ADVERTISEMENT

ओपिनियनः राहुल के वार के आगे बहुमत के बावजूद बेचैन दिखी मोदी सरकार

अविश्वास प्रस्ताव से विपक्ष ने लिए ये दो सबक

Updated
ओपिनियनः राहुल के वार के आगे बहुमत के बावजूद बेचैन दिखी मोदी सरकार
i

रोज का डोज

निडर, सच्ची, और असरदार खबरों के लिए

By subscribing you agree to our Privacy Policy

संसद में लोग गले मिलते हैं, पर गले पड़ जाते हैं ये भारत के संसदीय इतिहास में पहली बार हुआ. बहस होनी थी सरकार के खिलाफ आये अविश्वास प्रस्ताव पर. बहस हुई. चर्चा भी हुई. पर देश का ध्यान बंट गया राहुल गांधी की झप्पी पर. वो भी संसद के सदन में. झप्पी ली देश के प्रधानमंत्री की. मोदीजी की. जो देश-दुनिया में झप्पियां लेने के लिये मशहूर हैं. शायद ही कोई ऐसा विदेशी नेता होगा, जिसके वो गले न पड़े हों. हर नेता के गले पड़ते उनकी तस्वीर से सोशल मीडिया अटा पड़ा है.

संसद में भाषण के बाद राहुल गांधी ने पीएम मोदी को लगाया गले
(फोटोः PTI)

संसद में गजब हो गया. राहुल ने अपना भाषण खत्म किया और जब तक कोई कुछ समझता वो मोदी जी की सीट पर जा पंहुचे. उनसे खड़े होने को कहा, जब वो नहीं माने तो वहीं बैठे ही उनके गले लग लिये. बाद मे वो बोले ये बीजेपी की नफरत की राजनीति को उनका प्यार भरा जवाब है.

पहली बार मोदी जी को झेलते हुये देखा गया. पशोपेश में. वैसे अकसर ऐसा होता नहीं है कि मोदी जी के सामने कोई और तस्वीर चुरा ले जाये. पर शुक्रवार को यही हुआ. तस्वीर की ये चोरी एक राजनीतिक कहानी कहता है.

ADVERTISEMENT

राहुल ने लूट ली महफिल

कहानी का शीर्षक कुछ भी रख लो - राहुल की झप्पी या विपक्ष का मोदी सरकार के गले पड़ना. राहुल के बारे में कहा जाता है कि उनका मोदी जी से कोई जोड़ नहीं है. मोदी के सामने वो फीके पड़ जाते है. हमेशा रक्षात्मक रहते हैं. राहुल कभी एजेंडा सेट नहीं कर पाते. मोदी एजेंडा सेट करने में माहिर हैं. जब विपक्ष में थे तब भी. आज प्रधानमंत्री हैं तब भी. वो अपने विकेट पर किसी को खेलने नहीं देते. बॉलिंग भी वही करते हैं और बैटिंग भी वही.

पर शुक्रवार को राहुल के बोलने के बाद से सारी चर्चा राहुल के इर्द गिर्द ही रही. दिन भर चर्चा राहुल की. कोई झप्पी लेने और आंख मारने के लिये खिल्ली उड़ा रहा था तो कई उनकी तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे. एक राजनेता के लिहाज से ये उनकी सफलता थी.

वो राजनेता ही क्या जो मजमा न लूट सके. इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल ने मजमा लूट लिया. वो झप्पी न भी लेते तो भी वो कामयाब थे. मोदी समेत पूरा सत्तापक्ष बंगले झांक रहा था. सालों बाद राहुल गांधी काफी हमलावर थे. आवाज में तेजी थी और बोली में गजब का आत्मविश्वास. राहुल की आक्रामकता नई थी. उनकी मुद्दों में तीखापन था. हमला बेहद सधा हुआ और चोट करने वाला था.

राहुल ने पंद्रह लाख रुपये खाते में नहीं आने पर कटाक्ष किया तो हर साल दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने के वादे पर मोदी सरकार की धज्जियां उड़ाईं. फिर कहा कि मोदी जी नर्वस हैं. वो मेरी आंख में आंख डालने की हिम्मत नहीं कर पा रहें हैं. असली कहानी राहुल के पुरानी केंचुली उतार कर नई केंचुली पहनने की है. चैलेंजर्स की सही भूमिका में आने की.

संसद में बोलते कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी
(फोटोः PTI)
ADVERTISEMENT

अविश्वास प्रस्ताव से विपक्ष ने लिए दो सबक

इस अविश्वास प्रस्ताव ने विपक्ष को वो मौका दिया, जिससे वो अब तक बचता रहा. वो हमले तो मोदी पर करता था पर मोदी सरकार को हिला नहीं पाता था. हमलों मे धार नहीं होती थी. सबसे बड़ी बात लोग ये मानने को तैयार नहीं थे कि राहुल नेतृत्व कर सकते हैं? उनमें वो क्षमता है? वो मोदी की बराबरी कर सकते है? वो सही चैलेंजर हैं. दो चीजें हुईं. एक, अविश्वास प्रस्ताव लाने का अर्थ ही था विपक्ष हमलावर की मुद्रा में आना चाहता है. सामने से वार को तैयार है. मुद्दों पर मोदी को लपेटना चाहता है. राहुल गांधी भी इस लड़ाई में पीछे नहीं रहना चाहते. और आउट ऑफ द बॉक्स सोचने को तैयार है. दूसरा, विपक्ष को ये भी समझ में आ गया है कि किन मुद्दों पर उसे मोदी को घेरना चाहिए. कौन-कौन से मुद्दों से बचना चाहिए. कौन से मुद्दे हैं, जिसको उठाने से बीजेपी को फायदा होता है. या बीजेपी चाहती है कि सिर्फ उन मुद्दों पर ही बात हो.

बीजेपी हमेशा चाहेगी कि हिंदू-मुसलमान पर चर्चा हो. पाकिस्तान कश्मीर पर बहस हो. सेना और राष्ट्रवाद पर जिरह हो. ये मुद्दे बीजेपी की खुराक हैं. इन मुद्दों ने ही बीजेपी को बड़ा किया है. वो हमेशा चाहेगा कि मंदिर मस्जिद पर विपक्ष फंसा रहे. 

धर्म का मसला उसको हिंदुओं की बात करने का मौका देता है. हिंदुओं को बताने में कामयाब होता है कि विपक्ष, खासतौर पर कांग्रेस को हिंदुओं की कम चिंता है, मुसलमानों की ज्यादा है. ये मुद्दे बीजेपी के प्रिय विषय हैं. अगर ध्यान से देखा जाये तो विपक्ष ने इन पर कम चर्चा की. राहुल ने तो बिलकुल ही नहीं की.

ADVERTISEMENT

राहुल ने उठाये वो सवाल, जिनसे बचना चाहती है मोदी सरकार

राहुल ने काले धन को उठाया. पंद्रह लाख की बात की. किसानों की बात की. राफेल डील पर सरकार को सीधे लपेटा. मोदी को अमीरों का पिट्ठू साबित किया. सिर्फ उनकी चिंता करने वाला बताया. महिलायें असुरक्षित हैं. बेरोजगारी बढ़ रही है.

ये वो मुद्दे है जिससे मोदी सरकार जवाब देने से बचना चाहती है. क्योंकि इन पर उसकी उपलब्धियां नगण्य हैं.

जब राहुल ने इन पर जवाब मांगा तो मोदीजी तिलमिला गये. उन्हें अपने भाषण में जवाब देने को मजबूर होना पड़ा. मोदी ने काफी वक्त लिया और तमाम योजनाएं गिनाईं. खासतौर पर बेरोजगारी पर जो जवाब दिया वो हास्यास्पद है.

राजनाथ सिंह ने भी काफी समय लिया सरकार की उपलब्धियां गिनाने में. ये ऐसा सवाल है जिससे सारे लोग प्रभावित होते हैं. सरकार कितनी भी अपना पीठ थपथपा ले, कितने भी आंकड़े दे दे जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता. उसे आंकड़ों की बाजीगरी नहीं पसंद है. ये काम विशेषज्ञों का है. जनता को तो सीधे फायदे से फरक पड़ता है. योजनाओं से उसे लाभ मिल रहा है या नहीं. ये महत्वपूर्ण है कि जनता क्या सोचती है.

संसद में मोदी सरकार को बेरोजगारी के मुद्दे पर घेरते राहुल गांधी
(फोटोः PTI)
ADVERTISEMENT

एंटी इनकंबेसी थ्योरी हुई कमजोर

1991 के बाद एक नई चीज भारतीय राजनीति में दिखी है. “एंटी इनकंबेसी” नाम की थ्योरी कमजोर पड़ी है. ये वो दौर था, जब देश में अर्थ व्यवस्था में जबर्दस्त सुधार हुआ. देश अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहचाना जाने लगा. उसकी चर्चा होने लगी. भारत जो निहायत गरीब देश था. उसकी गिनती मजबूती से उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में हुई. देश में एक नया मध्य वर्ग खड़ा हो गया. रोजगार के नये अवसर मिले. तकनीकि का भयानक विस्तार हुआ. लोगों की क्रय शक्ति बढ़ी. काफी लोग गरीबी की रेखा से ऊपर आये. और जो जो सरकारें काम करती दिखीं, लोगों को आर्थिक विकास से जोड़ पाई वो सरकार में बनी रही.

यहां मैं आशातीत विकास की बात नहीं कर रहा. मैं सिर्फ “रिलेटिव” विकास की बात कर रहा हूं.

बीजेपी गुजरात में 25 सालों से है. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में पंद्रह साल से है. नवीन पटनायक उड़ीसा में 19 साल से हैं. असम में तरुण गोगोई पंद्रह साल रहे. शीला दीक्षित भी पंद्रह साल रहीं. लोगों ने क्यों जिताया और पहले हर पांच साल मे क्यों बदल देती थी. ये सवाल अहम है. केंद्र में मनमोहन सिंह, जिनसे किसी को उम्मीद नहीं थी वो दस साल चला ले गये. क्योंकि उनके समय में 2004 से 2011 तक विकास दर लगभग 9% रही. और जब विकास दर गिरी तो जनता ने उठाकर फेंक दिया.

2009 के चुनाव में कांग्रेस की सीटें बढ़कर 205 हो गई. खुद कांग्रेस को यकीन नहीं था. पर अर्थ व्यवस्था लगातार दौड़ रही थी. ये हैरानी की बात है क्योंकि ये वो दौर था जब देश के लगभग सारे बड़े शहरों ने आतंकवादी हमला झेला था. फिर भी जनता को मनमोहन पर भरोसा था. लोग उनके काम के मुरीद थे.

ADVERTISEMENT

काम का प्रचार ज्यादा हुआ, जमीन पर काम नहीं हुआ

वाजपेयी सरकार ने चमकते भारत का ढिंढोरा पीटा पर असर जमीन पर कम दिखा. लिहाजा जनता ने उन्हें पलट दिया. 2003 तक विकास दर तमाम प्रचार के बाद भी ठीक नहीं थी. वो ठीक हुई 2004 में जब वो 8% तक गई. मोदी को इतिहास से ये सबक लेना चाहिये. वो समझदार हैं. जानते हैं. काम का प्रचार ज्यादा हुआ. जमीन पर काम नहीं हुआ. इसलिये पिछले कुछ महीनों में वो हिंदू मुसलमान पर देश को उलझाना चाहते हैं. अपनी उपलब्धियों पर बात कम करना चाहते हैं.

संसद में अविश्वास प्रस्ताव की बहस के दौरान पीएम नरेंद्र मोदी
(फोटोः PTI)

ऐसे में जब राहुल गांधी दो करोड़ रोजगार प्रति वर्ष देने के उनके वादे पर बहस को लाते हैं तो सरकार को दिक्कत होती है. क्योंकि रोजगार तो स्थूल चीज है. वो न तो आंकड़ों से साबित होती है, न बयानों से. लोगों के पास रोजगार होगा तो वो खुद ही बोलेगा. उसे बताने की जरूरत नहीं होगी. मोदी जी को लंबे चौड़े आंकड़े बहस में देने पड़े, ये उनकी कमजोरी बताता है.

ADVERTISEMENT

बहुमत के बावजूद बेचैन दिखी सरकार

विपक्ष संख्या में कम था. ये बात सबको पता थी, शुरू से. पर इससे हमले की धार पर असर नहीं पड़ा. तीन सौ से ज्यादा संख्या के बावजूद अगर सरकार बेचैन दिखी तो ये सबूत है कि विपक्ष अपनी भूमिका में आ रहा है. वो समझ रहा है कि 2019 के लिये उसे साथ आना पड़ेगा. वरना सारा विपक्ष तो नोटबंदी के समय भी संसद में एक जुट दिखा था. पंद्रह पार्टियों ने गांधी जी की मूर्ति के पास तस्वीर खिंचवाई थी. पर बात आगे नहीं बढ़ी. नीतीश जैसे नेता समझ बैठे कि मोदी से पंगा लेने से कोई फायदा नहीं. वो बीजेपी के पास चले गये.

संसद में अविश्वास प्रस्ताव की बहस के दौरान पीएम नरेंद्र मोदी
(फोटोः PTI)

पर आज के माहौल में टीडीपी बीजेपी को छोड़ कर आई है. पीडीपी से गठबंधन टूट चुका है. शिव सेना के तेवर भयानक है. उपेंद्र कुशवाहा किनारा कर सकते हैं. पासवान का कोई भरोसा नहीं. नये सहयोगी बीजेपी को मिल नहीं रहे हैं. खुद नीतीश अब कसमसा रहे हैं, परेशान हैं. विपक्षी एकता का जो चेहरा कुमारस्वामी की ताजपोशी के समय नजर आया, उसमें अविश्वास प्रस्ताव ने इजाफा किया है.

राहुल ने अपने भाषण, खासतौर से राफेल हमले से ये साबित करने की कोशिश की कि उनमें आक्रामकता है वो जंग को मोदी के खेमे तक ले जाने का दमखम रखते हैं. राफेल की चोट गहरी थी. मोदी अपने भाषण में जवाब नहीं दे पाये. ये नहीं बताया कि अंबानी को क्यों दिया गया और जहाज तीन गुना मंहगा दाम में क्यों खरीदा, सिर्फ ये कहा कि कि सच मत कुचलो. देश का नाम बदनाम मत करो. ये कोई जवाब नहीं है.

ऐसे में लड़ाई दिलचस्प मोड़ पर आ गई है. बस देखते जाओ आगे क्या-क्या होता है. मजा आयेगा. खूब मजा आयेगा. बस विपक्ष ये समझ रखे कि आर्थिक मुद्दों पर सरकार को घेरे, सांप्रदायिक मुद्दों से बचे.

(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्‍ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

ADVERTISEMENT
Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
0
3 माह
12 माह
12 माह
मेंबर बनने के फायदे
अधिक पढ़ें
ADVERTISEMENT
क्विंट हिंदी के साथ रहें अपडेट

सब्स्क्राइब कीजिए हमारा डेली न्यूजलेटर और पाइए खबरें आपके इनबॉक्स में

120,000 से अधिक ग्राहक जुड़ें!
ADVERTISEMENT
और खबरें
×
×