दिल्ली में बीजेपी का कोई शो अब तक नहीं हुआ है. इस वजह से केजरीवाल को विधानसभा चुनाव की दौड़ में खुद को मजबूती से खड़ा करने का मौका मिल गया. 50 के दशक से लेकर 90 के दशक तक लगभग चार दशकों तक दिल्ली में बीजेपी का एकाधिकार रहा. इसके पीछे अदम्य साहस के साथ पंजाबी शरणार्थियों का सहयोग था.
दिल्ली ईकाई राजनीतिक हितों में एकता की गलत तस्वीर रख रही है, जबकि इनके बीच एक-दूसरे के लिए स्वाभाविक विरोध रहा है.
केजरीवाल पर निजी हमले कर बीजेपी वही घातक भूल कर रही है, जो कांग्रेस पीएम मोदी पर हमले करके करती रही है.
म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन ऑफ डेल्ही (एमसीडी) को चलाने में उदासीनता और अकर्मण्यता के रिकॉर्ड से बीजेपी को नुकसान हो रहा है.
फरवरी 2020 में दिल्ली चुनावों में क्या होगा?
राजनीतिक आधार घटते जाने (खासकर शहरी मध्यमवर्ग के बीच घटते प्रभाव) के बावजूद अगर अरविंद केजरीवाल जीतते हैं, तो इसमें बड़ी भूमिका दिल्ली बीजेपी की होगी जो उन असरहीन नेताओं के बीच गुटों में बंटी है, जो एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने में जुटे हैं. ये मान बैठे हैं कि अपने दम पर उनकी जीत नहीं हो सकती. (जब तक कि मोदी और शाह बचाव में आगे नहीं आते)
दिल्ली बीजेपी की यह दयनीय स्थिति भयावह है, क्योंकि कभी तत्कालीन जनसंघ और बाद में बीजेपी की ताकत का यह परमाण्विक केन्द्र हुआ करती थी. वर्तमान परिस्थिति को अच्छी तरह से समझने के लिए आइए संक्षेप में थोड़ा इतिहास की ओर चलते हैं.
शरणार्थियों की बदौलत दिल्ली में बीजेपी के वे दिन
यह दिल्ली ही थी जहां जनसंघ की वास्तविक संरचना ने आकार लिया था और 1951 में गठन के बाद इसका विस्तार हुआ.
भारत का विभाजन औपनिवेशिक साम्राज्य छोड़कर जा रहे ब्रिटेन का रचा हुआ कायरता पूर्ण कदम था. सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ पंजाब. यहां जो कुछ हुआ उसकी भयावहता का अनुमान लगाना मुश्किल है. करीब-करीब समूची हिन्दू और सिख आबादी पश्चिम पंजाब से भारत आ गयी और आज के पंजाब से मुसलमान लाहौर और उससे आगे चले गये.
ये वही पंजाबी शरणार्थी थे, जिन्होंने पाकिस्तान से आने के बाद दिल्ली के लालकिले में शरण ली. इनके बीच ही जनसंघ ने अपना राजनीतिक आधार तैयार किया.
इन शरणार्थियों में दो चारित्रिक विशेषताएं थीं. एक, इनमें अपने घरों और चूल्हों से दूर होने की स्थिति पर कांग्रेस के लिए एकसमान रूप से तिरस्कार और नफरत की भावना थी. दूसरा, इनमें स्वाभिमान और अथक मेहनत की भावना थी. ये दृढ़ प्रतिज्ञ थे कि जल्द से जल्द कुछ अच्छा कर लेंगे और इस बात के लिए आश्वस्त थे कि जल्द ही उनकी स्थिति पहले से बेहतर हो जाएगी.
दिल्ली के व्यापार और कारोबार के बड़े हिस्से पर ये शरणार्थी काबिज हो गये. पहले बनियों का प्रभुत्व था जो वेदांत युग से कारोबारी रहे हैं और परम्परागत तौर पर कांग्रेस के वोटर भी. पंजाबी शरणार्थियों को समृद्धि और प्रभुत्व का आनन्द लेने का जो अवसर अभी-अभी मिला था उससे उनमें राजनीतिक शक्ति हासिल करने की उत्कंठा जगी और जनसंघ के रूप में उन्होंने उपयुक्त विकल्प पाया.
दिल्ली दरबार से बीजेपी का पलायन
बलराज मधोक, वीके मल्होत्रा (दिल्ली के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त), किदार नाथ साहनी (दिल्ली के पूर्व मेयर), बलराज खन्ना (दिल्ली के पूर्व डिप्टी मेयर) और मदन लाल खुराना (दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री) जैसे अपने समय के कद्दावार राजनीतिज्ञों के साथ शरणार्थी आगे बढ़े. यहां तक कि 1967 में जनसंघ ने दिल्ली की 7 लोकसभा सीटो में से 6 जीत लीं.
दिल्ली में जनसंघ को कमजोर करने की कोशिश में 1972 के मेट्रोपॉलिटन काउंसिल के चुनावों में इंदिरा गांधी ने (तब उनके साथ भारी सैन्य जीत के बाद की लोकप्रियता थी) आरएसएस के गढ़ पटेल नगर में खुद घर-घर प्रचार किया, लेकिन तब वह यहां से वीके मल्होत्रा को नहीं हरा सकीं.
दिल्ली पर संघ की पकड़ को मजबूत बनाने में पाकिस्तान से आए पंजाबी शरणार्थी और आर्य समाज दोनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.
1980 में जनसंघ के विघटन और बीजेपी के गठन के बाद भी दिल्ली में इसका प्रभाव बना रहा. एलके आडवाणी जल्द ही मेट्रोपॉलिटन काउंसिल के चेयरमैन बन गये.
1991 में संवैधानिक संशोधनों के बाद 1993 में हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी को एक बार फिर बहुमत मिला. विधानसभा और म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन दोनों में बीजेपी का कब्जा हो गया. लेकिन, 1996 में इसे सत्ता से बाहर होना पड़ा. उसके बाद से यह कभी सत्ता में लौटकर नहीं आयी.
50 के दशक से लेकर 90 के दशक तक यानी चार दशकों तक दिल्ली में बीजेपी का राजनीतिक एकाधिकार उन नेताओं के साहसी नेतृत्व की कहानी है, जिन्होंने खुद को साबित किया कि वे कांग्रेस का विकल्प हो सकते हैं और वे शानदार तरीके से इसमें सफल रहे. उन्हें अदम्य भावना से पंजाबी शरणार्थियों का समर्थन मिला.
बीजेपी की दिल्ली ईकाई का वर्तमान परिदृश्य
बीजेपी की दिल्ली ईकाई निकृष्ट, बेरंग और दिशाहीन है. पहली बात यह है कि दिल्ली ईकाई उन लोगों में राजनीतिक हितों में एकता की गलत तस्वीर पेश कर रही है, जो स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे के विरोधी हैं. प्रांतीय प्रमुख पूर्वांचली हैं, पूर्व के प्रांतीय अध्यक्ष बनिया तबके से आते हैं और कुछ कम प्रभावी नेता पंजाबी शरणार्थी, गुर्जर और दलित हैं. पंजाबी शरणार्थियों को बनिया पसंद नहीं करते, जिन्होंने आजादी के बाद खुद को आगे बढ़ाया. दोनों के लिए परस्पर तिरस्कार का भाव है. ये दोनों पूर्वांचलियों को नापसंद करते हैं, जिनका नजरिया है कि प्रवासी के तौर पर ये दिल्ली की जमीन, संसाधन और संस्कृति का अतिक्रमण करते हैं. यह स्थिति दिल्ली ईकाई में वर्षों से जारी गुटबाजी के बुरे रूप को बयां करती है.
दूसरी बात है कि मनोज तिवारी को छोड़कर जिनके पास प्रदेश की पूर्वांचली आबादी में जनसमर्थन होने की बात से (कई बार श्रद्धा के स्तर पर भी) कोई इनकार नहीं कर सकता, दिल्ली बीजेपी में जिन नेताओँ की आकाशगंगा होने का दावा किया जाता है उनमें से कई नेता तो अपने नजदीकी मित्र का भी वोट हासिल नहीं कर सकेंगे अगर उन्हें इस दौड़ में धकेल दिया जाए.
तीसरी बात है केजरीवाल पर निजी हमले. बीजेपी वही घातक भूल कर रही है जो कांग्रेस ने पीएम मोदी को लेकर की है- एक ऐसे व्यक्ति पर निजी हमला, जो देश के लिए जान देने का दावा करते हैं और इसे राजनीतिक फायदे से जोड़ने में जो सक्षम हैं.
चौथी बात, मतदाता शायद ही कभी शासन या शासन में कमी को लेकर वोट किया करती है. म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन ऑफ डेल्ही (एमसीडी), जहां यह बीते 15 साल से सत्ता में काबिज है, को चलाने में उदासीनता और अकर्मण्यता के रिकॉर्ड से बीजेपी को नुकसान हो रहा है. दोनों नुकसान एक जैसे हैं.
केजरीवाल को दिल्ली बीजेपी कैसे मजबूत कर रही है
आखिरी लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि दिल्ली के बीजेपी नेता अनगिनत गलतियां कर रहे हैं- “हम पानी और बिजली पर सब्सिडी खत्म कर देंगे”, “हम जानबूझकर ऑड-ईवन रूल्स तोड़ेंगे..”. इससे बीजेपी को मदद नहीं मिल रही है. इसके बजाय बीजेपी की अलोकप्रिय छवि बन रही है कि यह भरोसेमंद नहीं है या इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता.
इन सब कारणों ने केजरीवाल के लिए अवसर पैदा कर दिया है, जो 2019 में लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी के हाथों हार के बाद से मुश्किलों का सामना कर रहे थे. वे एक के बाद एक लगभग हर हफ्ते लोकप्रिय योजनाओं की घोषणा कर रहे हैं ताकि गरीब और निम्न मध्यमवर्ग के बीच उनके वोट बैंक मजबूत हो. उनके मुकाबले जंग के मैदान में या तो कोई नहीं हैं या फिर बहुत थोड़े नेता हैं जो न लोकप्रियता में और न ही धूर्तता में उनके सामने ठहरते हैं.
अगर यह सबकुछ जारी रहता है तो लगभग हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड जैसी स्थिति दिल्ली में भी दोहराए जाते हम देखेंगे. दिल्ली में बीजेपी का कोई शो अब तक नहीं हुआ है. इस वजह से केजरीवाल को विधानसभा चुनाव की दौड़ में खुद को मजबूती से खड़े करने का मौका मिल गया.
(प्रणव स्वतंत्र स्तम्भकार हैं. यह एक विचार है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विन्ट इसके लिए जिम्मेदार नहीं है.)
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