“इंडो-वियतनाम (India-Vietnam) डिफेंस पार्टनरशिप टूआर्ड्स 2030 पर ज्वाइंट विजन स्टेटमेंट” पर हस्ताक्षर के साथ ही भारत और वियतनाम ने अपने लंबे समय से चले आ रहे रक्षा संबंधों की ओर एक और कदम बढ़ाया है. इस पर पिछले हफ्ते रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के वियतनाम दौरे के दौरान हस्ताक्षर हुए.
दोनों देशों के बीच लॉजिस्टिक सपोर्ट को लेकर भी एक समझौते पर हस्ताक्षर हुआ. वियतनाम की ओर किया गया से ये इस तरह का पहला समझौता है. हालांकि, भारत का अमेरिका, सिंगापुर, फ्रांस, साउथ कोरिया और ऑस्ट्रेलिया के साथ इस तरह का समझौता है.
ये समझौता ऐसे समय में हुआ है जब ये खुलासा हुआ है कि चीन कंबोडिया के मुख्य बंदरगाह सियानहाउकविले के करीब रीम में कंबोडिया को एक नौसैनिक अड्डे के विकास में मदद कर रहा है. दोनों देश इस बात से इनकार कर रहे हैं कि इसका इस्तेमाल चीन करेगा, लेकिन ये गल्फ ऑफ थाइलैंड में रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थान पर है जो चीनी संघों द्वारा विकसित साकोर हवाई अड्डे जैसी कई अन्य सुविधाओं से सटा हुआ है.
भारत और वियतनाम ने इंडो-वियतनाम डिफेंस पार्टनरशिप टूआर्ड्स 2030 पर ज्वाइंट विजन स्टेटमेंट पर हस्ताक्षर किए
वियतनाम के साथ भारत के रक्षा संबंध 1990 के दशक से धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं
दोनों देशों के बीच चीनी नौसेना के जहाजों की आवाजाही पर जानकारी इकट्ठा करने के संबंध में अनिर्दिष्ट सहयोग है.
चीन के साथ भारत और वियतनाम की बातचीत में अंतर है
हाल के दिनों में, चीन वियतनाम का एक बड़ा व्यापार और निवेश साझेदार के तौर पर उभरा है.
1990 के दशक से ही भारत-वियतनाम धीरे-धीरे, लगातर करीब आ रहे हैं
वियतनाम के साथ भारत के रक्षा संबंध 1990 के दशक से ही धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं. आपको ये लगता होगा कि चीन के प्रति दोनों देशों की शत्रुता को देखते हुए सैन्य क्षेत्र में उन्होंने तेजी से करीबी संबंध विकसित किए होंगे. वास्तविक तथ्य ये है कि उनके संबंध विकसित हो रहे हैं लेकिन ये प्रक्रिया काफी धीमी और सोची समझी योजना के तहत है और ये दोनों देशों की तय की गई रणनीति के अनुरूप ही है.
भारत-वियतनाम के बीच रक्षा संबंध पी वी नरसिम्हा राव की लुक ईस्ट पॉलिसी के समय से हैं जब भारत ने वियतनाम को डिफेंस टेक्नोलॉजी देने का प्रस्ताव दिया था और 1994 में रक्षा सहयोग को लेकर एक समझौते पर हस्ताक्षर किया था.
इस सामान्य से रक्षा संबंध में क्षमता निर्माण, सैनिकों की ट्रेनिंग और हथियारों के रखरखाव पर जोर दिया गया था.
सन 2,000 में, वियतनाम का दौरा करने वाले पहले रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नाडिस ने एक व्यापक रक्षा सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किए. इसके तहत भारत और वियतनाम ने साउथ चाइना सी में समुद्री डकैती के खिलाफ एक संयुक्त अभियान चलाया. इसी समझौते के तहत वियतनाम के लिए भारतीय सैनिकों को जंगल युद्ध और गुरिल्ला रणनीति में प्रशिक्षित करने और भारत के लिए युद्धपोतों और तेज गश्त करने वाली बोट की मरम्मत, अपग्रेड और निर्माण में वियनामी नौसेना की सहायता करने का रास्ता साफ हुआ.
फर्नांडिस को इस बात का अनुमान था कि साउथ चाइना सी को लेकर भविष्य में टकराव हो सकते हैं और उन्होंने कहा था कि भारतीय नौसेना की उपस्थिति से जहाजों के आने-जाने की स्वतंत्रता और स्थिरता में मदद मिल सकती है. उन्होंने अनुमान लगाया कि कैम रन्ह खाड़ी के इस्तेमाल से ऐसा करना संभव है, जो बंगाल की खाड़ी में म्यांमार के जरिए चीनी गतिविधियों को संतुलित करेगा. दोनों देशों ने परमाणु तकनीक के क्षेत्र में भी सहयोग करना शुरू कर दिया. भारतीय रणनीतिकार, पहले से ही वियतनाम के साथ संबंधों को चीन को संतुलित करने के लिए एक साधन के तौर पर सोचने लगे थे.
संबंधों को मजबूत करने के लिए मोदी सरकार की लगातार कोशिश
लेकिन 2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वियतनाम दौरे के बाद भी अगले दशक में संबंधों को लेकर ज्यादा बात नहीं बढ़ी. वियतनाम के मिग 21 विमानों की मरम्मत में भारत की मदद करने और किलो क्लास की पनडुब्बियों, जिसे खरीदने की योजना उनकी नौसेना बना रही थी, को संभालने के लिए वियतनामी नौसेना कर्मियों को प्रशिक्षण देने के साथ भारत के साथ वियतनाम के संबंध सामान्य ही बने रहे.
2011 में साउथ चाइना सी के मुद्दे से भारतीय नौसेना का शुरुआत में पाला तब पड़ा था जब इसके युद्धपोत INS ऐरावत को रेडियो पर चीनी सेना की तरफ से बोलने का दावा करने वाली आवाज ने वियतनाम की सीमा से सिर्फ 45 नॉटिकल मील दूर से चीनी समुद्री सीमा से दूर रहने की चेतावनी दी. दरअसल कोई भी जहाज नजर नहीं आ रहा था और भारतीय युद्धपोत बिना रुके के अपने रास्ते पर चलता रहा.
इसके बाद 2014 में वियतनाम को भारतीय रक्षा उपकरण खरीदने में सक्षम बनाने के लिए भारत ने आखिरकार 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर का कर्ज दिया. इस दौरे के दौरान राजनाथ सिंह ने औपचारिक तौर पर कर्ज के तहत भारत और वियतनाम में बने 12 ऑफशोर पेट्रोल वेसल (OPV) वियतनाम को सौंपे.
2016 में अपने वियतनाम दौरे के दौरान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने खरीद के लिए 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर के एक और कर्ज का एलान किया. लेकिन, अब तक, इस कर्ज के पैसे का इस्तेमाल धीमी गति से हुआ है और ये राजनाथ सिंह के दौरे में बातचीत का एक एजेंडा भी है.
रणनीतिक तौर पर एक और अहम चीज हो ची मिन्ह सिटी के करीब सैटेलाइट ट्रैकिंग एंड इमेजिंग सेंटर है जिसे 2018 में शुरू किया गया था और जिसमें वियतनाम को भारतीय सैटेलाइट के माध्यम से सैटेलाइट इमेजरी तक पहुंचने में सक्षम बनाने का प्रावधान भी है.
साउथ चाइना सी को लेकर भारत की चिंता
पिछले साल मालाबार एक्सरसाइज के एक हिस्से के तहत भारत के ईस्टर्न नेवल फ्लीट के चार युद्धपोतों की एक टास्क फोर्स ने साउथ चाइना सी और वेस्टर्न पैसिफिक ओसन में दो महीने की ऑपरेशनल तैनाती को पूरा किया. उन्होंने इस मौके का इस्तेमाल वियतनाम जाने और वियतनामी नौसेना के साथ युद्ध अभ्यास करने में किया.
जो चीज अच्छे से नहीं पता है वो ये है कि चीनी नौसैनिक जहाजों के आने जाने पर जानकारी इकट्टा करने को लेकर दोनों देशों के बीच अनिर्दिष्ट सहयोग है.
2014 से, भारत ने वियतनाम के साथ शिखर वार्ता के संयुक्त बयान में नैवीगेशन की आजादी के मुद्दे पर अपनी चिंता को स्पष्ट किया है. 2014 के भारत-वियतनाम संयुक्त बयान में कहा गया है कि दोनों देश इस बात पर सहमत हुए कि “ईस्ट सी/साउथ चाइनी सी में नेवीगेशन और ओवरफ्लाइट की आजादी को बाधित नहीं किया जाना चाहिए,” और विवादों को 1982 कंवेंशन ऑन द लॉ ऑफ द सी (UNCLOS) के मुताबिक शांतिपूर्वक सुलझाना चाहिए.
चीन के साथ भारत और वियतनाम कैसे बातचीत करते हैं
चीन के साथ भारतीय और वियतनाम की बातचीत में अंतर है. इसका एक अहम पहलू इतिहास है: वियतनाम में लंबे समय तक चीन का कब्जा रहा लेकिन 17वीं शताब्दी के बाद से यहां आजादी कायम है. फ्रांस और अमेरिका के खिलाफ युद्ध में चीन ने आधुनिक वियतनाम की मदद की है.
हालांकि, जब चीन ने वियतनाम को सबक सिखाने के लिए 1979 में उस पर हमला किया तो उन्हें भी नुकसान उठाना पड़ा. इसके बाद से दोनों देशों के बीच पैरासेल और स्पार्टली आइलैंड को लेकर विवाद खड़ा हो गया है. 1975 में चीन ने पैरासेल आइलैंड पर जबरदस्ती कब्जा कर लिया और स्पार्टली आइलैंड को लेकर वियतनाम के आधिपत्य को चुनौती दी है.
1950 के दशक तक भारत और चीन का ऐतिहासिक तौर पर बहुत कम आमना-सामना हुआ था, जब सीमा विवाद एक युद्ध के रूप में सामने आया, जिसमें भारत को 1962 में एक भयावह हार का सामना करना पड़ा. उसके बाद से दोनों देशों की सेनाओं के बीच कुछ संघर्ष हुए हैं जिसमें 2020 में हुआ संघर्ष काफी बड़ा था. हालांकि भारी संख्या में सैनिकों की मौजूदगी के बावजूद सीमा काफी हद तक शांतिपूर्ण है.
ग्लोबल मैनुफैक्चरिंग हब के तौर पर वियतनाम का उदय
हाल के समय में, चीन, वियतनाम के एक बड़े व्यापार और निवेश साझेदार के तौर पर उभरा है. भारत-वियतनाम के 11 अरब डॉलर के व्यापार की तुलना में 2021 में चीन-वियतनाम व्यापार 100 अरब डॉलर से ऊपर रहा. वियतनाम चीनी औद्योगिक उत्पादन वैल्यू चेन में मिल गया है और ये एक बड़े ग्लोबल मैनुफैक्चरिंग हब के तौर उभरा है. वियतनाम ने विदेशी निवेश का स्वागत करते हुए और अपनी नीतियों को उनके अनुसार तैयार करके निर्यात उन्मुख मैनुफैक्चरिंग के एशियाई देशों के रास्ते का अनुसरण किया. इसे चीन के करीब होने से फायदा हुआ, विशेष रूप शेनझेन क्षेत्र में कम मजदूरी का भुगतान करके.
वियतनाम को चीन-अमेरिका के बीच ट्रेड वार का भी काफी फायदा हुआ और ये इलेक्ट्रॉनिक मैनुफैक्चरिंग का केंद्र बन गया, क्योंकि कई कंपनियां चीन से दूर जाना चाहती थीं. संयोग से, अमेरिकी टैरिफ से बचने के लिए कई चीनी कंपनियां भी अपने काम काज को वियतनाम ले गईं.
वॉल स्ट्रीट जर्नल में छपे हाल के एक आर्टिकल में लिखा है कि चीन ने 2018 की तुलना में 2021 में 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर कम का तैयार माल भेजा वहीं इसी दौरान वियतनाम से अमेरिका भेजे जाने वाले माल की कीमत 50 बिलयन अमेरिकी डॉलर ज्यादा हो गई.
वियतनाम सावधानी से भारत की ओर कदम बढ़ा रहा है
भारत-वियतनाम संबंध- 2016 के ‘एक रणनीतिक व्यापक साझेदारी’ से -महत्वपूर्ण है. लेकिन इसके महत्व को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं बताया जाना चाहिए. इतने लंबे समय को देखते हुए ये साझेदारी कुछ हद तक बहुत ज्यादा नहीं है. सैन्य और आर्थिक दोनों ही क्षेत्र में ये पर्याप्त नहीं हैं.
कुछ हद तक, ये वियतनाम की सावधानी को दर्शाता है कि वो अपने काफी ताकतवर पड़ोसी देश को नाराज नहीं करना चाहता है जो एक महत्वपूर्ण आर्थिक भागीदार भी है. वो एक मामूली सैन्य क्षमता बनाए रखते हैं, उनकी सैन्य क्षमता ये सुनिश्चित करती है कि बीजिंग भी उनके साथ सम्मान का व्यवहार करे. सत्तारूढ़ वियतनामी कम्युनिस्ट पार्टी अपने चीनी समकक्षों के साथ पार्टी के तौर पर संबंधों को बनाए रखती है, इस प्रकार ये सुनिश्चित करती है कि उनके सीमा विवाद संघर्ष में न फैलें.
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के एक विशिष्ट फेलो हैं. यह एक राय लेख है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)