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आखिर इन बाधाओं के रहते कश्‍मीर समस्‍या कैसे सुलझाई जाए?

कश्मीर समस्या के खत्म होने से भारतीयों को फायदा होगा, वहीं अगर समस्या बरकरार रहती है, तो दूसरों को लाभ होगा.

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श्रीनगर से प्रकाशित होने वाले उदारवादी अखबार 'राइजिंग कश्मीर' के संपादक शुजात बुखारी की अफसोसनाक हत्या के बाद मीडिया में एक बार फिर से कश्मीर पर बहस तेज हो गई है. इसमें आधा-अधूरा ज्ञान भी परोसा जा रहा है. इस बहस में जो 8 भावनात्मक तथ्य जेहन में रखे जाने चाहिए, उनकी अनदेखी की जा रही है.

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  • पहला, कश्मीर समस्या 70 साल पुरानी है. कभी इसका ज्वार हल्का रहता है, तो कभी लहरें काफी ऊंची हो जाती हैं. पिछले चार साल से कश्मीर समस्या की लहरें काफी ऊंची रही हैं और बुखारी इसी का शिकार हुए हैं.
  • दूसरा, मोदी सरकार की सख्ती के चलते कश्मीर घाटी के निहित स्वार्थी तत्वों के वजूद पर सवालिया निशान लग गया है. इनमें वैसे भारतीय और पाकिस्तानी शामिल हैं, जो कश्मीर समस्या के बहाने जेबें भरते आए हैं.
  • तीसरा, राजनीतिक तौर पर कश्मीर समस्या का मतलब घाटी में रहने वाले उन 1% मुसलमानों से है, जो मानते हैं कि वे भारतीय नहीं, कश्मीरी हैं. वे भारत से अलग होकर अलग देश बनाना चाहते हैं और पाकिस्तान के साथ नहीं जाना चाहते.
  • चौथा, कश्मीर में कुल 40 लाख मुसलमान रहते हैं. इसका 1% 40,000 के करीब होता है. इसके उलट, भारत में 1.3 अरब लोग रहते हैं.
  • पांचवां, घाटी का एरिया 4,550 वर्ग किलोमीटर है और भारत का 29,73,990 वर्ग किलोमीटर.
  • छठा, सिर्फ 40,000 लोगों की वजह से भारत से वसूली की जा रही है.
  • सातवां, मैं इसे वसूली इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि साल 2000-2016 के बीच सभी केंद्रीय अनुदान में से 10% कश्मीर को मिला, जबकि देश की कुल आबादी का सिर्फ 1 फीसदी हिस्सा वहां रहता है. इसके उलट यूपी में 13% आबादी रहती है. उसे इस दौरान 8.2% का केंद्रीय अनुदान मिला.
  • आठवां, इसलिए 2011 की जनगणना के मुताबिक, 1.25 करोड़ की आबादी वाले जम्मू-कश्मीर में साल 2000-2016 के बीच प्रति व्यक्ति को 91,300 रुपये का केंद्रीय अनुदान मिला, जबकि उत्तर प्रदेश में यह इस दौरान 4,300 रुपये रहा.

क्या है समस्या?

यह तितरफा समस्या नहीं है, जिससे भारत, पाकिस्तान और 40,000 अलगाववादी जुड़े हुए हैं. न ही इससे हुर्रियत, जेकेएलएफ और दूसरे भागीदार जुड़े हैं. असल में कश्मीर समस्या के दो पक्ष हैं. इसमें एक ओर कश्मीरी मुसलमानों के साथ भारतीय और दूसरी तरफ अलगाववादी और पाकिस्तान हैं. इन हालात में कश्मीर समस्या के खत्म होने से भारतीयों को फायदा होगा, वहीं अगर समस्या बरकरार रहती है, तो दूसरों को लाभ होगा.

कश्मीर समस्या के खत्म होने से भारत को क्या फायदे होंगे? राजनीतिक तौर पर देखें, तो इससे यह बात साबित हो जाएगी कि दो देशों वाली थ्योरी बेवकूफी थी. रणनीतिक तौर पर यह लाभ होगा कि भारत के मैदानी क्षेत्रों में पाकिस्तान की पहुंच खत्म हो जाएगी और उसके जरिये इन क्षेत्रों का एक्सेस रखने वाले चीन पर भी अंकुश लग जाएगा.

कश्मीर समस्या से जिन अलगाववादियों को फायदा होता है, उनके दो धड़े हैं. इसमें घाटी के नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी जैसे राजनीतिक दल और उनके कार्यकर्ता शामिल हैं. इन दलों के नेताओं को कार्यकर्ताओं के मुकाबले धन और सत्ता का कहीं अधिक फायदा मिलता है.

इसलिए कश्मीर समस्या का कोई ऐसा हल नहीं है, जो सबको स्वीकार्य हो. इसके हर समाधान के साथ कोई न कोई समस्या जुड़ी हुई है. अगर आप अच्छी तरह पेश आते हैं, तो फायदा उठाने वाले लोगों की मांगें बढ़ जाती हैं. अगर आप सख्ती करते हैं, तो घाटे में रहने वालों के तेवर गरम हो जाते हैं.
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इसे कैसे सुलझाया जाए

दिलचस्प बात यह है कि दोनों पक्ष कुछ बातों पर सहमत हैं और कुछ को लेकर उनका एक-दूसरे से बिल्कुल अलग नजरिया है. इसे समझने के लिए एक शादीशुदा जोड़े की मिसाल लेते हैं. यह जोड़ा शाम को बाहर घूमने जाना चाहता है. पति चाहता है कि बाहर जाकर आईपीएल का मैच देखा जाए, जबकि पत्नी भजन संध्या में जाना चाहती है. वहीं, वे एक-दूसरे का साथ भी नहीं छोड़ना चाहते. ऐसे में समाधान क्या हो?

ऐसी सूरत में कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए हर पक्ष के पास दो विकल्प हैं. वे एक-दूसरे से बात करें या बातचीत न करें. मीडिया का बड़ा हिस्सा और पाकिस्तान बातचीत के हक में है. इसलिए कश्मीर पर हमेशा बातचीत की मांग उठती रहती है. हालांकि कई बार बातचीत नहीं करना भी अच्छी रणनीति होती है. चीन ने अपने यहां के विद्रोहियों के साथ इस रणनीति का सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया है. अमेरिका और ब्रिटेन भी आतंकवादियों के साथ इसी रणनीति पर चलते हैं.

ऐसे में भारत के लिए अच्छा यही होगा कि कश्मीर पर वह नेताओं के साथ सारी बातचीत बंद कर दे. हालांकि इसके बजाय बीजेपी ने उनमें से एक के साथ गठबंधन कर लिया और दूसरों के साथ सख्ती बरती.

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अच्छा यह होगा कि घाटी को मिलने वाली सारी वित्तीय मदद का ऐसा इस्तेमाल किया जाए कि करप्शन के जरिये इससे फायदा उठाने वाले ‘ठेकेदारों’ की ताकत कम हो.  इसलिए वित्तीय मदद का इस्तेमाल एक मोहरे के तौर पर करना चाहिए. तब गेम से एक पक्ष के बाहर होने पर (जैसा कि सोवियत संघ ने 1990 में किया था) दूसरी ओर के खलनायकों की हार तय है.

आप इसे बच्चों के खेल से भी समझ सकते हैं. जिस बच्चे का फुटबॉल है, जब वह उसे लेकर जाना चाहता है, तो उससे गेम में शामिल दूसरे बच्चों को भी फायदा होता है, क्योंकि तब ऐसा समाधान निकालना पड़ता है, जो सबको मंजूर हो. कश्मीर में यही करने की जरूरत है.

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(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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