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मंदसौर: लंबे-चौड़े वादों और बड़ी उम्मीदों ने आग में घी का काम किया

किसानों को फसलों की दाम गिरने की वजह से लागत निकालना भी मुश्किल हो रहा है

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भारत की कृषि एक बार फिर से दो अप्रत्याशित कारणों की वजह से चर्चाओं में है. अच्छी वजह यह है कि भारत ने इस साल हर बार से ज्यादा 27.3 करोड़ टन अनाज उगाया है. बुरी वजह यह है कि मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस फायरिंग में छह किसानों की मौत हो गई.

हमेशा की तरह राजनीतिक पार्टियां खासकर बीजेपी और कांग्रेस ने इसके लिए एक दूसरे पर आरोप मढ़ने शुरू कर दिए हैं. यह विरोध प्रदर्शन अब दूसरे राज्यों में भी बढ़ने के संकेत दे रहा है.

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मंदसौर कुछ सवाल खड़े करता है

कई किसान संगठन मध्य प्रदेश के किसानों के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे हैं. इस दौरान जो सवाल उठाए जा रहे हैं वो बहुत ही प्रत्यक्ष हैं:

  • मध्य प्रदेश एक ऐसा प्रदेश है जहां खेती की हालत पिछले कई सालों में अन्य राज्यों के मुकाबले काफी बेहतर हुई है. ऐसे में वहां के किसानों का प्रदर्शन इतना हिंसक कैसे हो गया? क्या इसकी वजह हाल में हुई कोई घटना थी या फिर कई वर्षों से किसानों के भीतर उबल रही थी?
  • क्या किसानों का गुस्सा वाकई जायज है या फिर राजनीतिक फायदे के लिए उन्हें उकसाया गया?
  • और आखिर में यह विरोध रोकने के लिए क्या करना चाहिए और उससे भी महत्वपूर्ण, स्थायी रूप से इस समस्या का समाधान ढूंढने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए?
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कृषि उत्पादन में मध्य प्रदेश अन्य राज्यों से सबसे आगे है

इसमें कोई शक नहीं कि कृषि उत्पादन में मध्य प्रदेश ने अन्य राज्यों से बेहतर प्रदर्शन किया है. पिछले कुछ सालों में मध्य प्रदेश की विकास दर 11 प्रतिशत रही है जो वाकई तारीफ के काबिल है. इसे मानने में कोई शक नहीं होना चाहिए कि बिना बीजेपी और कांग्रेस सरकार की सकारात्मक नीतियों के ऐसा मुमकिन नहीं था. ये एक सच है कि सिंचित क्षेत्र को बढ़ाए जाने की वजह से उत्पादन में इतना जबरदस्त उछाल आया है.

नर्मदा बांध परियोजना और अन्य मध्यम सिंचाई परियोजनाओं की ही देन है जिससे मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्य यह उपलब्धि हासिल कर सके हैं. इसलिए इसका श्रेय अकेले केवल राज्यों को नहीं बल्कि उन तमाम नीतियों और परियोजनाओं को दिया जार्ना चाहिए जिनकी वजह से यह सब साकार हो सका है. इसके साथ ही यह बात भी मानी जानी चाहिए कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हमेशा से किसान समुदाय के प्रति काफी संवेदनशील और सहायक रहे हैं.

बलराम ताल योजना, बड़े स्तर पर अनाज खरीदना, न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक बोनस देना, ई चौपाल, पशुपालन का विकास, डेयरी, दूध प्रसंस्करण, मुर्गी, मछली पालन और बागवानी जैसी चीजों को उनके शासनकाल में काफी बढ़ावा दिया गया जो उनकी ईमानदारी और प्रतिबद्धता को दर्शाता है.

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रिकॉर्ड उत्पादन लेकिन दामों में गिरावट

लेकिन पिछले तीन से चार वर्षों में इस सेक्टर को बहुत ही बड़े संकट का सामना करना पड़ा है. सरकार और वैज्ञानिकों के कहने पर किसानों ने सब्जी और फलों के उत्पादन में विविधता अपनाई जिससे रिकॉर्ड उत्पादन हुआ. लेकिन इनके दाम गिरने शुरू हो गए जिसके चलते किसानों को खेती की मूल कीमत तक नहीं मिल पाई.

चाहे वो आलू, प्याज या टमाटर रहा हो जो कि किसान ज्यादातर उगाते हैं, उन्हें अधिकतर लागत से भी कम मूल्य पर बेचना पड़ता है या फिर फेंकना पड़ता है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह होती है कि किसानों ने अपनी फसल की जितनी कीमत लगाई होती है उससे कहीं ज्यादा दाम तो से मंडी तक ले जाने में लगता है.

केंद्र सरकार ने तेल के बीज और दाल पर अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य रखा था जिसकी वजह से किसानों ने इन चीजों का उत्पादन भी अधिक किया. लेकिन वादों के बावजूद किसानों को इन्हें भी काफी कम दाम पर बेचने को मजबूर होना पड़ा क्योंकि सरकार की तरफ से इन्हें खरीदने की उचित व्यवस्था नहीं की गई थी. खराब व्यवस्था का आलम यह था कि किसानों को चावल और गेहूं तक न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर बेचने को मजबूर होना पड़ा.

बीजेपी सरकार को केंद्र में आए हुए तीन साल हुए हैं और तभी से किसानों की मुसीबतों की खबरें सुनने को मिल रही हैं. वहीं नोटबंदी ने तो उनकी कमर ही तोड़ दी.

सर्दियों की फसल के समय नोटबंदी की वजह से मार्केट में नगदी खत्म हो गई जिसकी वजह से जल्द खराब होने वाले खाद्य उत्पाद जैसे सब्जियां, फल, दूध, मुर्गी और मछली के दाम काफी गिर गए. गौरतलब है कि इन चीजों का उत्पादन छोटे और सीमांत किसान करते है. यहां तक कि ईंट के भट्टे और निर्माण उद्योग में दिहाड़ी पर काम करने वालों का रोजगार का साधन छिन गया.

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50 प्रतिशत मुनाफे का लालच

किसानों में गुस्से की एक और सबसे बड़ी वजह ये है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान

नरेंद्र मोदी समेत पार्टी के नेताओं ने बहुत बड़े बड़े वादे कर दिए.

सबसे पहला वादा यह था कि डा. एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में बनाए गए किसानों के राष्ट्रीय आयोगी की सिफारिश को लागू करना. इमसें कहा गया था कि लागत और मूल्य पर बने आयोग की गणना के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करते वक्त उसमें किसानों का उत्पादन मूल्य का 50 प्रतिशत भी जोड़ा जाएगा.

दूसरा वादा उन्होंने यह किया कि बीजेपी के केंद्र में आने के आठ साल बाद यानी कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगाी.

तीसरा वादा यह था कि बीजेपी की सरकार बनने के बाद किसानों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसा बीमा लाया जाएगा जो उन्हें प्राकृतिक वजहों से हुए फसलों में नुकसान की भरपाई करेगा.

बीजेपी को सरकार बनाए तीन साल बीत चुके हैं और शुरू के दोनों वादे अभी भी पूरे होने बाकी हैं. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक जनहित याचिका के जवाब में बीजेपी ने कहा है कि किसानों को उनकी लागत का 50 प्रतिशत मुनाफे के अतिरिक्त देना व्यावहारिक नहीं है.

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जल्द खराब होने वाले सामानों को सबसे ज्यादा नुकसान

एनएसएसओ (नेशनल सैंपल सर्वे आॅफिस) समेत कई आंकड़े और रिपोर्ट इस बात की ताकीद करते हैं कि किसानों की असल आय घटी है. जहां एक तरफ जरूरी वस्तुओं जैसे गेहूं और चावल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 3.5 प्रतिशत की दर से बढ़ा लेकिन दूसरी तरफ इन तीन सालों में मुद्रास्फीति 7 प्रतिशत की दर से बढ़ी है.

जैसा कि पहले ही बताया कि कई वस्तुएं जो कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के अंतर्गत आती हैं उन्हें किसान एमएसपी से भी कम दामों पर बेचने को मजबूर हैं. उन्न्त गुणवत्ता वाले चावल जैसे 'पूसा 1121' और 'पूसा 1509' सभी मंडियों में 2013 के दौरान खुली नीलामी में 4800 से लेकर 3500 रुपये प्रति क्विंटल बिकते थे. 2014 में इनके दाम 3300 से लेक
र 2200 हुए और 2015 तक इनके दाम 2400 रुपये से 1300 रुपये हो गए. 2016 में तो स्थिति और भी अधिक खराब थी. पिछले तीन वर्षों में जल्द खराब होने वाले सामानों की स्थिति तो और भी ज्यादा दुखद रही है.

सरकार ने जो बीमा नीति बनाई है उसकी शर्तें और प्रक्रिया किसानों के लिए बहुत ही जटिल और समझ के बाहर हैं. उन्हें जो हर्जाना दिया जाता है वो न पर्याप्त होता है, न समय से दिया जाता है और ना ही पारदर्शी होता है. अभी तक इन बीमा योजनाओं ने किसानों से ज्यादा बीमा देने वाली कंपनियों को फायदा पहुंचाया है. किसान इतने ज्यादा परेशान हैं जिसके चलते उन्हें लगता है कि उनके साथ धोखा किया गया है.

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यूपी में किसानों की कर्जमाफी ताबूत की आखिरी कील साबित हुई

मध्य प्रदेश के किसानों का गुस्सा उस वक्त उबल गया जब उत्तर प्रदेश में किसानों की कर्जमाफी का ऐलान किया गया. जाहिर है अन्य राज्यों के किसानों ने भी इसकी उम्मीद और मांग शुरू कर दी. लेकिन केंद्र सरकार का बहाना था कि अगर राज्य सरकारें चाहें तो वो अपनी तरफ से कर्ज माफ कर सकते हैं जो कि किसी के भी गले नहीं उतरा. लोगों ने पूछना शुरू कर दिया कि अगर बीजेपी शासित एक राज्य कर्ज माफ कर सकता है तो दूसरे राज्य क्यों नहीं?

कुछ वरिष्ठ बीजेपी नेताओं ने तो यहां तक कह दिया कि यह वादे केवल चुनावी जुमले थे. अगर ऐसा है तो यह पहले से सोचा समझा झूठ और धोखा है. कुछ तो यहां तक कह रहे हैं कि इस तरह का कोई वादा किया ही नहीं गया था.

लेकिन ये सभी वादे और जुमने बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा थे और उन्हें चुनाव प्रचार के दौरान इतनी बार दोहराया गया कि लोग उसे सच मान बैठे. लेकिन शायद इसी को राजनीति कहते हैं!

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जल्द कदम उठाए जाने की जरूरत

किसान खुद से ही उग्र हो गए या उन्हें किसी राजनीतिक साजिश के तहत उकसाया गया, इसका जवाब निश्चित तौर पर नहीं दिया जा सकता. लेकिन एक बात जो बहुत ही साफ है वो ये कि मध्य प्रदेश में 2003 से बीजेपी की सरकार है और इन 14 वर्षों में कांग्रेस वहां बहुत ही कमजोर हो गई है. ऐसे में वहां हुए उग्र प्रदर्शन की आखिर क्या वजह रही होगी? मुमकिन जवाब तो यही लगता है कि किसानों के भीतर बहुत समय से कुछ धधक रहा था जिसका बांध टूट गया है, इसके अलावा और कोई दूसरी वजह नहं दिखाई देती है.

इस प्रदर्शन को रोकने के लिए क्या हो सकता था या क्या करना चाहिए था सबसे अंतिम लेकिन सबसे जरूरी सवाल है. मध्य प्रदेश सरकार ने जिस तरह से हिंसक घटनाओं के बाद समय पर कदम उठाए और कुछ अच्छे फैसले लिए उससे यह समझ आता है कि त्वरित कार्रवाई कितनी जरूरी होती है. सरकारें ज्यादातर मुश्किलों की पहले अनदेखी करती है और फिर वही मुश्किल लोगों में घर कर जाती हैं जो कि हिंसक रूप ले लेती है। इसके बाद कहीं जाकर सरकार उसे बुझाने की कोशिश करती है. सरकार को अपने इस रवैये को तत्काल प्रभाव से बदलने की जरूरत है.

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