पाकिस्तान (Pakistan) के लाहौर में सेना के एक कमांडर का घर जला दिया गया. रावलपिंडी में सेना के मुख्यालय पर हमला किया गया. उन क्रोधित नागरिकों को सैन्य संस्थानों पर धावा बोलते हुए देखना क्या ही नजारा था.
और सबसे ज्यादा आश्चर्य वाली बात यह थी कि यह सब हुआ कैसे?
क्या अपने पसंदीदा लीडर को गिरफ्तार होते देखने के बाद भीड़ भड़की? 75 सालों से ज्यादा दिनों के बाद क्या पाकिस्तान के लोग आखिरकार खुद को दमन की व्यवस्था से मुक्त कर रहे थे और दमन के खिलाफ लड़ रहे थे?
क्या उस व्यवस्था को अस्थिर करना इतना आसान था, जो चाहे कितनी ही टूट गई हो, किसी न किसी तरह से दैनिक आधार पर काम करती है? और क्या यह इस देश का उस रूप में अंत होना था जैसा कि भारत जानता था... रात में आपको जगाए रखने के लिए कोई और 'दुश्मन' राज्य नहीं बचा?
नहीं ऐसा नहीं है! भारत के पास फिक्र करने के लिए बहुत कुछ है. आज हम जिन चीजों का सामना कर रहे हैं वह कोई नई बात नहीं है. भले ही देश के जिंदा रहने की उम्मीद है, जो बदलाव हुए हैं वे खतरनाक हैं और भारत को इसके बारे में फिक्र करनी चाहिए.
पाकिस्तान का भारत को लेकर नजरिया
साल 1947 में हुए बंटवारे के बाद से पाकिस्तान का इतिहास बेहद शोरगुल वाला रहा है. अस्थिरता और अनिश्चितता की लहरें उकसाने का कोई संकेत नहीं दिखाती हैं, फिर भी पाकिस्तान के लोगों ने जिंदा रहने और एक पहचान बनाने की कोशिश करते रहे. इंटरनेशनल मंच पर मील के पत्थर का जश्न मनाते रहे. वे अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं और कुछ मामलों में किसी तरह संपन्न हो रहे हैं. यह सब कूटनीति की भारी खुराक के साथ आया है, जो संभवतः यह सुनिश्चित करने का सबसे निश्चित कारण रहा है कि पाकिस्तान ने पड़ोसी देशों, विशेष रूप से भारत के साथ नागरिक संबंध बनाए रखे हैं.
भारत के लिए यह दावा करना कि पाकिस्तान दुश्मन है...यह पूरी तरह से एक नैरेटिव है. इसी तरह पाकिस्तान के लिए बंटवारे के बाद से भारत के रूप में एक निरंतर खतरे का दावा करना, इसका एक हिस्सा है. लेकिन राजनीतिक हस्तियों, सैन्य ताकत और सीमा पार की हमलावर नीति के बीच इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि पाकिस्तान के लोगों ने न केवल अपने लिए बल्कि भारत के साथ शांति स्थापित करने के लिए रचनात्मक स्थान के लिए लगातार संघर्ष किया है.
जब वाघा बॉर्डर जयकारे से गूंजता है- हम एक जैसे दिखते हैं, है ना? - और सियाचिन दुनिया का सबसे ऊंचा कब्रिस्तान बना हुआ है. यह लोग, रोजमर्रा के लोग ही रहे हैं, जिन्होंने लगातार सभ्यता के कुछ हिस्से को बनाए रखा है क्योंकि देश एक संकट से दूसरे संकट में चला गया है. देश क्या अनुभव कर रहा है, यह समझने के लिए सामान्य जुमले लागू हो सकते हैं - 'इसके कगार पर पाकिस्तान', 'चौराहे पर पाकिस्तान' लेकिन असली सर्वाइवर और नायक आम लोग ही हैं.
भारत में पाकिस्तानियों के खिलाफ पूर्वाग्रह
भारत के पास पाकिस्तान के एक राजनीतिक नजरिए से परे एक झलक है जो निश्चित तौर पर बॉलीवुड फिल्मों के जरिये हमें परोसी गयी है. इसपर रिसर्च तो होता ही नहीं है. इसके अलावा यह नजरिया ज्यादातर लोगों की बातचीत के जरिए पैदा हुआ है, जो आर्ट के रूप में आया है.
लिट्रेचर फेस्टिवल्स, फैशन शो, शॉपिंग ट्रिप, धार्मिक तीर्थ यात्राएं, ऐतिहासिक यात्राएं, पारिवारिक यात्राएं और विभाजन-आधारित कहानियां- यह सब उस सीमित स्थिरता के कारण संभव है जिस पर नागरिक टिके हुए हैं.
जब आप एक ऐसे कैफे में बैठते हैं, जहां एक सिक्योरिटी गार्ड बंदूक के साथ मक्खी मारता रहता है, तो यह नॉर्मल एक्जिस्टेंस नहीं होता है. और कुछ विचित्र है जब आप माधुरी दीक्षित के बहुत खूबसूरत हिट गानों को सुनते हुए बड़े हुए हैं लेकिन फिर भी खुद को बॉलीवुड की फिल्मों में केवल आदाब करते हुए, तवीज-पहने, सुरमा-लगाने वाले आतंकवादी के रूप में चित्रित करते पाते हैं... शुक्र है कि हमारे पास हंसने के लिए अच्छा सेंस ऑफ ह्यूमर है.
इसे बंद करो अन्यथा हम खुद खत्म हो जाएंगे. मुझे लगता है कि इससे भारतीय मनोरंजन जगत को ज्यादा मदद नहीं मिलेगी.
भारत के पास चिंता करने के लिए बहुत कुछ है. नागरिकों पर कार्रवाई की जिम्मेदारी उन लोगों पर है, जो लोकतंत्र चाहते थे और उसमें विश्वास करते थे, जो एक प्रगतिशील देश चाहते थे. यह आंतरिक रूप से कैसे निकला यह एक अलग मामला है और ख्वाब का अंत कुछ ऐसा है, जिससे उबरने में वक्त लगेगा.
मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट (MQM) और पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (PTI) सहित राजनीतिक दलों के विघटन से पैदा हुई राजनीतिक सत्ता की कमी भी चिंताजनक है क्योंकि यह लोकतंत्र पर झटका लगने जैसा है, जिसके अंदर नागरिक वास्तव में खुद को स्थापित कर सकते हैं और भारत और कश्मीर के साथ अधिक जुड़ाव की वकालत करते हैं.
पाकिस्तान का एक मिलिट्री इकोनॉमी के रूप में पहचान स्थापित करने के बाद एक समृद्ध, लोकतांत्रिक रूप से स्वस्थ पड़ोसी बनना ही भारत के फायदे में होगा. इसलिए न केवल पाकिस्तान के प्रति भारत का प्रिडिक्शन ऑथेंटिक होगा बल्कि लगातार खतरे को दूर करने की जरूरत भी काफी कम हो जाएगी.
क्या भारत को खुद को और मजबूत करना चाहिए?
बात यह है कि पाकिस्तानियों के लिए अस्थिरता कोई नई बात नहीं है. हम जानते हैं कि कैसे जीना और सर्वाइव करना है लेकिन भारत के लिए, इसका मतलब बढ़ी हुई दुश्मनी पर आधारित संबंधों का एक अलग दौर हो सकता है. कल्पना कीजिए - अगर सेना में आंतरिक विभाजन है, तो समर्थन हासिल करने का सबसे अच्छा तरीका सैनिकों को एक खतरे की ओर बढ़ाना है, जो इस मामले में भारत होगा.
अगर इसके बीच चीन की भूमिका जोड़ी जाए तो भारत की मुश्किलें और ज्यादा है. सऊदी अरब और ईरान के बीच दोस्ती में चीन पंच बना तो उसे मुस्लिम दुनिया में उसकी क्षवि चैंपियन की बनी, इसके अलावा मुस्लिम देशों के साथ शांति स्थापित करने में इजराइल की भूमिका को भी देखें तो, भारत वैश्विक मंच पर एक अछूत राज्य होने का जोखिम उठाता दिख रहा है. और किस लिए? ऐसी स्थिति में उसे क्या फायदा होगा?
पीटीआई को हो रहे नुकसान पर खुशी मनाना, अराजकता पर हंसना और पावर वैक्यूम पर छाती पीटना...यह सब नाटकीय और बहुत हद तक एक एक्शन फिल्म की तरह लगता है. लेकिन वास्तविकता यह है कि देश बना रहता है, जबकि नागरिक समाज शायद न बना रहे. यह वह है जो शक्ति को बरकरार रखता है, जिससे भारत को परेशान होना चाहिए क्योंकि जब आप पाकिस्तान में अस्थिरता पर खुश होते हैं, तो असल में इससे प्रभावित वहां की शक्तियां नहीं होती हैं, बल्कि सड़क का औसत व्यक्ति होता है. और उनकी आवाज के बिना, अपनी बात कहने का मतलब भारत के लिए भारी परेशानी है.
(यह आर्टिकल एक ओपिनियन पीस है. व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं, जो एक पाकिस्तानी कॉनट्रिब्यूटर हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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