13 दिसंबर, 2001... न सिर्फ भारत, बल्कि दुनिया की तारीख में दर्ज एक काला अध्याय. इस दिन हमारे देश की संसद पर आतंकवादी हमला हुआ था. आजाद भारत के इतिहास का सबसे दुर्दांत आतंकी हमला.
संसद पर हमले को एक हफ्ता बीत चुका था, लेकिन गोलियों की तड़तड़ाहट और बारूद की गंध अब भी माहौल में मौजूद थी. एक क्राइम रिपोर्टर के तौर पर मेरा पूरा दिन दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल दफ्तर के इर्द-गिर्द ही बीतता था. देश की राजधानी में होने वाली आतंकी घटनाओं की जांच लोधी रोड पर बना पुलिस का यही विभाग करता है.
स्पेशल सेल के उसी लॉकअप में बंद थे शौकत गुरु, उसकी पत्नी अफसां गुरु, एसएआर गिलानी और मोहम्मद अफजल. पुलिस ने उन्हें हमले के दो दिन बाद श्रीनगर से गिरफ्तार किया था.
सैकड़ों मिस्ड कॉल, दर्जनों SMS और कामयाबी
20 दिसंबर 2001... दिल्ली शहर की ठिठुरती सुबह में चाय की चुस्कियों के बीच अचानक मुझे खबर मिली कि पुलिस सिर्फ 2 टीवी पत्रकारों को मोहम्मद अफजल का इंटरव्यू करवाने वाली है और मेरा नाम उनमें नहीं है. मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई. अफजल उन दिनों देश की सबसे बड़ी हेडलाइन था और मैं लगातार उसके इंटरव्यू की कोशिश कर रहा था.
आनन-फानन में अपने साथी कैमरामैन निखिल रस्तोगी के साथ मैं स्पेशल सेल दफ्तर के बाहर जा पहुंचा और पागलों की तरह डीसीपी अशोक चांद को फोन करने लगा. लेकिन वो न तो मेरे फोन और न ही एसएमएस का कोई जवाब दे रहे थे. मैंने भी हिम्मत नहीं हारी.
आखिरकार सैकड़ों मिस्ड कॉल और दर्जनों एसएमएस के बाद शाम करीब 4 बजे मुझे कैमरे के साथ स्पेशल सेल के अंदर बुला लिया गया. चंद मिनटों बाद ही मेरे सामने था मोहम्मद अफजल उर्फ अफजल गुरु.
सामना एक आतंकवादी से
पूरी बाजू की काली टी-शर्ट, ऑफ व्हाइट रंग का स्वेटर और शेव किए चेहरे पर स्टील के फ्रेम वाला चश्मा. अफजल को देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल था कि देश के हुक्मरानों की मेजबानी करने वाली सबसे सुरक्षित इमारत पर दिन-दहाड़े हुए हमले के पीछे इसी शख्स का दिमाग था. मैं इतना तो जानता था कि पांच दिन पुलिस गिरफ्त में रहने के बाद अब वो रटी-रटायी बातें ही करेगा, लेकिन फिर भी मेरा दिल रोमांच और घबराहट में तेजी से धड़क रहा था.
अफजल का कबूलनामा
शुरुआत में मैं थोड़ा बेचैन था और अफजल भी मुझसे आंखे चुराने की कोशिश कर रहा था. बीच-बीच में खांसता था, शायद शब्द ढूंढने के लिए. कई बार जवाब के बाद कनखियों से कैमरे के पीछे खड़े पुलिसवालों को देखता था, जैसे कोई नौसिखिया एक्टर अपने हर सीन के बाद डायरेक्टर को देखता है. लेकिन सहज होने के बाद उसने कैमरे के सामने कबूलना शुरू किया.
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वो कश्मीर में जैश-ए-मोहम्मद के कमांडर-इन-चीफ गाजी बाबा से मिला और संसद पर हमले की साजिश को आखिरी शक्ल दी. उसने दिल्ली में उस मोटरसाइकिल का इंतजाम किया, जिसके जरिये पार्लियामेंट समेत कई दूसरे ठिकानों की रेकी की गई. उसने ही कैरी बैग और मेवे खरीदे और उसने ही लैपटॉप से होम मिनिस्ट्री और संसद के वो नकली स्टीकर निकाले, जिन्हें अपनी एंबेसडर के शीशे पर चिपकाकर पांच पाकिस्तानी आतंकवादियों ने संसद की इमारत पर ही नहीं, बल्कि हमारे देश की संप्रभुता पर हमला कर दिया.
एक खास बात- मैंने अफजल से पूछा कि क्या उसे अपनी हरकतों का कोई अफसोस है, तो उसने कोई ठोस जवाब नहीं दिया. लेकिन उसने एक बात जरूर कही कि वो अपनी माफी को लेकर कोर्ट में कोई अर्जी नहीं देगा. कई सालों तक वो इस पर कायम भी रहा. उसकी पत्नी ने राष्ट्रपति को जो दयायाचिका भेजी, उस पर अफजल ने ना-नुकुर करते हुए ही दस्तखत किए. ये अपने किए का पछतावा था या फिर जिंदगी के प्रति नाउम्मीदी, कहना मुश्किल है.
अफजल को फांसी
9 फरवरी, 2013 को अफजल को दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी पर लटका दिया गया और वहीं दफना भी दिया गया. काफी वक्त बीत चुका, लेकिन सच कहूं तो एक युवा रिपोर्टर होने के नाते उस वक्त मुझे अंदाजा नहीं था कि आने वाले वक्त में अफजल देश का सबसे चर्चित आतंकवादी होगा और उसकी मौत, फांसी की अहमियत और दया याचिकाओं की हैसियत पर एक बड़ी बहस का सबब बन जाएगी.
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