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यूपीए पर ममता बनर्जी और शरद पवार के बयान के पीछे कांग्रेस के लिए क्या संदेश?

1 दिसंबर को ममता और पवार के बीच मुंबई में हुई मुलाकात ने राजीनीतिक हलकों में नई चर्चा को जन्म दे दिया.

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भारत
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''कौन सा यूपीए? फिलहाल कोई यूपीए नहीं है, हम इसपर साथ में फैसला लेंगे''.... पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के मुंबई दौरे के दौरान इस बयान ने खूब सुर्खियां बटोरीं. शरद पवार (Sharad Pawar) से मुलाकात के बाद ममता के इस बयान से यह सवाल उठने लगा है कि क्या एनसीपी चीफ भी ममता के इस बयान का समर्थन करते हैं?

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हालांकि पवार ने ममता के बयान के बाद थोड़ा संयम दिखाते हुए कहा, ''किसी को भी छोड़ने का कोई सवाल ही नहीं है. बीजेपी के खिलाफ जो भी लोग हैं, वो हमसे जुड़ें. मुद्दा ये है कि जो लोग मेहनत करने को तैयार हैं, सबके साथ काम करने को तैयार हैं, उन्हें साथ लिया जाना चाहिए.''

उनके इस तेवर को कांग्रेस के अंदरूनी हलचल के हिसाब से देखा जाना चाहिए. इसपर बाद में बात करेंगे, लेकिन पहले समझने की कोशिश करते हैं कि बनर्जी र पवार क्या कहना चाह रहे हैं?

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क्या संदेश दे रहे ममता और पवार?

1 दिसंबर को ममता बनर्जी और शरद पवार के बयान को देखें तो इनके कहने का तरीका तो अलग दिखता है, लेकिन संदेश एक जैसा ही है.

जब ममता कहती है, ''कोई यूपीए नहीं है'' इसका मतलब है कि गैर बीजेपी वाली पार्टियों के गठबंधन पर केवल एक पार्टी का प्रभाव अब संभव नहीं है.

पवार का बयान देखें तो उसमें भी कांग्रेस के लिए संदेश छिपा है, वो कहते हैं कि कांग्रेस बीजेपी विरोधी गठबंधन का हिस्सा तो बन सकती है, लेकिन अब वो निर्णायक भूमिका में नहीं होगी. हालांकि पवार ने यह बयान ममता की तुलना में ज्यादा नम्र तरीक से दिया है.

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दोनों नेताओं के बयान देखें तो लगता है कि उन्हें कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी से दिक्कत है. ममता ने मुंबई दौरे के दौरान राहुल पर निशाना साधते हुए कहा, ''आप ज्यादातर वक्त विदेशों में नहीं रह सकते, राजनीति में लगातार प्रयास जरूरी हैं.''

वहीं पवार के ''जो लोग मेहनत करने को तैयार हैं, सबके साथ काम करने को तैयार हैं, उन्हें साथ लिया जाना चाहिए'' वाले बयान में भी राहुल को लेकर ही संदेश छिपा दिखाई दे रहा है.

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कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन पर निगाहें

बनर्जी और पवार के तेवरों को 2022 में कांग्रेस में होने वाले नेतृत्व परिवर्तन से जोड़कर भी देखा जा रहा है. अगर सकुछ ठीक रहा तो राहुल गांधी की फिर से पार्टी अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी लगभग तय है. राहुल की ताजपोशी के बाद पार्टी के अंदर नेतृत्व और विचारधारा को लेकर ऊहापोह की स्थिति काफी हद तक ठीक हो सकती है.

हालांकि एक बड़ा खतरा पार्टी के कुछ धड़ों के द्वारा राहुल के विरोध का भी है. खासकर जी-23 में शामिल ज्यादातर नेता राहुल के नेतृत्व को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं दिखते हैं, इसलिए राहुल की पार्टी की शीर्ष नेतृत्वकर्ता के तौर पर वापसी से पार्टी में एक गुट मजबूत होगा, वहीं दूसरा गुट कमजोर.

ममता और पवार दोनों पहल कांग्रेस में रह चुके हैं और अभी भी उनके कई मित्र कांग्रेस में हैं, इसलिए दोनों कांग्रेस को काफी अच्छी तरह से समझते हैं. दोनों उम्मीद कर रहे होंगे कि जब अगले साल राहुल को नेतृत्व दिए जाने के बाद अगर कांग्रेस में विद्रोह होता है तो पार्टी के नाराज नेताओं को एक अच्छा विकल्प दे सकें.
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राहुल के नेतृत्व पर भरोसा नहीं

टीएमसी मानकर चल रही है कि नाराज कांग्रेसियों को पार्टी में शामिल कराने का दोहरा फायदा हो रहा है. एक ओर जहां पार्टी अपनी मौजूदगी को विस्तार दे रही है, वहीं कांग्रेस के नाराज नेताओं के बीजेपी में जाने से रोकन में भी कामयाब हो रही है.

ममता बनर्जी और शरद पवार ये बात अच्छे से जानते हैं कि अगर 2024 के लोकसभा चुनाव को नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच की लड़ाई के रूप में लड़ा जाता है तो बीजेपी की जीत एकबार फिर निश्चित हो जाएगी.

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कॉर्पोरेट्स को कबूल हो, ऐसा विपक्ष तैयार करने की कोशिश

दोनों नेताओं की राहुल गांधी और कांग्रेस को लेकर कई दिक्कतें हैं. उनपर अप्रभावी और मनमाने तरीके से काम करनेका आरोप लगते रहते हैं. एक सामान्य परसेप्शन यह भी है कि राहुल राहुल गांधी का नेतृत्व कॉर्पोरेट इंडिया पसंद नहीं करता है.

राहुल ने कभी खुलकर देश के सभी कॉर्पोरेट्स पर हमला नहीं किया है, लेकिन कुछ उद्योगपियों पर अकसर निशाना साधने की वजह से बिजनस घरानों का उनपर विश्वास नहीं दिखता है. इसका फायदा बीजेपी को मिलता भी है.

2018 में कुल कॉर्पोरेट फंडिंग का 92 फीसदी अकेले बीजेपी को मिला है. अगर बाकी 6 राष्ट्रीय पार्टियों को मिली फंडिग को जोड़ दें तो भी बीजेपी की फंडिंग इससे 12 गुना ज्यादा है.

इसके अलावा जी-23 के नेताओं के भी कॉर्पोरेट्स के साथ अच्छे संबंध हैं. जिस तरह से मोदी सरकर में आर्थिक विकास का पहिया थमा है, उससे पवार और ममता उम्मीद कर रहे होंगे कि उन्हें कॉर्पोरेट्स का समर्थन मिल सकता है, बशर्ते बड़े बिजनस घरानों को खुलकर निशाना नहीं बनाया जाए. यह वजह है कि दोनों नेता एक ऐसा राष्ट्रीय गठबंधन बनाना चाह रहे हैं, जो कांग्रेस के दबाब से मुक्त हो.

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विकल्प तैयार करना कितना मुश्किल?

संभावनाओं पर गौर करने के लिए हमें हकीकत के करीब होना पड़ेगा. टीएमसी का फिलहाल पश्चिम बंगाल में ही अच्छा प्रभाव है, वहां कुल 42 लोकसभा सीटें हैं. उसके अलावा उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों में पार्टी का विस्तार हो रहा है. इन जगहों पर पार्टी के बेहतरीन प्रदर्शन की उम्मीद भी की जाए तो लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा 50 सीटें जीत पाएगी.

एनसीपी की बात करें तो महाराष्ट्र के अलावा, गोवा और कुछ केंद्रशासित प्रदेशों में पार्टी की मौजूदगी है. हालांकि महाराष्ट्र में भी पार्टी जीत के लिए गठबंधन पर निर्भर रहती है. इसलिए दोनों पार्टियां बहुत बेहतर प्रदर्शन भी कर लें तो लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा 100 सीटों के आंकड़े तक पहुंच पाएंगी.

2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 52 सीटें जीतीं थीं और 196 पर दूसरे नंबर पर रही थी. कम से कम 248 सीटों पर पार्टी ने अच्छी मौजूदगी दर्ज कराई थी. देश में कम से कम 160 लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला है, हालांकि कांग्रेस के फिलहाल ऐसी सीधे मुकाबले वाली 10 सीटें ही हैं
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कांग्रेस को नकारना आसान नहीं

पवार और ममता के साथ अब दिक्कत ये है अगर वो बीजू जनता दल, टीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस पार्टी, समाजवादी पार्टी, लेफ्ट , आप आदि को मिला ले और कांग्रेस के सहयोगी डीएमके, शिवसेना, आरजेडी, जेएमएम को अपने पाले में कर भी लें तो उसे इन 160 सीटों पर कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन की दरकार होगी, तभी बीजेपी को असली मायनों में विपक्ष चुनौती दे पाएगा.

इसलिए इन दोनों पार्टियों को कांग्रेस के वजूद को कबूल करना होगा, यह सच है कि देश की सबसे पुरानी काफी कमजोर हुई है और 2004, 2009 के जैसे मजबूत नहीं है, इसलिए वह विपक्ष में निर्णायक भूमिका मे नहीं हो सकती है.

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