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चीन संकट: आलोचना नहीं समाधान देने से बनेगी राहुल की विश्वसनीयता  

क्यों राहुल के ‘हमले’ बीजेपी को चिढ़ा रहे हैं?

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भारतीय राजनीति की शाश्वत पहेली है : बीजेपी को क्यों चुभते हैं राहुल? लगातार चुनावी हार ने साबित किया है कि नरेंद्र मोदी से उनकी कोई बराबरी नहीं है. “चौकीदार चोर है” जैसे हमले प्रधानमंत्री का कुछ बिगाड़ नहीं सके. राहुल गांधी अब कांग्रेस अध्यक्ष भी नहीं रह गए हैं और ऐसा नहीं लगता कि पीएम मोदी को चुनौती देते हुए जल्द उनकी वापसी होने जा रही है.

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क्यों राहुल के ‘हमले’ बीजेपी को चिढ़ा रहे हैं?

तो, बीजेपी क्यों लद्दाख में चीन के साथ आमना-सामना वाली स्थिति पर राहुल के रोजाना ट्वीट पर उलझ रही है? अमित शाह, राजनाथ सिंह और जेपी नड्डा जैसे दिग्गज से लेकर असम के नेता हेमन्त बिस्व शर्मा, राज्यसभा सांसद राजीव चंद्रशेखर और बीजेपी आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय जैसे नेता भी क्यों लगातार राहुल पर हमला कर रहे हैं, तंज कस रहे हैं और उन्हें ‘गद्दार’, ‘गैरजिम्मेदार’ और ‘गंदी राजनीति करने वाला’ बता रहे हैं?

ताजा हमला राहुल की उन कोशिशों के जवाब में है, जिसमें उन्होंने मोदी के ‘मजबूत नेता’ वाली छवि की हवा निकालने और उनसे राष्ट्रवाद का तमगा छीनने की कोशिश की है. हाल में हुई सर्वदलीय बैठक में मोदी के विवादित बयान ‘चीनी घुसपैठ नहीं’ के जवाब में उनके ट्वीट पर नजर डालें. राहुल ने मोदी पर व्यक्तिगत हमला कर दिया. “पीएम ने चीनी आक्रामकता के सामने भारतीय इलाकों का समर्पण कर दिया है.”

‘नरेंद्र मोदी वास्तव में सरेंडर मोदी हैं.“

“क्यों पीएम चीन के साथ खड़े हैं और भारत और हमारी सेना के साथ नहीं?”

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हमला तेज और जबरदस्त था. राहुल के हर ट्वीट का बीजेपी नेताओं ने उनके खिलाफ जहर उगलते हुए जवाब दिया. लेकिन, राहुल डटे रहे. लगातार डटे रहने से ही वे महत्वपूर्ण हुए. उन्होंने ऐसा दिखाया मानो वे छोड़ने को तैयार नहीं हैं.

‘हमले’ कर बीजेपी ने राहुल गांधी का महत्व बढ़ाया

बीजेपी के गुस्से से पता चलता है कि राहुल दुखती नस दबाने में सफल रहे. “सरेंडर मोदी” उपाधि की चोट निश्चित रूप से गहरी है क्योंकि लद्दाख में चीनी घुसपैठ और चीनी सेना के हाथों 20 जवानों की बर्बर हत्या की वजह से सरकार की चीन नीति और इसके सीमा सुरक्षा प्रबंधन को लेकर गंभीर सवाल उठे हैं.

ऐसे समय में जब मोदी अब तक के सबसे बड़े कूटनीतिक और सैन्य संकट का सामना कर रहे हैं, उनके प्रशंसक नेताओं ने शायद अनजाने में उनके लिए घरेलू राजनतिक समस्या खड़ी कर दी है.

राहुल गांधी पर निशाना साधते हुए इन नेताओं ने उन्हें ही चमकाने का काम किया है और जो मुद्दे वे उठा रहे हैं उन्हें वैधानिकता प्रदान की है. राहुल वास्तव में पहले नेता हैं, जिन्होंने लद्दाख में चीनी गतिविधियों को लेकर चेतावनी दी थी. थोड़ा पीछे चलें तो 29 मई को उन्होंने ट्वीट कर सरकार से एक मांग रखी थी, '' देश को साफ और सही-सही बताएं कि क्या हो रहा है.'' क्योंकि, सीमा की स्थिति पर सरकार की चुप्पी से अटकलों को हवा मिल रही थी और अनिश्चितता बढ़ रही थी.

सरकार के नेताओं ने राहुल के ट्वीट को वास्तव में तब तक नजरअंदाज किया जब तक कि कई मौकों पर उन्होंने यही अंदाज नहीं दिखाया और मोदी पर व्यक्तिगत हमले नहीं किए. तीर निशाने पर लग चुका था और अब राहुल पूरा जोर लगा रहे थे ताकि उन्हें अहसास हो कि उन्होंने सरकार को परेशान कर दिया है. इस झगड़े का नतीजा इस बात पर निर्भर करता है कि मोदी अब तक के अपने सबसे बड़े कूटनीतिक और सैन्य चुनौती से कैसे निबटते हैं. चीन की पहेली अभी सुलझनी बाकी है.

इसने केवल उस बोझ को बढ़ाया है जो सदी की सबसे बड़ी महामारी के रूप में सामने है और सरकार जटिल आर्थिक संकट के रूप में जिसका सामना कर रही है.
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राहुल गांधी के लिए ‘सार्वजनिक छवि’ का संकट

बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करने वाला है कि राहुल अपनी राजनीति में कैसा बदलाव लाते हैं. मोदी ने बीते 6 साल में कम से कम दो बार उन्हें लाभ लेने का अवसर दिया है, मगर वे अब तक अनाड़ी साबित हुए हैं. राहुल के पास पहला अवसर तब आया था जब उन्होंने मोदी पर ‘सूट-बूट की सरकार” के रूप में हमला बोला था.

पहली बार यह नारा तब उछाला गया था जब 2015 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए थे और उस अवसर पर मोदी की एक तस्वीर सामने आयी थी. जिसमें वे अपने नाम जड़े महंगे सूट पहने हुए दिखे थे. इस नारे ने मोदी को अधिक चोट पहुंचायी और प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी आज के दिनों में दिख रही है.

वरिष्ठ नेताओं ने राहुल की बेइज्जती की. उनके लिए ‘पप्पू’ शब्द उछाला गया. उन्हें गैर जिम्मेदार नेता और पार्ट टाइम नेता बताने की हरसंभव कोशिश की गयी.

लेकिन यह साफ था कि पीएम ने उस नारे को दिल से लिया क्योंकि उसके बाद उन्होंने संजीदगी के साथ अपनी छवि को सुधारने की कोशिश की. 2014 में कॉरपोरेट प्रशंसक और आर्थिक सुधार समर्थक नेता की जिस छवि से 2014 में उन्हें जीत मिली थी, उससे अलग उन्होंने खुद को गरीबों का मसीहा के तौर पर पेश किया.
संभलकर दिए राजनीतिक जवाब ने मोदी को जीत दिलायी और वे नोटबंदी और घातक जीएसटी को लागू करने के बावजूद नेतृत्व करते रहे.

और भी, राहुल को एक जबरदस्त मौका तब मिला जब फ्रांस के मीडिया के एक धड़े में दसाल्ट के साथ राफेल फाइटर प्लेन खरीदने को लेकर मोदी सरकार पर सवाल उठाए गये. जैसे ही सवाल उठे, राहुल ‘चौकीदार चोर है’ के नारे के साथ सामने आ गये. तब तक इसका फायदा होता दिखा, जब तक कि सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं कह दिया कि इसमें कोई गड़बड़ी नहीं हुई है और फ्रांस की सरकार आरोपों को खत्म करने के लिए हस्तक्षेप करने के लिए सामने नहीं आ गयी.

पीछे हटने के बजाय राहुल अपने नारे के साथ आगे बढ़ते रहे और हर चुनावी सभा में इस मुद्दे को उठाया. इससे मोदी के लिए सहानुभूति पैदा हुई जो पाकिस्तान के खिलाफ बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक के बाद और बढ़ गयी. और, राहुल के लिए उपहास का अवसर बना कि जब राष्ट्रवादी भावनाएं चरम पर थीं तो वे एक बेजान मुद्दे उठा रहे थे.
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‘पार्ट-टाइम’ नेता की छवि कैसे बदल सकते हैं राहुल गांधी?

राहुल की सबसे बड़ी कमजोरी उनकी सार्वजनिक छवि है. अगले प्रधानमंत्री के तौर पर मतदाताओं में उनके लिए आकर्षण की कमी दिखती है. बीजेपी का ‘पप्पू’ मार्का ने चोट पहुंचायी है और राहुल ने इसे दूर करने के लिए प्रयास नहीं किया है. उनकी छवि जब चाहे पहुंच जाने और जब चाहे गायब हो जाने वाले व्यक्ति की है. कभी दिखते हैं, कभी गायब हो जाते हैं. इस छवि से बीजेपी के उन आरोपों की ही पुष्टि होती है कि वे ‘पार्ट टाइम पॉलिटिशियन’ हैं.

मोदी पर हमला करने के लिए वे चतुराई से नारे लाते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि समस्याओं को हल करने के लिए उनके पास कोई समाधान नहीं होता.

उदाहरण के लिए, चीन के साथ आमने-सामने की लड़ाई में उन्होंने तेज और धारदार आलोचना की. लेकिन, उन्होंने एक भी रणनीतिक, कूटनीतिक या सैन्य विकल्प नहीं सुझाया जिस पर भारत अमल कर सकता था और लद्दाख में चीनी घुसपैठ के बाद की स्थिति को संभाला जा सकता था.

यह राहुल के लिए तीसरा मौका है जब वे राजनीतिक लड़ाई में वापसी कर सकते हैं. कांग्रेस नेता पर बीजेपी का तीखा हमला केवल इसी बात की पुष्टि करता है कि 15 जून को लद्दाख में खून की होली के बाद वह बचाव की मुद्रा में है. यह देखा जाना बाकी है कि राहुल में परिपक्वता आ चुकी है और ऐसे समय में जब देश कई तरह के संकटों का सामना कर रहा है तब उनकी आवाज प्रासंगिक हो सकती है.

(लेखिका दिल्ली में रहने वाली वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये लेखिका के अपने विचार हैं और इससे क्विंट का सरोकार नहीं है.)

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