जहां ज्यादातर अर्थशास्त्री कोविड -19 (COVID-19) के असर के आधार पर देश की अर्थव्यवस्था के विकास का आकलन कर रहे थे और पिछले साल की इकोनॉमिक रिकवरी (कि वह वी शेप की है या यू शेप की) के पैटर्न का अनुमान लगा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ एक पैटर्न दुनिया भर में देखा जा रहा था. वह पैटर्न है, एसेट्स और स्टॉक की कीमतों में जबरदस्त बढ़ोतरी.
ज्यादातर लिस्टेड कंपनियों की कॉरपोरेट आय और मुनाफे में बढ़ोतरी हुई, तब भी जब ‘रियल वेज’ (वास्तविक वेतन, जिसे मुद्रास्फीति के हिसाब से एडजस्ट किया जाता है) लगातार निचले स्तर पर है. बड़ी कंपनियों ने अपना व्यापार निवेश बढ़ाया है, और छोटी कंपनियां महामारी की मार से परेशान अर्थव्यवस्था में मांग और आपूर्ति की समस्याओं से जूझ रही हैं.
जोमैटो बनाम पेटीएम
वैसे जिन भारतीय कंपनियों को पूंजी की जरूरत है, वे सभी फंड्स के लिए ‘ ऋण बाजार’ की राह पकड़ रही हैं. 2020-21 के दौरान इक्विटी इश्यू करने की राशि 1.7 ट्रिलियन रुपए थी, जो उसके एक साल पहले की 1.4 ट्रिलियन रुपए से 23.7%ज्यादा है. हालांकि इस बढ़ोतरी की वजह रिलायंस इंडस्ट्रीज़ का 531 बिलियन रुपए का सिंगल इक्विटी इश्यू है. यह भारत का सबसे बड़ा राइट्स इश्यू है. 2020-21 में प्राथमिक पूंजी बाजार के जरिये बड़ी मात्रा में धन जुटाना भी ऋण उत्पादों के माध्यम से हुआ.
साल के दौरान डिबेंचर इश्यूएंस भी 8.6 ट्रिलियन रुपए की ऊंचाई पर पहुंच गया. ये 2019-20 में 6.5 ट्रिलियन के ऑर्डर के साथ इश्यू किए गए डिबेंचर्स की तुलना में 31.6% अधिक थे.
इस बीच भारत के फिनटेक मार्केट या ‘ऐप बेस्ड डिजिटल बिजनेस मॉडल’ में हाल ही में आईपीओ की बहार आई, और इसके बाद एकदम अलग-अलग किस्म के नतीजे भी देखने को मिले. यह मार्केट काफी फल फूल रहा है और पिछले कुछ सालों में इसमें स्टार्ट-अप्स की संख्या तेजी से बढ़ी है.
इनमें से एक जोमैटो, यानी पहले जनरेशन की इंटरनेट यूनिकॉर्न कंपनी के आईपीओ को लेकर स्थानीय निवेशकों में जो जोश देखा गया, वह अनूठा था. 1.3 बिलियन डॉलर के आईपीओ के आने के बाद कंपनी के शेयर्स में 80% का उछाल देखने को मिला.
हालांकि भारत में डिजिटल पेमेंट के अगुवा पेटीएम का आईपीओ का सपना टूट गया.
इसके 2.5 अरब डॉलर के आईपीओ के बाद शेयरों में लगातार दूसरे दिन गिरावट जारी रही, जो एक बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनी की अब तक की सबसे खराब शुरुआत है. लॉन्च के तीन दिनों के बाद इसका स्टॉक लगभग 13% गिर गया (गुरुवार को इसकी शुरुआत में 27% की गिरावट के साथ) और इसका बाजार मूल्य लगभग 12 बिलियन डॉलर तक लुढ़क गया.
पेटीएम की पेरेंट कंपनी, वन 97 कम्युनिकेशंस लिमिटेड ने एक रिकॉर्ड आईपीओ राशि रखी थी, लेकिन इसकी खराब शुरुआत के बाद इस बात की आलोचना की गई कि कंपनी और उसके इनवेस्टमेंट बैकर्स ने कुछ ज्यादा बड़ा दांव लगा लिया था.
दूसरी डिजिटल पेमेंट कंपनी मोबिविक भी पूंजी जुटाने के लिए इनीशियल पब्लिक ऑफरिंग लाने की योजना बना रही थी. लेकिन उसके भविष्य को लेकर ऑडिटर्स और रेगुलेटर्स ने जो सवाल खड़े किए हैं, उसके बाद कंपनी ने फिलहाल इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया है.
तो, अब क्या हो रहा है?
जोशीले निवेशकों की हालत
मशहूर अर्थशास्त्री रॉबर्ट शिलर ने कहा था कि पूरे अमेरिका में एक 'वाइल्ड वेस्ट' मानसिकता पैदा हो रही है. वहां लोग इक्विटी, हाउसिंग और क्रिप्टो में खूब खुश होकर निवेश कर रहे हैं. जैसे 'रोरिंग 1920' के दौर में देखा गया था.
यह स्पैनिश फ्लू के बाद का समय था. उच्च आय वाला वर्ग खूब खर्चा कर रहा था, और निम्न आय वर्ग में बचत का स्तर अस्थिर था. इसके बाद स्टॉक मार्केट धराशाई हुआ था, और ग्रेट डिप्रेशन यानी महामंदी आई थी.
ऐसा लगता है कि भारतीय बाजार में भी वैसी ही 'वाइल्ड वेस्ट' मानसिकता आ गई है. उच्च आय वर्ग (यानी दौलतमंद लोग) स्टॉक, क्रिप्टो और दूसरे एसेट्स में बड़ा निवेश कर रहे हैं. बड़े दांव लगा रहे हैं. दूसरी तरफ निम्न आय वाला समूह महामारी से बेहाल अर्थव्यवस्था में अपने भविष्य को लेकर परेशान हैं (वे कम खर्चा कर रहे हैं और ज्यादा बचत कर रहे हैं).
फिर भी, जैसा कि पिछले साल कहा गया था, पूंजी बाजार और असली अर्थव्यवस्था के बीच जो यह फर्क है, वह बबल की तरफ या मैनिया इन क्राइसिस की तरफ इशारा करता है.
'कीमतों को देखते हुए उम्मीद लगाना' या 'स्टॉक की कीमतों' मेंबढ़ोतरी को किसी तर्क, या बाजार के मूल सिद्धांतों पर भरोसा, या अर्थव्यवस्था की मजबूत रिकवरी के जरिए समझा नहीं जा सकता है. इसकी बजाय, इसे ऐसे समझा जा सकता है किविदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) से होने वाले छोटी अवधि के पूंजी प्रवाह की वजह से निवेशकों में ‘तर्कहीन जोश’आ गया है. यूं इक्विटी वाले सिस्टमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान्स (एसआईपी) में निवेश करने वालों के अलावा बाकी के ज्यादातर एफआईआई ‘हॉट मनी’ ही हैं. हॉट मनी यानी ऐसा पैसा, जो एक से दूसरे देश में छोटी अवधि और मुनाफे के लिए लाया जाता है.
क्रिप्टो कैसे काम करता है?
निवेशकों में वाइल्ड वेस्ट मानसिकता की एक और मिसाल है- क्रिप्टो मेनिया. नौजवान भारतीयों में इसके लिए बहुत बावलापन देखा जा रहा है. भारत सरकार इस समय प्राइवेट क्रिप्टोकरेंसी मार्केट को रेगुलेट करने के लिए एक बिल लाने की योजना बना रही है. चिंता वाजिब है. चूंकि यह प्राइवेट तरीके से मैन्यूफैक्चर होने वाली डिजिटल मनी है, और इसमें निवेश बहुत उतार-चढ़ाव भरा है.
यहां हम पॉल क्रुगमैन के उस सवाल पर विचार कर सकते हैं, जो उन्होंने हाल ही में अपने एक कॉलम में पूछा था, “लोग ऐसे ऐसेट्स (क्रिप्टोकरेंसियों में पेगिंग) के लिए इतना पैसा क्यों खर्च करने को तैयार हैं जो कुछ करते ही नहीं.”
इसका जवाब यह है कि इन एसेट्स की कीमत चढ़ती रहती है, और शुरुआती निवेशक खूब सारा पैसा कमा लेते हैं और उनकी कामयाबी दूसरे निवेशकों को भी प्रोत्साहित करती है. यह किसी को ‘स्पेक्यूलेटिव बबल’, या पॉन्जी स्कीम लग सकता है, और दोनों का ही असर लगभग एक जैसा होता है.
पॉन्जी स्कीम के लिए एक नेरेटिव चाहिए, और इस बार यह नेरेटिव यह है कि क्रिप्टो निवेश बहुत मुनाफे वाले होते हैं. देखा जा सकता है कि स्पोर्ट्स इवेंट्स के बीच में आने वाले विज्ञापनों और यूट्यूब विज्ञापनो के जरिए लोगों को किस तरह क्रिप्टो (और स्टॉक्स) में निवेश करने के लिए लुभाया जाता है.
क्रिप्टोकरेंसी के सुरक्षित होने और मुनाफा देने वाले नेरेटिव के पीछे दो हिस्से हैं- पहला है, टेक्नोबबल, और दूसरा लिबरेटेरियन डेर्प है.टेक्नोबबल एक रहस्यमयी शब्द है. यानी लोगों को यह समझाया जाता है कि प्राइवेट मनी को जारी करने के लिए ब्लॉकचेन जैसी क्रांतिकारी तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है. इसके बाद आता है, लिबरेटेरियन डेर्प, जोकि 2008 से लोगों को मूर्ख बना रहा है.ऐसे दावे किए जा रहे हैं कि फिएट मनी, यानी सरकारी करंसी एक न एक दिन खत्म हो जाएगी, क्योंकि उसके साथ कोई टैंजिबल बैकिंग नहीं है.
लेकिन यह उत्साह थोड़े समय का है
अब वाइल्ड वेस्ट मानसिकता कब तक निवेशकों को स्टॉक और क्रिप्टो में बरकरार रखेगी, यह अंदाजा लगाना मुश्किल है. लेकिन यह तय है कि यह लंबे समय तक रहने वाला नहीं है. कमजोर वित्तीय प्रदर्शन वाले कुछ स्टार्टअप्स (फिनटेक या ऐप आधारित बिजनेस मॉडल) को इस जोश का फायदा हो सकता है. लेकिन सिर्फ कुछ समय के लिए. पेटीएम की बेहाली से बात साफ होती है. दूसरी कंपनियो को भी ऐसे दुर्दिन देखने पड़ सकते हैं.
लेकिन क्रिप्टो का क्या?
1924 में जॉन मेयनार्ड केयन्स ने गोल्ड स्टैंडर्ड को “बार्बरस रेलिक” (क्रूर निशान) कहा था. चूंकि सोना भले ही अपने धातुपने की वजह से रहस्यों से भरा और बेशकीमती माना जाता हो, लेकिन वह यूनिट ऑफ मनी या करंसी का रूप अख्तियार नही कर सकता.
इसी तरह कुछ क्रिप्टोकरेंसियां (जैस बिटकॉइन) भले ही कुछ लंबे समय तक चल सकती हैं, बशर्ते दुनिया भर की सरकारें इसे पूरी तरह से बैन करने के लिए एकजुट न हो जाएं. हां, इस समय तो यह मुश्किल ही लगता है.
(लेखक ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वह फिलहाल कार्लटन यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स विभाग के विजिटिंग प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @prats1810 . यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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