शुरू से ही बुद्धिमान लोग हमेशा से कहते आए हैं कि केवल मूर्ख लोग ही बिना अतीत का संदर्भ लिए भविष्य के बारे में अनुमान लगाते हैं. अब जबकि अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव हो चुका है, तो यह देखने का समय आ गया है कि पहले अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के बाद भारतीय शेयर बाजार पर इसका क्या प्रभाव पड़ा था और अब नई व्यवस्था के तहत वैश्विक अर्थव्यवस्था का क्या होगा?
पहले, हम भारतीय शेयर बाजार के ऊपर नजर डालते हैं. ऐसा लगता है कि सेंसेक्स और एस एंड पी 500 मूल्य चुनाव के एक सप्ताह बाद भी उसी दिशा में जाएगा. वास्तव में, इनके बीच अंर्तसंबंध उसी तरह मजबूत है जिस तरह 0.97 है. सबसे मजबूत अंर्तसंबंध 1 होता है. वास्तव में पिछले सोमवार को हिंदू बिजनेस लाइन में एसके लोकेश्वरी के विश्लेषण में दिखाया गया था कि भारतीय बाजार उसी तरह प्रतिक्रिया करेगा जिस तरह अमेरिकी बाजार नई अमेरिकी सरकार के साथ करेगा.
लेकिन अब यह जानना जरूरी है कि यह परिवर्तन होगा कैसा, यह बढ़ेगा या घटेगा? साल 2012 में एस एंड पी 500 चुनाव वाले सप्ताह में 3.78 प्रतिशत कम हो गया था. सेंसेक्स भी नीचे गिरा था लेकिन यह गिरावट केवल 1.05 प्रतिशत रही.
साल 2008 में चुनाव 15 सितंबर के लेहमैन पतन के केवल दो सप्ताह बाद हुआ था. एस एंड पी 500 चुनावी सप्ताह में 10 प्रतिशत नीचे गिर गया था और सेंसेक्स 7 प्रतिशत नीचे चला गया था.
इसी तरह अगर साल 2004 के चुनाव के सप्ताह में एस एंड पी 500 में 3 प्रतिशत का इजाफा हुआ था और उसी तरह उसी सप्ताह में सेंसेक्स भी 3 प्रतिशत बढ़ा था.
राजनीति में एक सप्ताह का समय बहुत होता है लेकिन वित्तीय बाजार में एक महीना का समय लंबा होता है. इस तरह हालांकि, सेंसेक्स एवं एस एंड पी 500 एक ही दिशा में बढ़ रहे हैं. सहसंबंध 0.56 तक कमजोर हो गया.
भारतीय को अमूमन यह चिंता होती है कि भारत में आने वाले विदेशी निवेश नई सरकार से प्रभावित हो सकता है. 2008 के संकट काल को छोड़कर, भारतीय इक्विटी बाजार में एफआईआई का फ्लो अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के महीनों में सकारात्मक रहा है.
विनिमय दर का क्या होगा? रुपया गिरेगा या उठेगा?
2012 में, जब यूएस की इक्विटी गिरी थी, रुपये के 0.55 प्रतिशत गिरने के कारण रुपये के मुकाबले डॉलर थोड़ा मजबूत हो गया था.2008 में, डॉलर 2.8 प्रतिशत तक उठा और रुपये 0.84 फीसदी गिरा.
ऐसा इस बार भी हो सकता है. ऐसा होने की संभावना इसलिए है क्योंकि निवेशक चुनाव की अनिश्चितता खत्म होने के बाद वापस डॉलर का रुख करते हैं.
भारत के लिए निहितार्थ
भारत को ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है. हालांकि, आईटी उद्योग के लिए मामला थोड़ा अलग है, जो यूएस में आउटसोर्सिंग कम होने के कारण मुश्किलों का सामना कर रहा है. भारत ने इस दौरान, व्यापार विस्तार के लिए रक्षा और परिवहन हवाई जहाज की एक बड़े क्षेत्र के तौर पर पहचान कर ली है. यह विस्तार इस बात से अछूता रहेगा कि अमेरिका में अगला राष्ट्रपति कौन है.
लेकिन, क्योंकि भारत आर्थिक संबंधों को गहरा करना चाहता है, भारत के लिए अमेरिका से अगले कुछ सालों में वित्तीय सेवा- बैंक और निवेश सेवा- में आयात में महत्वपूर्ण विस्तार इसका मुआवजा होगा. इससे इस क्षेत्र की दक्षता को आवश्यक प्रोत्साहन मिलना चाहिए.
साधारणत: बात यह है कि भारत-अमेरिका आर्थिक संबंध अमेरिका के शेष विश्व के साथ आर्थिक संबंधों के मुकाबले बहुत छोटे हैं, जिनमें कुछ बड़ा बदलाव किए जाने की जरूरत नहीं है.
निरंतर तेजी से बन रहा रुख वह है, जो हम देखेंगे.
दीर्घावधि के मुद्दे
शेयर बाजार मूल रूप से भय और पूर्वाग्रहों का सूचक है. ये देखने के लिए कि नया राष्ट्रपति क्या लेकर आ सकता है, हमें गहरे रुखों की ओर ध्यान देना चाहिए. सबसे पहले, यह सोचना सही नहीं है कि नया राष्ट्रपति संपूर्ण परिवर्तन लेकर आएगा. यह न होता है और न हो सकता है क्योंकि नीतियों में अचानक बदलावा लाना बेहद नुकसानदायक साबित होगा. यूएस की नौकरशाही और फेडरेशन ऐसा नहीं होने देगी.
लेकिन, क्रमिक परिवर्तन हो सकता है और होना चाहिए क्योंकि अमेरिका की अर्थव्यवस्था चीन के सस्ते सामान और फेडरेशन से आसानी से मिलने वाले पैसे की आदी हो गई है. ये दो बातें चीन की अर्थव्यवस्था को मजबूती और अमेरिका की अर्थव्यवस्था को कमजोरी की ओर ले जाएंगी.
इसलिए नए राष्ट्रपति को इस ट्रेंड को पलटना होगा. सवाल केवल गति के बारे में होगा - क्या अमेरिका में पैसों की आपूर्ति के मुकाबले चीन के साथ व्यापार में कमी ज्यादा तेजी से होगी; या दोनों समान गति से कम होंगे?
यह काफी हद तक अनुमान का विषय है. संभावना है कि, हालांकि, मौद्रिक नीति तेजी से और व्यापार नीति से पहले बदलेगी क्योंकि शुल्क बढ़ाने से ज्यादा आसान ब्याज दर बढ़ाना है.
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