पिछले दो हफ्तों में ये देखा गया कि अमेरिका में गर्भपात कानून (Anti-Abortion Law) पर शुरू हुई बहस दुनिया भर में सोशल मीडिया की बातचीत में हावी रही. इसमें भारत भी शामिल है. इस दौरान अमेरिका के दमनकारी गर्भपात कानून की भारतीय आलोचना करने लगे क्योंकि उन्हें लगता है कि भारत में गर्भपात कानून प्रोग्रेसिव हैं.
हालांकि इस हो-हल्ले में कि किस देश के कानून ज्यादा प्रगतिशील हैं, हम भारत के उस परेशान करने वाले इतिहास को भूल गए, जहां लिंग के आधार पर गर्भपात किया जाता रहा है. भारत सरकार ने साल 1994 में Pre-Conception and Pre-Natal Diagnostic Techniques Act के तहत जन्म से पहले बच्चे के लिंग के बारे में खुलासा करने को गैरकानूनी करार दिया. इस बात को 27 साल बीत गए हैं, लेकिन ये प्रैक्टिस आज भी काफी हद तक हमारे वर्तमान का हिस्सा बनी हुई है.
रणवीर सिंह की फिल्म जयेशभाई जोरदार इसी मुद्दे पर बनी फिल्म है. फिल्म एक सीन से शुरू होती है जिसमें एक गाइनकालजिस्ट के केबिन में जयेश का पूरा परिवार जमा है. फिल्म में जयेश की पत्नी मुद्रा का किरदार शालिनी पांडे ने निभाया है. मुद्रा गर्भवती है और उसका परिवार, भ्रूण का लिंग जानने को बेहद उत्सुक है.
ये कोई छिपी हुई बात नहीं है कि मुद्रा के ससुर और सरपंच Pruthvish, जो किरदार बोमन ईरानी ने निभाया है और उसकी सास जशोदा (रत्ना पाठक शाह) एक पोता चाहते हैं, जिससे उनका वंश आगे बढ़ता रहे. वो आराम से भ्रूण का लिंग जानने की बात करते हैं.
गाइनकालजिस्ट कहती है कि अभी ये तय कर पाना संभव नहीं है कि भ्रूण का लिंग क्या है और मुद्रा की पहली बच्ची सिद्धी के जन्म के बाद सातवीं बार गर्भपात उसके लिए जोखिम भरा हो सकता है. फिल्म में मुद्रा की बेटी का किरदार प्यारी सी जिया वैद्य ने निभाया है.
लेकिन फिर डॉक्टर चालाकी से जय माताजी कोड वर्ड्स का इस्तेमाल कर जयेश को बता देती है कि भ्रूण का लिंग स्त्री है. जब ये सबकुछ फिल्म में दिखाया जा रहा होता है तभी आपकी नजर डिस्क्लेमर पर पड़ती है, जिसमें सफेद फॉन्ट में लिखा है कि जन्म से पहले बच्चे का लिंग जानना एक दंडनीय अपराध है, लेकिन ये इतने छोटे अक्षरों में लिखा होता है कि मुश्किल से ही दर्शकों की नजर इस पर पड़ी होगी. ठीक डिस्क्लेमर की तरह फिल्म भी मुश्किल से ही लिंग निर्धारण की गहरे तक धंसी समस्या पर ठीक तरह से ध्यान दिला पाती है.
जैसे मुद्रा की अपनी कोई हैसियत नहीं
इस फिल्म में हम मुश्किल से ही मुद्रा के बारे में कुछ जान पाते हैं. लिंग के आधार पर गर्भपात को लेकर उसके विचार क्या हैं और वो क्या सोचती है, हम ये नहीं जान पाते या फिर ये कि जब 6 बार उसका गर्भपात कराया गया तो उसके शरीर पर क्या बीती?
जब एक और बार गर्भपात की वजह से मुद्रा की जान दांव पर होती है, तब जाकर जयेश अपने मां-बाप के सामने खड़ा हो पाता है. अचानक उसकी अंतर्रात्मा जाग जाती है और वो उन तरीकों के बारे में सोचने लगता है जिससे अपनी बेटी और पत्नी को बचा सके.
रणवीर के किरदार को एक संवदेनशील पुरुष के तौर पर दिखाया गया है. वो जो अपनी पत्नी से सच्चा प्यार करता है. चूंकि वो अपनी पत्नी को मारता-पीटता नहीं है, जबकि उससे ऐसा करने के लिए कहा गया और अपनी बेटी सिद्धी को बहुत प्यार करता है, इसलिए हमसे ये उम्मीद की गई है कि हम इससे पहले हुए गर्भपात में उसकी भूमिका को अनदेखा करें. इसे कम करके या इस तरह दिखाया गया है कि उस पर परिवार का दबाव था.
सिद्धी को भाग्यशाली माना जाता है क्योंकि, उसे जन्म लेने की इजाजत मिली. बाकी सब इतने भाग्यशाली नहीं थे, इस पर कोई सवाल नहीं पूछा जाता.
महिला बच्चों पर फैसला नहीं लेतीं
मुद्रा के व्यक्तित्व को अवांछनीय बनाकर फिल्म ने इस बात पर भी ध्यान दिलाया है कि भारत में महिलाएं मुश्किल से ही प्रजनन से जुड़े निर्णय ले पाती हैं. 6 भ्रूणों के गर्भपात का फैसला मुद्रा ने नहीं किया था, बल्कि ये उसके सास-ससुर का फैसला था.
इसी तरह सातवीं प्रेग्नेंसी के दौरान गर्भपात न करवाने का फैसला भी उसने खुद नहीं लिया था, बल्कि ये फैसला जयेश का था. ये फिल्म ये दिखाने में सफल रही है कि बच्चे पर फैसला खुद महिला नहीं, बल्कि परिवार और समाज करता है.
फिल्म लिंग आधारित गर्भपात को लेकर ज्यादा मजबूत स्टैंड ले सकती है. लेकिन ये इस संदेश से आगे जाने में नाकाम रही है कि लड़कियों को बस पत्नी और मां के रूप में उनके महत्व के चलते जन्म से पहले नहीं मारा जाना चाहिए.
उदाहरण के लिए, यहां तक कि जयेश को भी एक समय पर अपनी मां को ये कहते हुए दिखाया गया है कि अगर उनके माता—पिता उन्हें जन्म नहीं देते तो फिर उसका भी जन्म नहीं होता. यहां ये समझना जरूरी है कि लिंग आधारित गर्भपात सिर्फ इसलिए गलत नहीं है कि इससे पत्नियों और मांओं की कमी हो जाएगी. ये इसलिए गलत है क्योंकि, ये लिंग आधारित है.
जयेशभाई जोरदार में महिलाओं की पहचान को मां, बहन और पत्नी तक ही सीमित करके रख दिया गया है.
वही घिसी पिटी बातें
फिल्म का दूसरा भाग खास तौर पर एक नाटकीय मोड़ ले लेता है, जब जयेश की लाडोपुर, हरियाणा का एक काल्पनिक गांव, भागने की योजना फेल हो जाती है. उसे दूसरी शादी के लिए मजबूर किया जाता है और यहां से सबकुछ काफी कुछ वैसा लगने लगता है, जिसका आप अनुमान लगा सकते हैं.
अंत तक जयेशभाई जोरदार काफी उपदेशात्मक सुर पकड़ लेते हैं, जहां उम्मीद को एक यथार्थवादी ख्याल के तौर पर दिखाया गया है. जयेश गांव की महिलाओं को एक लंबा भाषण देता है कि लाडोपुर भागकर जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि, अगर ऐसा हुआ तो पुरुषों का क्या होगा? इस बात ने मुझे हैरान कर दिया.
फिल्म उस पॉपुलर अलंकारिक भाषा को दोबारा पैदा करती है, जिसे बॉलीवुड फिल्मों में कई बार दिखाया गया है और वो ये कि पुरुषों को बदलने और उन्हें अच्छा बनाने का बोझ महिलाओं पर डाल दो. जयेश ये तर्क देता है कि ये उनकी गलती नहीं क्योंकि, वो जो कर रहे हैं, वो उनके समाजीकरण पर आधारित है.
वहीं ये फिल्म उस भूमिका को कम करके दिखाती है कि हर कोई, जिसमें खुद जयेश भी शामिल है, सभी ने स्त्री भ्रूण के गर्भपात और जन्म से पहले लिंग निर्धारण का दंडनीय अपराध किया.
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