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क्या विपक्ष के पास 2019 में उबरने के लिए महागठबंधन ही विकल्प है?

अगर यूपीए जैसा ही हुआ वोट स्विंग तो एनडीए के लिए 2019 होगा मुश्किल

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2019 में मोदी को कैसे हराया जा सकता है? पिछले हफ्ते उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की हार ने आने वाले वक्त में विपक्षी दलों को एक मंच पर लाकर महागठबंधन की संभावनाओं को और भी प्रबल कर दिया है. साल 2015 में बिहार में बने महागठबंधन ने भी बीजेपी को मात दी थी और अब उत्तर प्रदेश के उप-चुनावों में भी महागठबंधन ने बीजेपी का सफाया कर दिया.

हालांकि, महागठबंधन तैयार होने और उसके कामयाब होने के पीछे कुछ पहलू और भी हैं. पहला ये कि कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों के प्रति और ज्यादा नरमी दिखानी होगी. इसके अलावा महागठबंधन की मजबूती के लिए किसी गैर-कांग्रेसी नेता को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाना होगा.

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उपचुनाव के मुकाबले आम चुनावों में गिरता वोट प्रतिशत

लेकिन क्या उपचुनावों से राष्ट्रीय राजनीति का आकलन करना सही है? इसे लेकर अपने-अपने मत हैं. कुछ लोगों का मानना है कि उपचुनावों से आम चुनावों के नतीजों का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है. इसके पीछे तर्क ये है कि उपचुनावों में लोकल फैक्टर काम करते हैं, इसका ताजा उदाहरण कैराना में दो प्रभावशाली राजनीतिक परिवारों की महिलाओं को उम्मीदवार बनाया जाना है.

इस तर्क में कुछ दम भी है. यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस (यूपीए) ने साल 2012 और 2013 में 12 उपचुनावों में से 6 जीते और 2009 के आम चुनावों के मुकाबले यूपीए को मिले वोटों का औसत 2 फीसदी बढ़ गया. हालांकि, 2014 के आमचुनावों में जनता ने यूपीए को खारिज कर दिया.

अगर ऐसा हुआ तो यूपीए से भी बुरे होंगे एनडीए के हालात

अगर आप संसदीय सीटों पर हुए आम चुनावों और उप- चुनावों के नतीजों को बारीकी से देखें, तो पाएंगे कि आम चुनावों और उप-चुनावों के बीच यूपीए के लिए कैसे वोट स्विंग हुआ.

यूपीए को उपचुनावों के मुकाबले आम चुनावों में ज्यादा नुकसान हुआ. यूपीए उम्मीदवारों को साल 2009 के आम चुनावों से कम वोट साल 2012-13 के उपचुनावों में मिला और उससे भी कम वोट साल 2014 के आम चुनावों में. इसी वोट स्विंग की वजह से ही यूपीए 2014 में सत्ता से बाहर हो गई.

अब अगर आंकड़ों की तुलना करें तो एनडीए, यूपीए से भी ज्यादा नुकसान में दिखता है. एनडीए साल 2014 में बहुमत के साथ सत्ता में आया लेकिन साल 2017-18 में हुए उपचुनावों में एनडीए को खासा नुकसान हुआ.

उपचुनावों के मुकाबले आम चुनावों में यूपीए को हुए नुकसान की तुलना अगर एनडीए से करें तो उसे और भी बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है.

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हर जगह महागठबंधन हल नहीं

आंकड़ों पर नजर डालें तो यूपीए की तुलना में बीजेपी ने बेहद खराब प्रदर्शन किया है. साल 2017 से 2018 के बीच हुए उप-चुनावों में बीजेपी 13 सीटों में से केवल एक सीट जीत सकी है. बीजेपी ने इन उपचुनावों में जो सीटें खोई हैं, उन्हें 2019 में उसके लिए वापस पाना काफी मुश्किल नजर आता है.

राजस्थान, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अच्छे प्रदर्शन की बदौलत ही साल 2014 में बीजेपी को बड़ी जीत हाथ लगी थी. पश्चिम बंगाल जैसे पूर्वी राज्यों में विपक्षी दलों की मजबूत पकड़ बीजेपी के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकती है. यही बीजेपी की चिंता का का बड़ा कारण भी है.

उपचुनावों के नतीजे बताते हैं कि महागठबंधन के बिना 2019 में विपक्ष की जीत संभव नहीं है. लेकिन ऐसा नहीं है. अब तक केवल 15 सीटों पर उपचुनाव हुए हैं, जिनमें से केवल चार सीटों पर ही महागठबंधन ने जीत हासिल की है. इसके अलावा तीन सीटें गैर-बीजेपी दलों ने अकेले जीती हैं और पांच सीटें बिहार में आरजेडी और महाराष्ट्र में एनसीपी ने दूसरे दलों के समर्थन से जीती हैं.

विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों के नतीजों पर नजर डालें तो पाएंगे कि 11 सीटों में से एनडीए ने कुल एक सीट जीती है. वहीं दस सीटों पर विपक्ष ने जीत हासिल की है. इनमें से केवल तीन सीटें ही ऐसी हैं, जहां महागठबंधन को जीत मिली है.

पश्चिम बंगाल की महेश्तला, मेघालय की अंपाती सीटों पर विपक्षी दलों ने जीत हासिल की थी. इन सीटों के लिए कोई महागठबंधन नहीं बना था. वहीं उत्तराखंड की थराली सीट पर एनडीए ने जीत हासिल की थी. इसके अलावा उत्तर प्रदेश की नूरपुर, झारखंड की सिल्ली और गोमिया पर महागठबंधन को जीत हासिल हुई थी.

उत्तर प्रदेश में महागठबंधन वाकई में बहुत मजबूत है. अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी मिलकर चुनाव मैदान में उतरती हैं, तो इन दोनों दलों का वोट मिलकर बीजेपी से बहुत ज्यादा नजर आता है. बीएसपी-एसपी मिलकर फूलपुर, गोरखपुर और कैराना के अलावा 40 और सीटों पर बहुत मजबूत स्थिति में हैं.

(द क्विंट में छपे अमिताभ दुबे के आर्टिकल पर आधारित )

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