीन और विकृत विश्लेषण है, जिसे रोजगार सृजन से जोड़ा गया है. कदाचित, प्रधानमंत्री देश में रोजगार के अवसरों की बहुतायत साबित करने के लिए, इससे कहीं अधिक बुनियादी स्तर का तर्क दे सकते थे.

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भारत को हर साल डेढ़ लाख नए नाइयों की जरूरत!

भारत को हर साल डेढ़ लाख नए नाइयों की जरूरत!
बेंगलुरु के एक सैलून में एक ग्राहक हेयरकट कराते हुए
(फोटो: धीरज सिंह/ब्लूमबर्ग)

भारत में हर साल भारी संख्या में लोग पैदा होते हैं. हर किसी को, भले ही वह डॉक्टर हो या वकील हो या अकाउंटेंट, कुछ बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं की जरूरत होती है. ऐसी ही एक अनिवार्य सेवा है– हेयरकट. अर्थशास्त्री अक्सर बताते हैं कि हेयरकट किसी अर्थव्यवस्था के सर्वाधिक गैर-व्यापारिक वस्तुओं और सेवाओं में से है. यानि, हेयरकट का आयात-निर्यात नहीं हो सकता है और इसका उत्पादन इसकी सेवा देश में ही स्थानीय स्तर पर होनी चाहिए.

मान लेते हैं कि 10 साल से छोटे लड़कों को दो महीने में एक बार बाल कटाने की जरूरत पड़ती है, 10 से 30 साल के युवाओं को हर महीने बाल कटाने की जरूरत होगी, 30 से 50 साल वालों को दो महीने में एक बार और बाकियों को तीन महीने में एक बार हेयरकट लेने की जरूरत पड़ेगी. यह भी मान लेते हैं कि एक नाई एक व्यक्ति के बाल काटने में 15 मिनट लेता है. भारत के आबादी संबंधी आंकड़ों और नाइयों की उत्पादकता का ध्यान रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत को हर साल डेढ़ लाख नए नाइयों की जरूरत है.

यदि हम मान लें, प्रधानमंत्री की तरह, कि इन नाइयों के यहां दो नए लोगों को नौकरी मिलती है, तो अकेले हेयरकट सेक्टर ही सालाना पांच लाख नए अनौपचारिक रोजगार पैदा करता है.

ऐसे हेयरकट विश्लेषण को व्यापक अर्थव्यवस्था पर लागू कर सृजित कुल नौकरियों की संख्या का अनुमान लगाया जा सकता है, और इस तरह हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भारत में रोजगार के अवसरों की कमी नहीं बल्कि बहुतायत है.

यदि आप इस तर्क को हास्यास्पद मानते हैं, तो आप अकेले नहीं होंगे.

भारत के प्रधानमंत्री को, जिन्हें संसद में पूर्ण बहुमत, तेल की कम कीमत और एक मजबूत वैश्विक अर्थव्यवस्था का असाधारण सौभाग्य मिला, राष्ट्र के युवाओं के समक्ष रोजगार की स्थिति बयान करने के लिए एक अर्थहीन, विकृत और विचित्र विश्लेषण का सहारा लेना पड़ा, यह अपने आप में देश में रोजगार की गंभीर स्थिति की पुष्टि है.

तीन खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था वाली आर्थिक ताकत के नेता को अर्थव्यवस्था में सृजित रोजगार से जुड़े सवालों का इस तरह जवाब नहीं देना चाहिए.

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श्रम मंत्रालय के तिमाही रोजगार सर्वेक्षण बंद

अधिकांश बड़ी अर्थव्यवस्थाएं रोजगार सृजन संबंधी अनुमानों के लिए वैज्ञानिक सर्वे विधियों, सत्यापनीय साक्ष्यों और वेतन के आंकड़ों पर निर्भर करती हैं. मोदी सरकार ने बिना स्पष्ट कारण बताए 2009 से जारी श्रम मंत्रालय के तिमाही रोजगार सर्वेक्षण को बंद कर दिया. यह सर्वेक्षण अर्थव्यवस्था में सृजित रोजगार के आकलन का एक महत्वपूर्ण साधन था और इसके लिए जिन सेक्टरों का सर्वे होता था वो देश में 80 फीसदी नौकरियों के लिए उत्तरदायी हैं.

पर इसी के साथ, कर्मचारी भविष्य निधि संगठन द्वारा एकत्रित वेतन संबंधी आंकड़ों को जारी करने और औपचारिक सेक्टर में नौकरियों के अनुमान लगाने की शुरुआत करने के लिए मोदी सरकार की तारीफ करनी होगी. रोजगार सृजन संबंधी सकारात्मक खबर की झलक मात्र को प्रचारित करने के उत्साह में, सरकार ने सिर्फ सितंबर 2017 के वेतन संबंधी आंकड़ों को जारी किया और खुद को रोजगार सृजन में असाधारण रूप से सफल करार दिया, जैसा कि प्रधानमंत्री ने संसद में अपने भाषण में किया.

सार्वजनिक रूप से जारी किए गए भविष्य निधि संगठन (EPFO) के आंकड़े नए रोजगार सृजन का आकलन करने के लिए अपर्याप्त हैं. आंकड़े बहुत छोटी अवधि के हैं. इनमें काफी अस्पष्टता है और इन्हें पहले नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर जैसे वाह्य व्यवधानों के मद्देनजर परिष्कृत किया जाने की जरूरत है.

इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए आपको वैज्ञानिक होने की जरूरत नहीं कि आज राष्ट्र के समक्ष मौजूद सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है भारत के युवाओं के लिए पर्याप्त नौकरियों का नहीं होना. यह बात कई सर्वेक्षणों में कई बार सामने आ चुकी है. भारत के करोड़ों युवाओं को रोजगार मुहैया कराना एक गंभीर चुनौती है. इस चुनौती का सामना करने के लिए सबसे पहले स्थिति की गंभीरता को स्वीकार करना और खुले मन से समाधान की नई नीतियों पर विचार करना होगा. लोगों को धोखे से यह भरोसा दिलाने के लिए कि रोजगार की कोई समस्या नहीं है, अपरिपक्व विश्लेषणों की कवायद कोई समाधान नहीं हो सकती है.

(इनपुट: ब्लूमबर्ग क्विंट)

(प्रवीण चक्रवर्ती कांग्रेस पार्टी के डेटा विश्लेषण विभाग के प्रमुख हैं. पूर्व में वह एक थिंक टैंक में विशेषज्ञ थे. इस लेख में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें ब्लूमबर्गक्‍व‍िंट या इसकी संपादकीय टीम की सहमति होना जरूरी नहीं हैं. )

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