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ओए पाकिस्तान! ‘नीरजा’ पर नाराजगी कैसी? विलेन तो कोई और है

बात यह है कि सेंसर जनाब, मुझे आपसे हमदर्दी है. मैंने सुना कि ‘नीरजा’ आपको देखने को भी नहीं मिली.

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जनाब पाकिस्तान सेंसर बोर्ड!

एक था टाइगर, ब्लैक फ्राइडे, एजेंट विनोद, तेरे बिन लादेन, डी-डे, बेबी, फैंटम, कुरबान या फिर होमलैंड सीजन 4, जीरो डार्क थर्टी... इनका तो समझ आता है...

इन सब फिल्मों में ISI, या फिर शातिर ISI, या पाकिस्तानी आर्मी, या पाकिस्तानी आर्मी के शातिर आका, या फिर ऐसे लोग जो आर्मी या ISI से नहीं हैं पर जनरल साब का उन पर बस नहीं चलता, इन लोगों को विलेन बना दिया गया था. तो इन फिल्मों को आपका बैन करना बनता है.

नहीं जनाब! इस बार ऐसा नहीं है!

इस बार विलेन पाकिस्तानी नहीं, फिलिस्तीनी ग्रुप अबू निदाल के 4 आतंकवादी हैं.

वो लोग पाकिस्तान के थोड़े ही थे, और ना ही उन्हें पाकिस्तान में ट्रेनिंग मिली थी. उन्हें हैंडल करने में ISI का भी कोई हाथ नहीं था. और ना ही हाफिज सईद जैसा कोई उन्हें गुप्त रूप से समर्थन दे रहा था. इसलिए, यहां तो आपके लिए शर्मिंदगी या ‘अपराध बोध’ की कोई बात ही नहीं है.

हां, उन्होंने तो 80 के दशक की पाकिस्तान की हालत का फायदा उठाया — जब आप अमेरिका के साथ मिलकर अफगानिस्तान में रुसियों से लड़ रहे मुजाहिदीनों की मदद कर रहे थे, इसलिए उन दिनों कराची में बंदूकों, हथगोलों की कोई कमी तो थी नहीं.

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मैं इतना तो कह ही सकता हूं कि 80 के दशक में तो आप आसानी से भारत के किसी एयरपोर्ट पर वह सब कर पाते जो फिलिस्तीनी आतंकवादियों ने कराची में किया था.

हां इस बार कुछ जैश आतंकी पठानकोट एयरबेस में घुस आए थे, पर इतनी सी बात के लिए आपको इतना ‘शर्मिंदा’ होने की जरूरत नहीं है.

आपने देखा तो होगा कि पैन एम एयरक्राफ्ट में पिछले दरवाजे से निकलते आतंकवादी दो पाकिस्तानी सीक्योरिटी गार्ड्स को मार देते हैं. अगर आप फिल्म को बैन नहीं करते तो लोगों को उन दो शहीदों की मौत का मातम मनाने का मौका मिल जाता.

और फिर नीरजा और बाकी केबिन क्रू और पैसेंजर अगर हीरो थे, तो कराची एयरपोर्ट का सीनियर पाकिस्तानी सुरक्षा अधिकारी इंज़माम यूनिय, जो बाहर से इन आतंकवादियों पर काबू करने की कोशिश कर रहा था, वो भी तो हीरो ही था.

डायरेक्टर राम माधवानी ने इस शख्स की उस दिन की भूमिका पर काफी रिसर्च की है. उस दिन उन्होंने जो कारनामे दिखाए, उनकी लिस्ट लंबी है.

पर क्योंकि आप तो नीरजा देखोगे नहीं, मैं बताता हूं.

सबसे पहले तो वो इतना कूल है जैसे कराची की ककड़ी. जैसे ही उसे पता चलता है कि पैन एम फ्लाइट के पायलट्स और बाकी अधिकारी हाथ खड़े कर चुके हैं (और कोई ब्रूस विलिस या जॉर्ज क्लूनी या मैट डीमन जैसा कोई अमेरिकी ऑफिशियल/पार्ट-टाइम सीआईए ऑपरेटिव, अमेरिकी नौसेना का कोई पूर्व अधिकारी उन्हें बचाने नहीं आ रहा) वह खुद आगे आता है. और कैसे?

दूसरे, उसे दुनिया के ऐसे नागरिक के तौर पर दिखाया गया है जिसे पूरी दुनिया की परवाह है. जब उसका जूनियर अधिकारी उसे बताता है कि प्लेन में कितने पाकिस्तानी नागरिक मौजूद हैं, और उन्हें पहले बचाया जा सकता है, तो वो उसका सर खा लेता है. कितना कूल है न वो!

तीसरे, वो बहुत बहुत हिम्मतवाला है. वो सिर्फ एक बड़ा सा फोन लेकर हाइजेक किए गए प्लेन तक पहुंच जातै है. हाइजेकर्स की बंदूकें उस पर तनी हुई हैं, पर वो बड़े आराम से उनसे मोलभाव करता रहता है.

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जब आतंकवादी, प्लेन को कराची से बाहर निकालने के लिए पयलेट की मांग कर रहे होते हैं, वो उन्हें पूरे 24 घंटे तक टालता रहता है.

आतंकवादियों का गुस्सा बाहर आने लगता है, एक पैसेंजर की जान ले ली जाती है. पर फ्लाइट को कराची में ही रखने के लिए वो इतनी कूटनीति दिखाता है कि हमारी सरकार को उनसे सीखना चाहिए.

जनता की और हमदर्दी चाहिए, तो मैं आपको बता दूं कि फिल्म में एक और बहादुर पाकिस्तानी है, जो फ्लाइट में ही मौजूद है. आमिर अली, ये एक रेडियो इंजीनियर है. ये आतंकवादियों को अधिकारियों से बात करने में मदद करता है. पर बाद में गुस्साए आतंकवादी उसे भी मार देते हैं.

आपके लिए एक और फायदे की बात वहां भी थी जब नीरजा के पत्रकार पिता, कराची के एक पाकिस्तानी पत्रकार से पैन एम फ्लाइट के बारे में पता करने की कोशिश करते हैं, और हो सके तो नीरजा के बारे में भी.

अब भी भरोसा नहीं हुआ? तो चलिए ये भी जान लीजिए कि फिल्म के आखिर में पाकिस्तानी कमांडो प्लेन तक पहुंच जाते हैं. वे काफी अच्छे लगे हैं. वे एयरक्राफ्ट पर हमले की योजना बड़ी होशियारी से बनाते हैं. और वे बिलकुल ठीक वक्त पर प्लेन में घुसते हैं, जब कुछ देर के लिए प्लेन में लाइट नहीं होती और आतंकवादी कनफ्यूज हो जाते हैं.

और सबसे जरूरी बात — जब प्लेन से बच निकलने की कोशिश करने वाले यात्रियों पर आतंकवादी गोलियां बरसा रहे थे, तब भी पाकिस्तानी कमांडो 359 यात्रियों को बचा लाए. वो बात और है कि बीस जानें चली गईं, और मरने वालों में एक नीरजा भी थी.

पिक्चर अभी बाकी है — चाहे आपको ये मानने में परेशानी हुई हो कि दाऊद पाकिस्तान में है, चाहे आपने 26/11 मामले में भी आनाकानी की हो, या फिर हाफिज सईद के लिए चाहे आपके दिल में एक खास जगह रही हो, पर पैन एम केस में पाकिस्तान की न्याय व्यवस्था ने करिश्मा कर दिखाया है.

अबू निदाल ग्रुप के चारों आतंकवादियों को उम्रकैद की सजा दी गई. मौत की सजा शायद ज्यादा सटीक होती, पर हम और ‘नीरजा’ इसे जाने भी देते.

पर बात यह है कि सेंसर जनाब, मुझे आपसे हमदर्दी है. मैंने सुना कि ‘नीरजा’ आपको देखने को भी नहीं मिली.

आपकी कॉमर्स मिनिस्ट्री ने इस फिल्म को इंपोर्ट करने के लिए NOC ही नहीं दी. लाल फीताशाही, पूर्वागृह, सुने सुनाए शब्द सगते हैं.

जैसे कुछ भारतीयों को गुलाम अली से भी परेशानी थी.

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