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अस्पतालों की ज्यादती का शिकार मैं भी,साधो रे ये मुर्दों का है गांव

मेरे पास भी एक कहानी है. ये कहानी लखनऊ के ‘फाइव स्टार’ टाइप अस्पताल की है.

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दिल्ली की 7 साल की बच्ची आद्या डेंगू का शिकार हो गई और दम तोड़ दिया. वहीं आद्या के परिवारवाले हेल्थ सिस्टम के शिकार हो गए. बच्ची के इलाज का बिल बना 18 लाख का, इसमें 2700 दस्तानों और 660 सीरिंज जैसी चीजों के दाम शामिल हैं.

आद्या के पिता को शक है कि उनकी बच्ची की मौत इलाज के दौरान ही हो गई थी, लेकिन अस्पताल वालों ने अपने इस 'कस्टमर' से दस्तानों- सिरिंज की 'शॉपिंग' के पैसे वसूल लिए. मीडिया की कई रिपोर्ट में हेडलाइन बनीं कैसे दुकान बनते जा रहे हैं अस्पताल और मरीज बन रहे हैं इन आलीशान दुकानों के 'कस्टमर'.

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अस्पतालों के इस रवैये की एक कहानी ये भी है...

निजी अस्पतालों की इस ज्यादती से आप भी वाकिफ हो चुके होंगे. बात सिर्फ एक अस्पताल की नहीं है. अस्पताल तंत्र में खामियों से भरे इस देश में जब भी कोई लोअर मीडिल क्लास और मीडिल क्लास परिवार बीमार पड़ता है, तो पहली गुहार सरकारी अस्पतालों पर नहीं, इन प्राइवेट अस्पतालों के सामने ही लगती है.

मेरे पास भी एक कहानी है. ये कहानी लखनऊ के फाइव स्टार टाइप अस्पताल की है. मेरे पापा उस वक्त हार्ट में ब्लॉकेज की समस्या से गुजर रहे थे. लखनऊ के सरकारी पीजीआई अस्पताल ने 4 महीने बाद की बाईपास सर्जरी की डेट दे रखी थी. मरीजों के बोझ से दबे पीजीआई में डेट ऐसे ही 4-5 महीने बाद ही मिलती है, लेकिन तब, जब आप रसूखदार नहीं होते.

अस्पतालों की लिस्ट थमाने वाले कई

ऐसे में इन 4 महीनों के बीच एक बार पापा को सीने में दर्द शुरू हुआ. साफ था कि 4-5 महीने इंतजार नहीं किया जा सकता था. परिवारवालों और रिश्तेदारों की सलाह थी कि सरकारी अस्पताल का इंतजार नहीं करके लखनऊ के किसी प्राइवेट अस्पताल में ले जाना चाहिए, किसी ज्ञानी ने लखनऊ के ही ‘पांच सितारा’ अस्पताल का जिक्र किया था.

ये भी बता दूं कि ऐसे ही कई ज्ञानी, कई अस्पतालों की लिस्ट लेकर घूमते हैं, ये आपका पड़ोसी, रिश्तेदार, दोस्त कोई भी हो सकता है, उसे मतलब बस इतना होता है कि लिस्ट वाले अस्पताल में मरीज पहुंच जाए.

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'खयाल रखते हुए इलाज करते हैं'

अस्पतालों से ज्यादा पाला नहीं पड़ा था, लेकिन जितना पड़ा, उसमें ये अस्पताल सबसे शानदार था, पर्ची मिली, जिस पर अस्पताल का मोटो लिखा था- 'खयाल रखते हुए इलाज करते हैं.’ अच्छा लगा पढ़कर, पर लोगो में ये नहीं लिखा था कि आखिर वो खयाल किसका रखते हैं, मरीज का, अस्पताल का, डॉक्टर या पैसे का.

खैर उस वक्त मेरे दिमाग में ये बिलकुल नहीं था. ग्रेजुएशन फाइनल ईयर का छात्र था. उम्र थी 22 साल, साथ में मेरे बड़े भाई थे.

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पर्ची कटाए अभी बमुश्किल 3-4 घंटे हुए थे कि तमाम जांच के लिए पापा को एडमिट कर लिया गया. कई लेवल की 'सेनिटेशन' सुरक्षा वाले ICU में. अब कहा गया कि हार्ट स्पेशलिस्ट डॉक्टर साहब आएंगे, तभी इलाज शुरू हो पाएगा. लंबे चौड़े, सफेद कोटधारी डॉक्टर साहब एक बंद कमरे में बैठ गए.

अब बारी थी हमारी...डॉक्टर ने हमें यानी मुझे और मुझसे कुछ ही साल बड़े मेरे भाई को बुलवाया. हम दोनों के लिए वो वक्त बेहद मुश्किल भरा था. कारण दो थे, पहला- घर के मुखिया यानी पापा, जो हर मुश्किल स्थिति का खुद में एक समाधान थे, वो ही ICU में थे. दूसरा- पहली बार हम दोनों का 'पाला' ऐसे मल्टीप्लेक्स वाले अस्पताल से पड़ा था, जहां सवाल भी डॉक्टर ही पूछते थे और जवाब भी डॉक्टर ही देते थे.

डॉक्टर ने बोलना शुरू किया, जिसे मैं शायद कभी नहीं भूल सकता:

सिचुएशन बहुत बेकार है. दिल का ज्यादा हिस्सा खराब हो चुका है (लेमैन लैंग्वेज में), क्या किया जाए बताइए? ऑपरेशन ऐसे शुरू नहीं कर सकते, लेकिन जल्दी शुरू भी करना है. क्या फैसला है आप लोगों का?
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'पैसों का इंतजाम कर लो'

हम दोनों भाइयों को ये समझ नहीं आ रहा था कि आगे क्या बोलें. नॉर्मली बाइपास ऑपरेशन के बारे में हमलोग कई लोगों से बातचीत कर चुके थे. हमें ये लाइन समझ नहीं आई कि दिल का ज्यादा हिस्सा खराब हो चुका है.

भाई ने कहा- शुरू कर दीजिए, उधर से जवाब आया, 'पैसों का इंतजाम कर लो'

''सर कितने पैसों का इंतजाम करना है?''

''अरे, कुछ कहा नहीं जा सकता, कंडीशन सीरियस है, ट्यूब लगाना पड़ा या मशीन लगाना पड़ा तो उसके पैसे अलग से लगते हैं. बाहर से उसका स्पेशलिस्ट डॉक्टर बुलाया जाता है. उसे भी पैसे देने होते हैं. ''

‘’फिर भी सर कुछ तो बता दीजिए?’’

''15 तो मान ही के चलो. आगे 20-30-40 कुछ भी लग सकता है. वो कंडीशन पर डिपेंड करेगा, अभी कुछ नहीं कर सकते, जल्दी फैसला करो''

डॉक्टर साहब के 15-20-30-40 का मतलब 15,20,30, 40 लाख से था.
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हम दोनों एक-दूसरे का चेहरा निहार रहे थे

अब हम दोनों भाई कुछ देर तक तो एक-दूसरे का चेहरा निहार रहे थे और दिमाग में ये चल रहा था कि पैसे कहां से आएंगे. पापा खुद ICU में थे, तो उनसे पूछ नहीं सकते थे. अब केबिन से बाहर आकर हमने कुछ रिश्तेदारों को फोन किया. पैसे का इंतजाम शुरू हो गया.

उसी दिन रात में कुछ लोगों का सजेशन उस अस्पताल के लिए बेहद नकारात्मक आया और रात में ही 1.5 लाख (महज कुछ घंटे के) चुकाने के बाद हम पापा को वहीं पीजीआई के आईसीयू में लेकर आए, जहां पहले से पापा का इलाज चल रहा था.

ये भी जान लें कि पापा उस वक्त चलने-फिरने, हंसी-मजाक और सबकुछ संभालने की हालत में थे, लेकिन उस फाइव स्टार अस्पताल के डॉक्टर की बात के बाद हम उनसे कुछ न कह सके. पीजीआई में 1 घंटे के भीतर उनका ECG हुआ और ICU के डॉक्टर ने कहा....

''कुछ नहीं घबराहट के कारण इन्हें दर्द जैसा थोड़ा फील हो रहा था. थोड़ा डर बैठा हुआ है. कुछ टैबलेट दीं और वो भी आराम हो गया.''

ये 24 घंट की अंदर की कहानी है. हम ठगा हुआ महसूस कर रहे थे- इस सिस्टम से, अस्पताल से, सरकार से और खुद से. इस दौरान पैसे की अहमियत, डॉक्टर और अस्पताल के पेशे के बारे में कई राय बनी.

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साधो रे.... ये मुर्दों का है गांव

अब आद्या की खबर आई मीडिया में. कई ऐसी आद्या और दूसरे मरीज और उनके परिवारवाले खुद ही कुढ़ रहे हैं या कुढ़ चुके हैं. दिमाग में अब एक गाना बज रहा है...

साधो रे.... ये मुर्दों का है गांव... ये मुर्दों का गांव....आप भी सुनिए आराम मिलेगा.

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