मोदी जी पिछले हफ्ते की आलोचना सुनकर यही सोच रहे होंगे कि मैं तो पूरी कोशिश कर रहा हूं, लेकिन फिर भी अचानक आर्थिक समस्या कैसे आ गई? कल तक तो सब ठीक-ठाक था, आज ये तूफान कहां से आ गया?
घबराइएगा जरूर मोदी जी, ये तीसरे साल वाली शनि दशा है. हर प्रधानमंत्री को इसे झेलना पड़ता है.
नेहरू जी साल 1952 में पीएम बने और 1955 में उन्हें कांग्रेस पार्टी की मीटिंग में इकनॉमी ग्रोथ को लेकर बहुत बुरा-भला सुनना पड़ा. उसका नतीजा ये हुआ कि इंडिया ने 'सोशलिस्ट पैटर्न ऑफ सोसाइटी' को अपनी नीति का आधार बना दिया.
नेहरू का आधार अभी तक बरकरार है
इसके बाद इंदिरा गांधी की पार्टी आई. 1971 के चुनाव में उन्होंने शानदार जीत हासिल की. लेकिन 1974 में उनका सिंहासन डोलने लगा. कारण? कमजोर अर्थव्यवस्था.
फिर 1977 में मोरारजी देसाई पीएम बने और सिर्फ दो साल बाद 1979 में उनके ऊपर एक महान ‘अपशकुन’ आया. एक बहुत बड़ा सूखा और दूसरा आयात किए गए तेल की कीमतों में चौगुना इजाफा. उसके बाद उनकी सरकार गिर गई.
जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनीं और सब ठीक ही चल रहा था कि 1983 के अंत तक पहुंचते पहुंचते फिर आर्थिक व्यवस्था चरमराने लगी.
1984 के दिसंबर में इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी पीएम बने. ढाई साल तक सब बिल्कुल ठीक चला. उसके बाद वही ‘तीन साल वाला’ तूफान आ गया. उनकी राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के साथ अनबन हो गई. राष्ट्रपति ने बर्खास्त करने की धमकी दे दी थी. पूरा देश हिल गया. राजीव के पास लोकसभा में 415 सीटें थीं और राष्ट्रपति उन्हें निकालने की बात कर रहे थे.
ये खतरा जून में टला ही था कि एक बहुत भारी सूखा फिर पड़ गया. उससे देश की अर्थव्यवस्था फिर कमजोर पड़ गई.
नरसिम्हा राव पर भी अपशकुन का साया
1991 में नरसिम्हा राव पीएम बने और फिर तीन साल बाद वही अपशकुन हुआ. इस बार स्वर्गीय हर्षद मेहता के रूप में. अर्थव्यवस्था तो ठीक रही, मगर राव साहब की राजनीतिक हाल की ऐसी की तैसी हो गई.
1996 से 1999 तक चार सरकारें आईं और गईं. फिर 1999 में अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री बने. देखते ही देखते 2002 में सामने एक अजीबोगरीब समस्या आ गई. जो पहले कभी नहीं हुआ था, वो अब होने लगा. डॉलरों की एक बाढ़ सी आ गई. उस बाढ़ का एक रिजल्ट ‘इंडिया शाइनिंग’ कैंपन था, जिसकी वजह से अटल जी अगला चुनाव हार गए.
2004 में मनमोहन सिंह पीएम बने
2004 में मनमोहन सिंह पीएम बने. साल 2007 खत्म होते-होते अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील से जुड़ी समस्या आ गई. सीपीएम ने धमकी दी कि वो अपना सपोर्ट वापस ले लेगी. इसके बाद मनमोहन सरकार हिल गई और नतीजा था कि जब लोकसभा में कॉन्फिडेंस वोट हुआ, तो वहां देश की जनता को पैसों की बारिश की देखने को मिली.
2009 में मनमोहन सिंह फिर पीएम चुने गए और फिर 2012 में क्या हुआ, आप सबको याद होगा. घोटाले के ऊपर घोटाले का खुलासा. उसके बाद साल 2014 आम चुनाव में कांग्रेस को जनता ने इतना खदेड़ दिया कि उन्हें सिर्फ 44 सीटें मिली. राजा भोज, रंक बन गया.
क्या पीएम मोदी के साथ भी हो सकता है कुछ ऐसा
जब ऐसा हर प्रधानमंत्री के साथ हुआ है, तो इसमें ताज्जुब की क्या बात है कि मोदी जी पर हर तीन साल वाला अपशकुन न आए. आना ही था और आ ही गया है.
सवाल अब ये है कि मोदी जी इससे बचकर निकलेंगे कैसे? इस सवाल का जवाब ये है- अर्थनीति के प्रति अपना रवैया बदलकर. अभी तक जो उन्होंने अप्रोच लिया है कि टोंटी बदल दूंगा, तो पानी आ जाएगा... कुछ हद तक तो ठीक है.
लेकिन अगर समस्या टोंटी की ही नहीं, पानी की उपलब्धता की हो, तो फिर क्या होगा टोंटी बदलकर? कहने का मतलब ये है कि मोदी जी को अपनी सरकारी नीतियों को बदलना होगा. जितनी जल्दी वो ऐसा करते हैं, उतनी ही जल्दी वो इस मुसीबत से निकल पाएंगे.
लिहाजा, अंत में ये कहना चाहूंगा कि इस तरह के बदलाव के असर कुछ अच्छे नहीं दिख रहे हैं. बाकी पीएम की तरह मोदी जी में भी अपनी गलतियों को स्वीकार करने की क्षमता थोड़ी कम है.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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