हाथरस केस में पुलिस, सरकार और उच्च जाति के कथित ठेकेदारों की तरफ से बलात्कार को छोड़ अलग-अलग अलग कहानियां पेश की गई हैं. लेकिन इस केस में सबसे महत्वपूर्ण है पीड़िता की जातीय पहचान. इस मामले में जितनी अहम पीड़िता की लैंगिक पहचान है, उतनी ही अहम उसकी और उसके परिवार की जातीय पहचान भी है और इस पर चर्चा जरूरी है.
NCRB- नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में औरतों पर हुए अपराधों में से तकरीबन 15 फीसदी यानी लगभग 60 हजार मामले सिर्फ उत्तर प्रदेश में दर्ज हुए हैं. रिपोर्ट ये भी बताती है कि पिछले साल दलितों के खिलाफ होने वाली हिंसा के मामलों में बढ़ोतरी हुई है और सबसे ज्यादा मामले प्रदेश में ही दर्ज किए गए हैं.
भारत में जातीय भेदभाव की दास्तान बहुत लंबी है. पिछड़ी जातियां और दलित कई सदियों से उत्पीड़न झेल रहे हैं. यहां तक कि पिछड़ी जातियों के खिलाफ बलात्कार का इस्तेमाल एक टूल ऑफ ऑपरेशन (उत्पीड़न के हथियार) के तौर पर भी किया जाता है. इस केस में भी जाति की महत्वपूर्ण भूमिका है.
पीड़िता और उसके परिवार का संबंध वाल्मीकि जाति से है. जहां ये अपराध हुआ है, वो जगह है हाथरस जिले का चंदपा क्षेत्र. वहां तकरीबन 600 परिवार हैं, जिनमें से आधे ठाकुर हैं और कुछ 15 परिवार दलितों के हैं. इस केस में जितने अभियुक्त हैं सब ठाकुर हैं. पीड़िता के परिवार का कहना है कि वाल्मीकि और ठाकुरों के बीच संबंध काफी समय से खराब हैं. तरह तरह से भेदभाव होता है.
राजनीतिक कारणों से होते हैं रेप!
अक्सर लोग मानते हैं कि दंगे या बलात्कार जैसे अपराध सुनियोजित नहीं होते हैं, लोग अपना संयम खो देते हैं और अपराध कर देते हैं. लेकिन हमारे सामने कई रिसर्च और रिपोर्ट्स मौजूद हैं जो बताती हैं कि ऐसा जरूरी नहीं है. भारत और यूनाइटेड किंगडम के परिपेक्ष्य में हुई एक रिसर्च ने बताया कि दंगे अचानक नहीं होते बल्कि स्ट्रेटजिक होते हैं और इसी तरह बलात्कार भी हमेशा अचानक एक ही कारण से नहीं होते बल्कि किसी विशेष समाज, जाति या नस्ल के लोगों का उत्पीड़न करने के लिए इनका इस्तेमाल होता है.
2013 में इन्क्वायरीज जर्नल की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि किस तरह युद्ध के दौरान की जाने वाली यौन हिंसा एक तरीका होती है, अपने तय किए हुए लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए.
उसी तरह हिंदुस्तान में दलित औरतें कथित ऊंची जाति के लोगों के जरिए राजनैतिक कारणों से रेप की जाती हैं. और समाज में मौजूद भेदभाव की वजह से छोटी जातियों के लिए ऐसे मामलों में न्याय मांगना काफी मुश्किल हो जाता है.
हाथरस केस पिछड़ी जातियों के संघर्ष का उदाहरण
हाथरस केस में भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है. जैसा परिवार ने बताया कि इस केस का मुख्य आरोपी संदीप और दुसरे ठाकुर लड़के गांव की दलित लड़कियों को पहले भी परेशान करते रहें है. दलितों और वंचित तबको के साथ कई तरह से हिंसा सिर्फ गांवों में ही नहीं बल्कि शहरों और यूनिवर्सिटीज में भी होती है. और जब कोई पीड़ित इसके खिलाफ लड़ना शुरू करता है तो ये लड़ाई भी खुद एक अपराध बन जाती है.
इस केस में भी हम देख सकते हैं कि किस तरह से पीड़िता के भाई को धमकाया गया और उसके पिता ने ना सिर्फ न्याय की मांग की बल्कि खुद की और परिवार की सुरक्षा की मांग भी की है. हाथरस केस एक उदाहारण है कि किस तरह से भारत में पिछड़ी जातियों को हिंसा और अपराध का सामना करना पड़ता है.
खुद पीड़िता के पिता इसी वजह से अपनी सुरक्षा मांग रहें हैं. ये परिवार सिर्फ अपराधियों के खिलाफ ही नहीं बल्कि पूरे राज्य प्रशासन से भी लड़ रहा है. इसलिए आपने देखा होगा किस तरह से पीड़िता के शव का रातो-रात अंतिम संस्कार कर दिया गया. उसके परिवार को किसी से मिलने नहीं दिया गया और पूरे गांव को ब्लॉक कर उसे छावनी में बदल दिया गया.
इस तरह के जो अपराध पिछड़ी जातियों के खिलाफ होते हैं उसको एक कारण है जो परिभाषित करता है, कि पिछले सालों में दलित और पिछड़े तबकों का एजुकेशनल, इकोनोमिक और सोशल डेवलपमेंट हुआ है. यूनिवर्सिटीज में अब वो पढ़ रहे हैं, नौकरियां पा रहे हैं और घोड़ी पर चढ़ कर बारात भी निकाल रहे हैं. बहुत बेहतर तो नहीं, लेकिन कुछ हद तक डेवलपमेंट हुआ है.
इस इकनॉमिक और सोशल डेवलपमेंट की वजह से भेदभाव और उंच-नीच की जो एतिहासिक प्रैक्टिस थी, अब वो उतनी प्रभावी नहीं है और जो कथित ऊंची जातियां हैं उनका वर्चस्व कम हो गया है. और इसी कारण से कई जातियां अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए दलितों पर हिंसा का इस्तेमाल करती हैं.
एनसीआरबी की ही रिपोर्ट के अनुसार, भारत में बलात्कार के मामलों में दोषसिद्धि की दर (कन्विक्शन रेट) सिर्फ 27.8 प्रतिशत है. केंद्र सरकार ने मार्च में बताया था कि लगभग 2 लाख 40 हजार बलात्कार और POCSO के मामले अब भी अदालतों में लंबित हैं. उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जहां सबसे ज्यादा बलात्कार के मामले लंबित हैं, वहां पिछले सालों में एक भी फास्ट ट्रेक कोर्ट नहीं बनाया गया. कितने केस आखिर फास्ट ट्रेक अदालतों में सुलझाए जा सकेंगे? कितनों को न्याय मिलना संभव है?
इसलिए जब तक हम ऐसे मामलों में अपने टेम्पररी सेटिस्फेक्शन (आंशिक संतुष्टि) के लिए इंस्टेंट जस्टिस (तुरंतत न्याय) की मांग करते रहेंगे, ये मामले कम नहीं होंगें. इसका हल तभी मुमकिन है जब हम स्थायी संस्थागत बदलावों की मांग करें.
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