ADVERTISEMENTREMOVE AD

पक्ष, विपक्ष ने उड़ाईं संसदीय परंपरा की धज्जियां, बुरे नतीजे होंगे

मॉनसून सत्र 2020 को क्या बनाता है विवाद का कारण?

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

संसद अब शायद पहले जैसी कभी नहीं हो सकेगी. मॉनसून सत्र ने यहां संवैधानिक और लोकतांत्रिक मानकों को चूर-चूर होते देखा है. सत्ताधारी बीजेपी और विपक्ष के बीच संबंध काफी बिगड़ गए हैं. और देश के किसानों और मजदूरों से जुड़े बिल, जिनके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, के संसद के दोनों सदनों या स्टेकहोल्डर के साथ बिना चर्चा के पास कराए जाने से मतभेद के नए विषय सामने आ गए हैं -जो अर्थव्यवस्था को और नुकसान पहुंचा सकते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपायों के धीरे-धीरे खत्म होने में हाल ही में खत्म हुआ मॉनसून सत्र एक अहम पड़ाव है.  

पहली बार संविधान उसी संस्था के निशाने पर आ गया जिस पर उसे सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी है. ये संसदीय इतिहास में एक नया निचला स्तर है और इससे ये सवाल उठता है कि: इतने बड़े हमले झेलने के बाद संसद, जैसा कि हम इसे जानते हैं, क्या बच पाएगी?

मॉनसून सत्र 2020 को क्या बनाता है विवाद का कारण?

ये सत्र कई मायनों में काफी असामान्य था. कड़े कोविड प्रोटोकॉल के कारण संसद में पहले की तरह वो चहल पहल नहीं दिखी जो हर बार देखने को मिलती है. सांसद एक-दूसरे से 6 फुट की दूरी पर बैठे थे और उनके बीच प्लास्टिक शील्ड लगी थी. मीडिया के सदस्यों की संख्या भी काफी घटा दी गई थी. और आम तौर होने वाली भीड़ जो संसद को सक्रियता का केंद्र बनाती है वो भी नहीं थी.

लेकिन लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली में जो इस सत्र को विवादित बनाता है वो है राज्यसभा में विवादित कृषि बिल को वोटिंग के लिए रखे जाने के समय जिस तरह से संविधान की धज्जियां उड़ाई गईं.  

न केवल विधेयकों को सेलेक्ट कमेटी को भेजने की विपक्ष की मांग ध्वनिमत से खारिज की गई बल्कि मत विभाजन की मांग भी नहीं मानी गई. (विभाजन का मतलब है सांसदों के व्यक्तिगत वोट जिससे कि बहुमत का आंकड़ा रिकॉर्ड में आ जाए.)

ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. पूर्व लोकसभा महासचिव पीडीटी आचार्या के मुताबिक मत विभाजन की अनुमति से इनकार करना संविधान के अनुच्छेद 100 का सरासर उल्लंघन है जिसके तहत संसद में काम होते हैं.

उन्होंने कहा कि “ये एक बहुत बड़ी गलती थी. प्रक्रिया में अनियमितताएं होती हैं लेकिन ये पहली बार है जब संवैधानिक अनियमितता हुई है.”  

ये विडंबना ही है कि कई सवाल उठाने लायक मुद्दों (जून 1975 में आपातकाल का एलान एक काले धब्बे के तौर सामने आता है) पर संसद को अपनी मर्जी से चलाने के कांग्रेस पर आरोप के दशकों बाद ऐसा लगता है कि बीजेपी ने सिस्टम को हराने में ग्रैंड ओल्ड पार्टी को पछाड़ दिया है.

आचार्या याद करते हैं कि पिछली सरकारें संविधान के खिलाफ जाने के पहले ही कदम रोक लेती थीं। लेकिन मौजूदा सरकार ऐसा नहीं सोचती है. उन्होंने कहा कि इस बार राज्य सभा में जो हुआ उससे संसद की प्रणाली कमजोर हुई है.

0

“अगर सरकार नियमों का पालन नहीं करेगी तो हम भी नहीं करेंगे”

विपक्ष भी अपने हिस्से के दोष से नहीं बच सकता. टेबल पर चढ़ कर और उपसभापति के चेहरे पर रूल बुक लहराकर विपक्ष ने राज्य सभा में वैसी ही अव्यवस्था की स्थिति बना दी जो सिर्फ राज्य की विधानसभाओं में नजर आती है. संसद आमतौर पर गरिमा की स्थिति बनाए रखती है लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ.

राज्य सभा में हंगामे के बाद फैसला हो चुका है. जुझारू विपक्ष ने भविष्य में आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत का फैसला किया है.  

विपक्ष के एक नेता, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते, ने कहा कि “अगर सरकार नियमों को नहीं मानेगी तो हम भी नहीं मानेंगे.”

क्या इसका मतलब संसदीय बहस और चर्चा का अंत है?  

जिस तरीके से कृषि और श्रम विधेयक संसद से पारित किए गए उसे देखते हुए शायद ये सवाल प्रासंगिक नहीं है. कोई चर्चा नहीं हुई और सभी को ध्वनिमत से पारित कर दिया गया। श्रम विधेयकों को तो उस समय पारित किया गया जब एक भी विपक्ष का सांसद मौजूद नहीं था क्योंकि उन्होंने छोटे किए सत्र की बाकी कार्यवाही के बहिष्कार का फैसला किया था.

संसद का एक मुख्य काम प्रस्तावित विधेयकों की बारीकी से जांच और इसपर व्यापक विचार विमर्श की मांग करना है. विधेयक खासकर वैसे जिनपर कोई सहमति नहीं बन पाती है, उन्हें या तो सेलेक्ट कमेटी या स्टैंडिंग कमेटी के पास भेजा जाता है जो इनपर विशेषज्ञों और स्टेकहोल्डर से राय मांगती हैं.

कृषि और श्रम विधेयकों का इस जांच से गुजरना बहुत जरूरी था.

ये विधेयक खास तौर पर विवादित हैं क्योंकि इसका असर छोटे, सीमांत किसानों और छोटे, मध्यम उद्यमों के मजदूरों पर होगा. इन किसानों और मजदूरों को जो संरक्षण मिलता था वो अब खत्म हो गया है और वो अब बाजार की दया पर हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘असंतोष का मौसम सरकार के लिए साफ तौर पर दिखाई दे रहा है’

ये विधेयक सुधार प्रक्रिया का हिस्सा लगते हैं लेकिन जिनपर इसका असर होगा उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं है कि इसका उनके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा. बिल ड्राफ्ट करने से पहले स्टेकहोल्डर या जनता से कोई राय नहीं ली गई. यहां तक कि आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ ने भी राय और समीक्षा की सामान्य प्रक्रिया को दरकिनार करने के लिए मोदी सरकार की आलोचना की है. भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता ने कहा कि “ विधेयक को ऐसे लोगों ने ड्राफ्ट किया है जो जमीनी स्तर की वास्तविकता से अनजान हैं.“

आचार्य कहते हैं कि संसद में उनके 40 साल के दौरान उन्होंने विधेयकों को समीक्षा के लिए संसदीय समितियों में भेजने की अहमियत को महसूस किया है.

उन्होंने कहा कि “जब कोई विधेयक समिति की जांच के बाद आता है तो वो पहले से बेहतर हो जाता है.”  

सरकार मॉनसून सत्र के बाद आसमान पर छाए काले बादलों को लेकर ज्यादा परेशान नहीं दिख रही है. कृषि विधेयक के पारित होने के विरोध में हरसिमरत कौर के इस्तीफे के बाद बीजेपी के सबसे पुराने सहयोगी दलों में एक अकाली दल एनडीए से अलग हो गया है.

विपक्ष ने आक्रामक रवैया अपना लिया है. ये आगे की संसद सत्रों के लिए अच्छा संकेत नहीं है.  

विधेयक के विरोध में किसान सड़कों पर हैं. वो सड़कों और हाइवे को जाम कर रहे हैं. आरएसएस से जुड़े किसान और मजदूर संगठन भी नाराज हैं. वो धरना-प्रदर्शनों से परहेज कर रहे हैं लेकिन अपना गुस्सा जताने में हिचकिचा नहीं रहे हैं.

असंतोष का मौसम सरकार के लिए साफ तौर पर दिखाई दे रहा है. लेकिन क्या सरकार को इसकी परवाह है?

(लेखिका दिल्ली में रहने वाली वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये लेखिका के अपने विचार हैं और इससे क्विंट का सरोकार नहीं है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें