'रिस्क है तो इश्क है...', 'स्कैम 1992' वेब सीरीज में एक्टर प्रतीक गांधी की ये पंचलाइन काफी मशहूर हुई थी. प्रतीक ने इस वेब सीरीज में बदनाम स्टॉक ब्रोकर हर्षद मेहता का किरदार निभाया था. पर यह फेमस डायलॉग लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (LIC) के आगामी आइपीओ (initial public offer /IPO) पर सटीक नहीं बैठता है. जो लोग इस आइपीओ से जुड़ने जा रहे हैं, उनके लिए यह कोई मजाक की बात नहीं होने जा रही.
सबसे पहले आइए इस तथ्य पर नजर डालते हैं. भारत की सबसे बड़ी रिस्क मैनेजमेंट कंपनी जो अपने पॉलिसी होल्डर्स की जिंदगी के जोखिम को मैनेज करती है, अब नए बदलाव के साथ अपने शेयर्स की अंडरप्राइसिंग या ओवरप्राइसिंग के रिस्क का सामना करती नजर आ रही है. इसके साथ ही इसका बड़ा आकार भी मार्केट से जुड़े रिस्क को बढ़ा सकता है. इसके अलावा जियोपॉलिटिकल और ग्लोबल मार्केट रिस्क भी है और रिस्क मैनेजमेंट को लेकर नई तरह की आशंकाएं भी.
अब एक गहरी सांस लीजिए और इन लाइनों को धीरे-धीरे फिर से पढ़िए, अब हम आपको रिस्क और इश्क का यह फाइनेंशियल चक्कर समझाने जा रहे हैं.
शेयर्स की प्राइसिंग
66 प्रतिशत मार्केट शेयर, 283 मिलियन से ज्यादा पॉलिसीज, 1.35 मिलियन एजेंट्स और इस बीच 23 प्रतिद्वंद्वियों के साथ पब्लिक सेक्टर के मानकों के हिसाब से एलआईसी ने अब तक अच्छा प्रदर्शन किया है. यहां तक कि इसके पास एक म्यूचुअल फंड और एक क्रेडिट कार्ड बिजनेस भी है जिसे सहायक कंपनियों के जरिए मैनेज किया जा रहा है. लेकिन अब चिंता इसलिए बढ़ रही है क्योंकि एलआईसी सत्ता के गलियारों से निकलकर स्टॉक एक्सचेंज में जा रही है.
शेयर्स की प्राइसिंग हमेशा से ही जोखिम भरा रहा है और कह सकते हैं कि सबसे अच्छे समय में भी एक सब्जेक्टिव बिजनेस रहा है. ये मॉडर्न आर्ट वर्क जैसा है जिसका सौंदर्य कई बार इस पर निर्भर करता है कि रोशनी की तिरछी किरणें कैसे किसी पेंटिंग पर पड़ रही हैं
ये पेटीएम नहीं जो खतरा झेल जाए
स्टॉक्स एक्सजेंच अमूमन मार्केट के मूड, इंडस्ट्री के नेचर, लाभ, रिलेटिव चॉइस और टेक्नोलॉजी जैसे तत्वों पर निर्भर करते हैं. अब इन सभी तत्वों को एक साथ जोड़कर देखिए, अगर आपको एलआईसी का इशू मिल जाता है, जिसे भारत का सबसे बड़ा आईपीओ कहा जा रहा है, तो आपको ये समझना होगा कि ये पेटीएम नहीं है, जो लिस्टिंग में फेल होने का खतरा उठा सकता है. यहां हम भारत सरकार और बीमा एकाधिकार के जरूरी लिंक का भी जिक्र करेंगे जो और ज्यादा मुश्किल स्थिति पैदा कर सकती है.
अगर इससे बहुत ज्यादा मुनाफा होता है, तो ये आलोचकों का मुंह बंद कराने में सफल होगा जो ये कहते हैं कि fiscal deficit को मैनेज करना आसान नहीं है और ये वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम टाइप के लोगों के लिए भी खुश करने वाला होगा जो स्विस एल्पस के संपन्न परिवेश से प्राइवेटाइजेशन की वाहवाही करते हैं.
दूसरी तरफ, इसे मार्केट में पर्याप्त जरूरत को तैयार करना होगा क्योंकि सुनियोजित रूप से सिर्फ 5 प्रतिशत स्टेक्स को अलग करके भारत सरकार की योजना 75000 करोड़ रुपये करीब 10 बिलियन डॉलर के बड़े मुनाफे को बटोरने की है. इसका मतलब है, 20000 करोड़ देना या लेना.
खरीदार के तौर पर इसका सबसे अच्छा दांव है, बड़े ग्लोबल फंड्स और संस्थाएं, जिनके पास म्यूचुअल फंड्स के अलावा इस तरह की बड़ी रकम है. ऐसी उम्मीद की जा रही है कि एंकर इंवेस्टर के तौर पर ये सब साथ मिलकर मुनाफे में 60 प्रतिशत तक का योगदान कर सकते हैं. लेकिन क्या उन्हें ये कीमत आकर्षक लगेगी? यह एक रिस्क है.
क्या इससे नंबर बढ़ेंगे?
एलआईसी किसी भी संभावना को छोड़ना नहीं चाहती इसलिए अपने पुराने ग्राहकों को नये शेयर होल्डर्स में बदल रही है. ये एक ऐसा मॉडल है जो खतरे को एक अवसर में बदल रहा है. आमतौर पर एलआईसी के पॉलिसी होल्डर्स को जो वार्षिक बोनस कंपनी के सरप्लस कमाने पर मिलता था, अब वह लाभांश के तौर पर शेयर होल्डर्स को दिया जाएगा. अब अपने वफादार ग्राहकों और कर्मचारियों को रिटेल शेयरहोल्डर्स में बदलने का इससे अच्छा तरीका और क्या हो सकता था?
ये सुनने में काफी अच्छा लगता है, लेकिन क्या इससे नंबर बढ़ेंगे? ये एक रिस्क है. निवेशकों की इस कैटेगरी से करीब 15 प्रतिशत फायदा होने की उम्मीद की जा रही है. लेकिन अगर ये फायदा न मिले जैसा कि अंडर सब्सक्रिप्शन में होता या लिस्टिंग में कीमतों में गिरावट में आ जाए, जैसा कि पेटीएम के साथ हुआ, या इस पर अंडरप्राइसिंग के आरोप लग जाएं तो क्या होगा?
इस स्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को विपक्षी पार्टियों की आलोचनाओं का सामना करना पड़ सकता है, जो कि इस मुद्दे को उठाती रहती हैं कि नेहरू फैमिली की पुरानी बहुमूल्य वस्तुओं को बेचा जा रहा है. ऐसे में यह एक राजनीतिक रिस्क भी है.
हालांकि यह यहीं खत्म नहीं होता. हमारे सामने वेल्यूएशन रिस्क भी है. इंश्योरेंस कंपनियों को आमतौर पर उस capital/surplus के आधार पर मापा जाता है, जो उनके पास पहले से ही है. इसमें कमाई का वो आकलन शामिल नहीं है जो उसके करेंट पॉलिसी होल्डर्स भविष्य में लेकर आएंगे. इसे embedded value कहते हैं. ये embedded value कुछ महीने पहले 5,39,000 करोड़़ रुपये थी.
जो लोग खुद को एनालिस्ट कहते हैं वे इन पंक्तियों को पढ़कर कहना शुरू कर देंगे कि कितनी बार embedded value पर एलआईसी का आकलन किया जाएगा या किया जाना चाहिए. दो बार? या करीब चार बार. ये कोई बॉलीवुड सॉन्ग नहीं है, जिसमें आप वन टू का फोर कर सकते हैं.
असल में राइट प्राइसिंग ही सबसे जरूरी है और इसी से आपको अनुमानित फंड मिल सकता है, लेकिन ये भी एक रिस्क है. इसके अलावा दो और रिस्क भी हैं. रूस और यूक्रेन के बीच के तनाव से ग्लोबल मार्केट अनिश्चितताओं से घिरा है. यहां तक कि वॉल स्ट्रीट भी इस चिंता में है कि कैसे ब्याज दरों को बढ़ाकर यूएस फेड अपनी सस्ती मनी पॉलिसी को खत्म करने की शुरुआत कैसे करेगा.
स्टॉक मार्केट की प्रवृति कई बार किसी कंपनी की वास्तविक कीमत से नहीं निर्धारित की जा सकती, बल्कि इसे तय करता है चीप मनी नामक एक एंजाइम. एलआईसी भी ऐसे ही एक नए और बिल्कुल अनजाने क्षेत्र की तरफ बढ़ रही है.
निवेशकों के लिए लॉन्ग टर्म रिस्क
इसमें निवेशकों के लिए लॉन्ग टर्म रिस्क भी है क्योंकि, एलआईसी इस तरह का शेयर नहीं है जिसे आप खरीदते ही तुरंत बेच दें. इसमें प्रतिद्वंद्वियों के सामने मार्केट शेयर के नुकसान का रिस्क भी है और पॉलिसी होल्डर्स को निराश करने का जोखिम भी, जिन्हें बचत का कम हिस्सा मिलेगा. इसके अलावा क्लाइमेट चेंज जैसी बातें भी हैं. रिस्क मैनेजमेंट की वजह से इश्योरेंस पॉलिसीज यानी प्रीमियम पेमेंट्स के दाम बढ़ेंगे और इंश्योरेंस कंपनियां जानती हैं कि ऐसी स्थितियों की कीमत कैसे लगाई जाए. यही तो आखिर उनका कोर बिजनेस है.
हर स्थिति के लिए तैयार रहे LIC
आतंकवाद और क्लाइमेट चेंज के इस समय में नई डिजिटल तकनीकों का बोझ भी इसमें है, जिन्हें डेटा और रिस्क को मेजर करने के लिए शामिल करना जरूरी है. एलआईसी को नई तकनीकों को अपनाना होगा और टेक्नोलॉजी में तेजी से हो रहे बदलाव के साथ सामंजस्य बिठाना होगा.
चूंकि ये एक पब्लिक सेक्टर कंपनी है इसलिए हमेशा इसके लिए ये चुनौती रहेगी कि कितनी जल्दी और कितनी अच्छी तरह से ये नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर पाती है.
रिस्क मेजरमेंट और मैनेजमेंट एलआईसी के स्वभाव के साथ इसके मूल में रहा है, लेकिन नई रिस्क्स के साथ चाहे वो स्टॉक मार्केट्स से जुड़ा हो या महामारी और जलवायु परिवर्तन से, निकट भविष्य में एलआईसी को हर स्थिति के लिए तैयार रहना होगा.
कौन जानता है कि आईटी पावर के तौर पर पहचान बनाने वाले भारत में एलआईसी शायद ग्लोबल प्लेयर के तौर पर उभर कर सामने आए. या क्या फिर ये सिर्फ एक पब्लिक सेक्टर कंपनी के तौर पर सरकार के प्रभाव में रहते हुए पुराने ढर्रों में ही फंसी रहेगी?
इन सवालों के जवाब अभी हवा में ही है. हालांकि फिलहाल सरकार इससे रेवेन्यू के अप्रत्याशित लाभ की उम्मीद जरूर कर रही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कॉमेंटेटर हैं. @madversity उनका ट्विटर हैंडल है. ये एक ओपिनियन आर्टिकल है और इस लेख में व्यक्त किए विचार लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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