एक तरफ बाबरी मस्जिद विध्वंस केस में सुनवाई की समय सीमा नजदीक आती जा रही है और दूसरी तरफ राम मंदिर के लिए भूमिपूजन की तारीख 5 अगस्त तय हो गई है. क्विंट आपके लिए इस मामले का विस्तृत घटनाक्रम लेकर आया है जिसकी लड़ाई अब भी कोर्ट में चल रही है.
नवंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले में फैसला तो कर दिया लेकिन 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद गिराने के लिए बीजेपी, आरएसएस, वीएचपी नेताओं और कारसेवकों के ख़िलाफ चल रहा मामला स्पेशल लखनऊ कोर्ट में सुनवाई के अपने अंतिम चरण में है.
हम 1528 से लेकर 2020 तक इस मामले को देखेंगे जिसमें प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार के समय हुआ पहला शिलान्यास समारोह (भूमिपूजन), 6 दिसंबर 1992 को हुआ विध्वंस और निचली अदालतों, इलाहाबाद हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अब तक हुई सुनवाई शामिल है.
हिंदुत्व आंदोलन का उदय
1528: बाबरी मस्जिद का निर्माण
उत्तर प्रदेश के अयोध्या की बाबरी मस्जिद का निर्माण मुगल बादशाह बाबर के सेनापति मीर बाकी ने अपने राजा के आदेश पर करवाया था. हिंदुओं का कहना है कि मस्जिद का निर्माण उस जगह पर किया गया जहां पहले भगवान राम के जन्मस्थान का मंदिर था.
1949 : बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्तियां रखी गईं
दिसंबर 1949 में मस्जिद के अंदर भगवान राम की मूर्तियां प्रकट हो गईं या उन्हें वहां रख दिया गया. इसको लेकर जमकर विरोध-प्रदर्शन हुआ और दोनों पक्षों ने कोर्ट में केस दर्ज कराया. मुस्लिम पक्ष की ओर से हाशिम अंसारी ने एक और राम जन्मभूमि न्यास के प्रमुख महंत परमहंस रामचंद्र दास ने दूसरा मामला दर्ज कराया. सरकार ने स्थान को विवादित घोषित कर दिया और इसपर ताला लगा दिया.
1984 : विश्व हिंदू परिषद पर फोकस
विश्व हिंदू परिषद आंदोलन को जारी रखने के लिए एक दल बनाता है और बीजेपी नेता एलके आडवाणी को अभियान का नेता और चेहरा बनाया जाता है.
1986 : हिंदुओं को पूजा की अनुमति
फैजाबाद के जिला जज ने विवादित ढांचे का गेट खोलने का आदेश दिया जिससे हिंदू धर्म के लोग अंदर जाकर पूजा कर सकें.
पहला शिलान्यास और बाबरी का विध्वंस
1989 : राजीव गांधी और शिलान्यास 1.0
प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने विश्व हिंदू परिषद को शिलान्यास कार्यक्रम की अनुमति दी. ये नवंबर 1989 में हुआ जब हिंदुत्व आंदोलन सबसे तेज रफ्तार से आगे बढ़ रहा था और देश में लोकसभा चुनाव शुरू होने में कुछ ही दिन बाकी थे.
1990 : बाबरी मस्जिद गिराने की पहली कोशिश नाकाम
विवादित जगह पर राम मंदिर बनाने के लिए लोगों का समर्थन जुटाने की कोशिश में बीजेपी नेता एलके आडवाणी ने पूरे देश में एक रथ यात्रा निकाली. इसी साल विश्व हिंदू परिषद के स्वयंसेवकों ने बाबरी मस्जिद को थोड़ा नुकसान पहुंचाया था. मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और केंद्र में जनता दल की सरकार थी.
30 अक्टूबर 1990 को मुलायम सिंह यादव ने बाबरी मस्जिद की ओर बढ़ रहे हिंदुत्ववादियों की भीड़ पर फायरिंग के आदेश पुलिस को दिए थे जिसमें सरकार के मुताबिक 16 कारसेवकों की मौत हुई थी.
1992 : बाबरी मस्जिद विध्वंस
6 दिसंबर को कारसेवकों ने विवादित ढांचे को गिरा दिया और वहां एक अस्थायी मंदिर बना दिया. उसी दिन दो एफआईआर दर्ज की गई. पहला अपराध संख्या 197/1992 और दूसरा 198/1992.
दो एफआईआर दर्ज
एफआईआर नंबर 197 हजारों कारसेवकों के खिलाफ दर्ज की गई थी और उनपर डकैती, लूट-पाट, चोट पहुंचाने, सार्वजनिक इबादत की जगह को नुकसान पहुंचाने, धर्म के आधार पर दो गुटों में शत्रुता बढ़ाने जैसे आरोप लगाए गए.
एफआईआर 198 बीजेपी, वीएचपी, बजरंग दल और आरएसएस से जुड़े 8 लोगों के खिलाफ राम कथा कुंज सभा मंच से भड़काऊ भाषण देने के आरोप में दर्ज किया गया. इस एफआईआर में जिन लोगों को नामजद किया गया उनके नाम हैं एलके आडवाणी, अशोक सिंघल, विनय कटियार, उमा भारती, साध्वी ऋतंबरा, मुरली मनोहर जोशी, गिरिराज किशोर और विष्णु हरि डालमिया. इन आठ आरोपियों में अशोक सिंघल और गिरिराज किशोर की मौत हो चुकी है. एफआईआर में आइपीसी की धारा 153-ए,153-बी और धारा 505 के तहत आरोप लगाए गए.
लिब्राहन कमीशन की नियुक्ति
बाबरी मस्जिद गिराए जाने के 10 दिन बाद 16 दिसंबर को पंजाब और हरियाणा हाइकोर्ट के मौजूदा जज एमएस लिब्राहन को उन घटनाओं की जांच कर एक रिपोर्ट देने के लिए नियुक्त किया गया जो बाबरी मस्जिद गिराए जाने का कारण बनी. गृह मंत्रालय की अधिसूचना में सरकार ने जांच आयोग को रिपोर्ट सौंपने के लिए अधिकतम 3 महीने का समय दिया था. लेकिन 48 बार समय बढ़ाए जाने और आयोग पर 8 करोड़ खर्च होने के कऱीब डेढ़ दशक बाद रिपोर्ट सौंपी गई. इसपर ज्यादा जानकारी साल 2009 में
शुरुआत: सुनवाई शुरू और आपराधिक साजिश के आरोप जोड़े गए
1993 : सुनवाई पहले ललितपुर और भी फिर रायबरेली ट्रांसफर की गई
सुनवाई के लिए ललितपुर में एक स्पेशल कोर्ट का गठन किया गया था. हालांकि बाद में हाइकोर्ट से मशविरा कर राज्य सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर इन मामलों की सुनवाई ललितपुर के स्पेशल कोर्ट से लखनऊ के स्पेशल कोर्ट में ट्रांसफर कर दी थी.
एफआईआर 197 सीबीआई को सौंप दिया गया था और लखनऊ ट्रांसफर कर दिया गया था जबकि एफआईआर 198 की सुनवाई रायबरेली के स्पेशल कोर्ट में होनी थी और इसकी जांच राज्य की सीआईडी को करनी थी.
यहां ये बताना भी जरूरी है कि केस को ट्रांसफर किए जाने से पहले एफआईआर 197 में धारा 120 बी (आपराधिक साजिश) को जोड़ा गया था.
1993: सीबीआई ने आरोप पत्र दाखिल किया
एक महीने बाद 5 अक्टूबर 1993 को सीबीआई ने एफआईआर 198 को भी शामिल करते हुए एक संयुक्त आरोप पत्र दाखिल किया क्योंकि दोनों मामले एक-दूसरे से जुड़े हुए थे. आरोप पत्र बाला साहेब ठाकरे, कल्याण सिंह, चंपत राय बंसल, धरम दास, महंत नृत्य गोपाल दास और अन्य सहित कई आरोपियों के नाम जोड़े गए.
सीबीआई ने साजिश का जो एंगल पेश किया उसमें मस्जिद गिराए जाने के एक दिन पहले बजरंग दल के नेता विनय कटियार के घर पर एक गुप्त बैठक की बात थी जिसमें विवादित ढांचे को ढहाने पर अंतिम फैसला लिया गया. आरोप पत्र के मुताबिक इस बैठक में आडवाणी और सात अन्य नेता मौजूद थे.
इसी आरोप पत्र में जब साजिश की बात आती है तो लिखा गया है कि “बाला साहब ठाकरे, एलके आडवाणी, कल्याण सिंह, अशोक सिंघल (महासचिव, वीएचपी), विनय कटियार (सांसद, बजरंग दल), उमा भारती, श्री मुरली मनोहर जोशी, पूर्व अध्यक्ष और अन्य का कृत्य आईपीसी की धारा 120 बी के साथ पढ़ने पर 153 ए, 153 बी, 295, 295 ए के तहत आता है और 153-ए, 153-बी, 295, 295-ए और 505 धाराओं के तहत अपराध है.
1993 : एफआईआर 198 और 197 की साथ सुनवाई
8 अक्टूबर 1993 को यूपी सरकार ने मामलों के ट्रांसफर के लिए एक नई अधिसूचना जारी की जिसमें बाकी मामलों के साथ आठ नेताओं के ख़िलाफ एफआईआर 198 को जोड़ दिया गया. इसका अर्थ ये था कि बाबरी मस्जिद ढहाए जाने से जुड़े सभी मामलों की सुनवाई लखनऊ के स्पेशल कोर्ट में होगी.
1996 : लखनऊ कोर्ट ने सभी मामलों में आपराधित साजिश जोड़ने का आदेश दिया
सीबीआई एक पूरक आरोप पत्र दाखिल करती है जिसके आधार पर अदालत ये मानती है कि एलके आडवाणी सहित सभी नेताओं पर आपराधिक साजिश के आरोप तय करने के लिए पहली नजर में सबूत थे. कोर्ट ने माना कि सभी अपराध उसी दौरान हुए हैं जिसके कारण संयुक्त सुनवाई की मांग की गई और मामला केवल लखनऊ में स्पेशल जज की कोर्ट में सुनवाई के योग्य है. लखनऊ में स्पेशल जज ने एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि सभी आरोपियों के खिलाफ आईपीसी की अन्य धाराओं के साथ धारा 120 बी के तहत पहली नजर में आरोप बनते हैं.
आदेश में कहा गया है कि “ ऊपर की चर्चा से हम इस नतीजे पर आते हैं कि राम जन्म भूमि/बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को गिराए जाने के मौजूदा केस की आपराधिक साजिश आरोपियों ने 1990 से शुरू की थी और 6 दिसंबर 1992 को इसे अंजाम दिया गया. श्री लाल कृष्ण आडवाणी और अन्य ने अलग-अलग समय और जगह पर विवादित ढांचे को गिराने की आपराध साजिश बनाई.
बीच के साल: निचली अदालत और हाईकोर्ट के बीच फंसे
2001 : सरकारी चूक का हवाला देकर आरोपियों की कोर्ट के आदेश को चुनौती, जीते
ऊपर के आदेश को आरोपियों ने इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच में चुनौती दी. आरोपियों के वकील ये साबित करने में कामयाब रहे कि उत्तर प्रदेश सरकार की प्रशासनिक चूक के कारण उनके खिलाफ गलत तरीके से आरोप लगाए गए है.
यहां हम जिस चूक की बात कर रहे हैं उसका संबंध 8 अक्टूबर 1993 की अधिसूचना से है जिसमें कहा गया था कि एफआईआर संख्या 198 की सुनवाई सभी 49 मामलों के साथ लखनऊ स्पेशल कोर्ट में होगी. हालांकि अधिसूचना जारी करने के समय यूपी सरकार जरूरी प्रक्रिया का पालन करने में विफल रही थी.
यूपी सरकार को हाइकोर्ट की सलाह से एफआईआर को एक साथ जोड़ना चाहिए था लेकिन वो ऐसा नहीं कर सकी. बाद में राज्य सरकार ने अधिसूचना में गड़बड़ी को ठीक करने के सीबीआई के निवेदन को खारिज कर दिया लेकिन सीबीआई निवदेन अस्वीकार किए जाने को चुनौती देने और चूक ठीक करना सुनिश्चित करने के बजाए ऐसे आगे बढ़ती रही जैसे कोई समस्या ही नहीं थी और आठ आरोपियों के खिलाफ सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल किया.
इस चूक का इस्तेमाल आडवाणी और अन्य ने आपराधिक साजिश के आरोप हटाने के लिए किया क्योंकि ये केवल एफआईआर संख्या 197 के मामले में आरोप पत्र में डाले गए थे. हाईकोर्ट ने कहा कि दोनों एफआईआर की अलग-अलग सुनवाई होगी, एफआईआर 198 की रायबरेली की स्पेशल कोर्ट में. चूंकि अब मामले अलग-अलग थे तो हाईकोर्ट ने सीबीआई को निर्देश दिया कि अगर उनके पास आडवाणी के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र के कोई सबूत हैं तो वो रायबरेली कोर्ट में सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल करें.
2003 : सीबीआई की चार्जशीट दाखिल, जज ने आडवाणी को बरी किया
2003 में सीबीआई ने एफआईआर 198 के तहत आठ आरोपियों के खिलाफ सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल की. हालांकि बाबरी मस्जिद ढहाने के आपराधिक साजिश के आरोप को सीबीआई इसमें नहीं जोड़ सकी क्योंकि बाबरी मस्जिद ढहाने (एफआईआर 197) और भड़काऊ भाषण (एफआईआर 198) की एफआईआर अलग-अलग थी.
राय बरेली कोर्ट ने आडवाणी की एक याचिका स्वीकार की और उन्हें आरोपों से ये कहते हुए बरी कर दिया कि उनके खिलाफ केस चलाने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं.
2005 : इलाहाबाद हाईकोर्ट का दखल, आपराधिक साजिश के बिना फिर से सुनवाई शुरू
2005 में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने रायबरेली कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और कहा कि आडवाणी और अन्य लोगों के खिलाफ मुकदमे चलते रहेंगे. केस आगे बढ़ा लेकिन बिना आपराधिक साजिश के आरोप के. 2005 में रायबरेली कोर्ट ने मामले में आरोप तय किए और 2007 में इस मामले में पहली गवाही हुई.
2009 : लिब्राहन कमीशन ने रिपोर्ट सौंपी
गठन के 17 साल बाद लिब्राहन कमीशन ने अपनी 900 से ज़्यादा पेज की रिपोर्ट सौंपी. इस रिपोर्ट में, जिसे बाद में सार्वजनिक कर दिया गया था, कमीशन ने संघ परिवार, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और बीजेपी के प्रमुख नेताओं जैसे अटल बिहारी वाजपेयी, एलके आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह और अन्य की भूमिका को उन घटनाओं के लिए जिम्मेदार मानने में कोई कसर बाकी नहीं रखी जो बाबरी मस्जिद गिराए जाने का कारण बनी.
- “आरएसएस, बजरंग दल, वीएचपी और शिव सेना के कार्यकर्ता अपने नेताओं के साथ घटनास्थल पर मौजूद थे. उन्होंने या तो सक्रिय तौर पर या चुपचाप मस्जिद ढहाए जाने का समर्थन किया.”
- “एक पल के लिए भी ये नहीं माना जा सकता कि (बीजेपी के वरिष्ठ नेता) एलके आडवाणी, एबी वाजपेयी या (अनुभवी बीजेपी नेता) मुरली मनोहर जोशी संघ परिवार की योजना के बारे में नहीं जानते थे.”
- “इसलिए बीजेपी संघ परिवार की कानूनी तौर पर सत्ता पाने और हिंदू राष्ट्र के अपने लक्ष्य को पाने के लिए एक जरूरी घटक थी.”
2010 : दोनों मामलों को अलग करने का निचली अदालत का फैसला इलाहाबाद हाइकोर्ट ने बरकरार रखा
इलाहाबाद हाइकोर्ट के 4 मई 2001 के फैसले, जिसमें कहा गया था कि एफआईआर 197 और एफआईआर 198 के तहत मामलों पर अलग-अलग सुनवाई होनी चाहिए, के खिलाफ सीबीआई ने पुनर्विचार याचिका दाखिल की थी.
हाइकोर्ट ने अपने पिछले आदेश को बरकरार रखते हुए इस बात को फिर से दोहराया कि दो प्रकार के आरोपी थे, नेता जो मस्जिद से 200 मीटर की दूरी पर मंच से कार सेवकों को भड़का रहे थे और खुद कारसेवक. इस बात की भी फिर से पुष्टि की जाती है कि एफआईआर 198 में आडवाणी के खिलाफ आपराधिक साजिश के आरोप जोड़े नहीं जा सके हैं.
समापन के साल: सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतिम
2012 : सुप्रीम कोर्ट पहुंची सीबीआई
निचली अदालत और हाइकोर्ट में देरी, मामला पटरी से उतरने और दूसरी कानूनी बाधाओं के बाद सीबीआई ने 2011 में सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और 20 मार्च 2012 को एक हलफनामा दायर किया जिसमें दोनों मामलों की एक साथ सुनवाई के पक्ष में दलील दी.
2015: सुप्रीम कोर्ट का वरिष्ठ बीजेपी नेताओं को नोटिस
सुप्रीम कोर्ट ने एलके आडवाणी, उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी और कल्याण सिंह सहित वरिष्ठ बीजेपी नेताओं को नोटिस जारी कर बाबरी मस्जिद विध्वंस केस में आपराधिक साजिश की धारा नहीं हटाने की सीबीआई की याचिका पर जवाब देने को कहा.
2017 : सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला रद्द किया, साजिश के आरोप फिर लगाए गए और दोनों मामलों की एक साथ सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट ने इस गतिरोध को हमेशा के लिए खत्म करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के दोनों मामला की अलग-अलग सुनवाई और एफआईआर 198 के तहत आपराधिक साजिश के आरोप हटाने के फैसले के खिलाफ फैसला सुनाया. एक बहुत ही अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एलके आडवाणी और 20 अन्य लोगों सहित कई आरोपियों के खिलाफ साजिश का आरोप फिर से लगाने का आदेश दिया.
अंतिम ट्रायल के लिए धाराएं
अब चूंकि एफआईआर 197 और 198 को 120 बी (आपराधिक साजिश) की अतिरिक्त धारा के साथ जोड़ कर मिला दिया गया है इसलिए सभी आरोपियों पर लगे आरोप हैं
- आईपीसी की धारा-147, दंगा.
- आईपीसी की धारा 149- गैरकानूनी तरीके से इकट्ठा होना.
- आईपीसी की धारा 153 ए- धर्म के आधार पर घृणा और दुश्मनी को बढ़ावा देना.
- आईपीसी की धारा 153 बी-राष्ट्रीय एकता के खिलाफ बयान.
- आईपीसी की धारा 295-इबादत की जगह पर तोड़फोड़.
- आईपीसी की धारा 505- धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए जानबूझकर काम करना.
- आईपीसी की धारा 120 बी-आपराधिक षड्यंत्र.
- आईपीसी की धारा 336-पत्थरबाजी.
इस समय इस मामले के 32 आरोपी जीवित हैं.
केस में देरी और ट्रायल पूरा करने की जरूरत को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि:
“जब जरूरत हो तो संपूर्ण न्याय करने का इस अदालत के पास अधिकार ही नहीं बल्कि ऐसा करना इसका कर्तव्य है. मौजूदा मामले में अपराध जो संविधान की धर्मनिरपेक्ष रचना को अस्थिर करते हैं वो कथित तौर पर 25 साल पहले किए गए हैं.”
सुनवाई की डेडलाइन
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का एक अहम पहलू ये भी था कि कोर्ट ने सुनवाई पूरी करने के लिए एक डेडलाइन तय कर दी. पहले कोर्ट ने दो साल की डेडलाइन दी जो अप्रैल 2019 के अंत में खत्म रही थी. जुलाई 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने जज का कार्यकाल बढ़ा दिया और डेडलाइन नौ महीने और बढ़ा दी. ये नौ महीने अप्रैल 2020 में खत्म हो गए. अभी हाल ही में मई 2020 में डेडलाइन को फिर से 31
अगस्त 2020 तक के लिए बढ़ा दिया गया था.
इस मामले पर वकीलों की ओर से द क्विंट को जानकारी दी गई है कि आरोपियों द्वारा गवाहों को सम्मन करने सहित जितनी प्रक्रिया अभी बची हुई है उसे देखते हुए उम्मीद है कि डेडलाइन को फिर से बढ़ाया जा सकता है.
मालिकाना हक पर सुप्रीम कोर्ट का 2019 का फैसला
9 नवंबर, 2019 के सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुओं को ज़मीन का मालिकाना हक देने और वहां मंदिर निर्माण के लिए एक ट्रस्ट के निर्माण का आदेश देकर अयोध्या विवाद को खत्म कर दिया. अपने आदेश में पांच जजों की बेंच ने बाबरी मस्जिद पर कहा कि:
“ यथास्थित कायम रखने के आदेश और इस अदालत को दिए गए आश्वासन को तोड़कर मस्जिद ढहा दी गई. मस्जिद को ढहाना और इस्लामी संरचना को खत्म करना कानून का घोर उल्लंघन था.”
ये फैसला अपने आप में आपराधिक मुकदमे को प्रभावित नहीं करता है क्योंकि ये एक अलग सिविल मामला था, लेकिन फिर भी ये विध्वंस के कानून के खिलाफ होने के बारे में पहला औपचारिक न्यायिक फैसला है.
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