पिछले हफ्ते मैं कुछ दिनों के लिए चेन्नई में था. वहां मैं कुछ राजनीतिक चिंतकों से मिला. उन्होंने मुझसे एक ऐसा सवाल किया, जिसका मेरे पास जवाब नहीं था. उन्होंने पूछा कि क्या राहुल गांधी वैसा कर सकते हैं, जो सोनिया कर चुकी हैं? मैंने उनसे कहा कि कांग्रेस के पास लोकसभा में 48 सीटें हैं और सरकार बनाने के करीब पहुंचने के लिए पार्टी को कम से कम इससे तीन गुना अधिक सीटें जीतनी होंगी, जो असंभव दिख रहा है.
उन्होंने कहा कि मान लो कि कांग्रेस को 120 सीटें मिल जाती हैं, फिर क्या होगा? इसके बाद हमने एक गेम खेला. हमने ऐसे लोगों की लिस्ट बनाई, जो राहुल के लिए मनमोहन सिंह वाली भूमिका निभा सकते हैं. इसके लिए मेरे कैंडिडेट पी चिदंबरम थे. उनमें वो सारी खूबियां हैं, जिनकी देश को जरूरत है. वह अच्छे वक्ता हैं. रहन-सहन और सोच में आधुनिक हैं. काम के प्रति उनके अंदर एक ईमानदारी है और वह अच्छी डिबेट भी करते हैं. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह वित्त मंत्री रह चुके हैं.
देश में कई वित्त मंत्री बाद में प्रधानमंत्री हुए हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि गांधी परिवार को जो चाहिए, वह उन शर्तों को पूरा करते हैं. उनका कोई जनाधार नहीं है, इसलिए वह राहुल गांधी की लीडरशिप को चुनौती नहीं दे सकते.
वित्त मंत्री से प्रधानमंत्री की कुर्सी तक
सोनिया गांधी शायद ही दिवंगत वीपी सिंह के विश्वासघात को भूली होंगी, जिन्होंने 1987 में राजीव गांधी का साथ छोड़ा था. वह तब लोकप्रिय वित्त मंत्री थे. इस पद पर रहने के दौरान उन्होंने टैक्स रेट्स में कमी की थी और अमीरों के पीछे पड़ गए थे. आगे चलकर वह देश के प्रधानमंत्री बने.
सोनिया मोरारजी देसाई को भी नहीं भूली होंगी. 1969 में देसाई ने जब इंदिरा गांधी का विरोध किया था, तब वह उनकी सरकार में वित्त मंत्री थे. वह भी बाद में प्रधानमंत्री बने. 1969 में इंदिरा गांधी को बड़ा जोखिम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा. उन्होंने कांग्रेस पार्टी तोड़ी. वह इस राजनीतिक जुए में तो जीत गईं, लेकिन बेतुकी लोकलुभावन नीतियों की वजह से देश दो दशक पीछे चला गया. वैसे कांग्रेस ने इसे समाजवाद का नाम दिया था. पार्टी अभी भी उस वायरस से ग्रस्त है.
साल 1979 में एक और वित्त मंत्री ने प्रधानमंत्री को चुनौती दी और चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने. हालांकि, वह कुछ ही महीने इस कुर्सी पर रह पाए. वित्त मंत्री से प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले इनमें से दो नेताओं के पास बड़ा जनाधार था, लेकिन सोनिया के लिए अच्छी बात यह है कि चिदंबरम जननेता नहीं हैं. 2009 लोकसभा चुनाव में वह बड़ी मुश्किल से अपनी सीट बचा पाए थे और मनमोहन सिंह को कौन भुला सकता है. वह भी प्रधानमंत्री बनने से पहले वित्त मंत्री ही थे.
कांग्रेसी चिदंबरम को नापसंद करते हैं
लेकिन चिदंबरम के साथ एक दिक्कत है. कांग्रेसी उन्हें बहुत पसंद नहीं करते. साथ ही, कांग्रेस उत्तर भारतीयों की पार्टी है और चिदंबरम दक्षिण भारत से आते हैं. यह बात भी उनके खिलाफ जाती है. नरसिम्हा राव के मामले में हम यह देख ही चुके हैं. हालांकि, अगर राहुल उन्हें चुनते हैं तो यह समस्या खत्म हो जाएगी. मनमोहन सिंह को भी जब सोनिया ने चुना था, तो उन्हें कोई पसंद नहीं करता था. उस समय मनमोहन का कद बहुत छोटा था, लेकिन जल्द ही उन्हें किसी राजा की तरह मान-सम्मान दिया जाने लगा.
एक और सवाल यह है कि क्या राहुल उतनी कड़ी मेहनत करने को अभी तैयार हैं, जितनी एक प्रधानमंत्री को करनी पड़ती है? चिदंबरम पार्टी के सीनियर नेता भी हैं और उनका ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा है. कांग्रेस इस बात को समझती है. चिदंबरम और मनमोहन सिंह में कई चीजें कॉमन हैं. दोनों अपने काम में माहिर हैं. दोनों किसी मूर्ख को बर्दाश्त नहीं कर सकते, लेकिन चिदंबरम की तुलना में मनमोहन कहीं अच्छे ढंग से ऐसी भावना छिपा लेते हैं. राजनीति और विचारधारा के स्तर पर उन्हें घेरा नहीं जा सकता.
वैसे चिदंबरम और मनमोहन में एक बड़ा अंतर भी है. मनमोहन किसी स्कैंडल में नहीं फंसे, जबकि चिदंबरम के साथ ऐसे विवाद जुड़े हुए हैं. देश में ऐसा एक भी प्रधानमंत्री नहीं हुआ है, जिसने ऐसी इमेज के साथ कुर्सी संभाली हो. क्या पता, पहली बार ऐसा हो जाए.
अगर कांग्रेस नहीं तो कौन?
ये सब बहुत दूर की बातें हैं. अगर कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव में 120 से अधिक सीटें जीत लेती है तो भी उसे चुनौती मिल सकती है. ऐसी सिचुएशन में सबसे बड़ी अकेली पार्टी होने का तर्क काम नहीं आएगा. शरद पवार प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी कर सकते हैं. कॉरपोरेट वर्ल्ड में उनके कई दोस्त हैं और दूसरी पार्टी के नेताओं से उनके संबंध भी अच्छे हैं.
1998 में उन्होंने प्रधानमंत्री पद की मजबूत दावेदारी की थी और पद नहीं मिलने पर कांग्रेस से अलग तक हो गए थे. कई लोगों को लगता है कि ममता भी दावेदार हो सकती हैं. लेकिन वह क्या करेंगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल होता है. यह बात उनके खिलाफ जाती है. हालांकि, वह कांग्रेस का खेल तो बिगाड़ सकती ही हैं. इस बीच, जैसा कि दो हफ्ते पहले मैंने लिखा था कि मोदी को साल भर पहले चुनाव करवाना चाहिए. अगर वह ऐसा करते हैं तो उन्हें पिछली बार की तुलना में 50-75 सीटों से अधिक का नुकसान नहीं होगा.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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