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मोदी का इंटरव्‍यू: लोकसभा चुनाव से पहले डिफेंसिव मोड में नमो! 

अगले लोकसभा चुनाव में क्या होंगी मोदी के लिए नई चुनौतियां? 

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प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठने के पहले और उसके बाद भी नरेंद्र मोदी ने जो इंटरव्‍यू दिए हैं, उनमें पूछे गए सवाल और उनके जवाब, दोनों ही अपर्याप्त रहे हैं. एएनआई की संपादक स्मिता प्रकाश के साथ उनका इंटरव्‍यू इनमें से एक कमी को खत्‍म कर देता है.

ये सवाल अब तक उनसे पूछे गए सवालों में सबसे ज्यादा ठोस थे. दुर्भाग्य से, एक भी पूरक प्रश्न नहीं पूछे गए, जिसकी वजह से ये इंटरव्‍यू सवालों के ज्‍यादा भीतर नहीं जा पाया.

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साक्षात्कार के लिए तैयार किए गए सवालों में जिस तरह की भाषा का प्रयोग हुआ है (जैसे “जंगबाजी”, “भाजपा को 180 से ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी”, “क्या नेतृत्व को चुनाव में हार की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए”) उससे लगता है कि साक्षात्कार के लिए दिए गए प्रश्नों के साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं हुआ है. या अगर इन सवालों को पहले भेजा गया भी था, तो साक्षात्कारकर्ता ने स्क्रिप्ट से हटने का जोखिम उठाया, जब उसे ऐसा संकेत मिला कि ऐसा किया जा सकता है.

अब तक यह प्रशासन ईमेल से होने वाले साक्षात्कार को ही अहमियत देता रहा है या फिर यदा-कदा ‘चाय पर चर्चा’ जैसी प्रश्नबाजी की इजाजत देती रही है. ऐसे में प्रश्नों का सीधा सामना करने की इस इच्छा को निकट के चुनाव में मोदी खुद को कैसे पेश करना चाहते हैं, इस बारे में उनकी सोच में रणनीतिक बदलाव के रूप में देखा जा सकता है.

पसंद के पत्रकार

यह सही है कि कई लोग यह कहेंगे कि मोदी में ऑरीआना फलासी जैसी पत्रकार के प्रश्नों का सामना करने का साहस नहीं है. ऑरीआना विश्व के नेताओं से तीखे सवाल करने के लिए जानी जाती हैं (हेनरी किसिंजर ने लिखा है किऑरीआना के साथ उनका साक्षात्कार किसी पत्रकार के साथ उनका “सर्वाधिक अनर्थकारी’ साक्षात्कार था).

मोदी करन थापर जैसे आक्रामक पत्रकारों के साथ खुलकर बातचीत नहीं कर पाते हैं. करन थापर के साथ अक्टूबर 2007 में एक साक्षात्कार के दौरान वे उठकर चले गए थे. इसका परिणाम यह है कि वे एक ऐसे पत्रकार को चुनते हैं, जो विश्वसनीय हो और जिस पर ‘भक्त' होने का खुलेआम आरोप न लगते हों, पर जो मोदी के प्रति थोड़ा नरम हो.

पर मोदी के साथ साक्षात्कार अपनी खामियों के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि साक्षात्कार में क्या है और उन्होंने क्या कहा है, ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है.

अंततः यह साक्षात्कार साल के पहले दिन ही मोदी के सक्रिय होने का यह आभास देता है और एक ऐसे वर्ष में राजनीतिक बहस की दिशा तय करता है, जिसमें न केवल संसदीय चुनाव होने हैं, बल्कि जो देश और उनके खुद के राजनीतिक भविष्य के लिए महत्त्वपूर्ण है.

प्रेस को नजरअंदाज करने के लिए राहुल गांधी और यहां तक कि मनमोहन सिंह की भी आलोचना झेल रहे मोदी ने कुछ प्रश्नों का सामना करने की हिम्मत दिखाई है. हालांकि उन्होंने इस बात का ध्यान रखा है कि उनसे प्रश्न पूछने केदौरान लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण नहीं किया जाए. यह सच है कि मोदी को प्रेस की स्वतंत्रता कभी नहीं भाई है और मीडिया के बारे में वे कई तरह के दोहरे खयाल रखते रहे हैं.

उन्होंने अंग्रेजी/दिल्ली के प्रेस को हमेशा से ही अपने खिलाफ माना है और जिनके बारे में उनका कहना है कि यह प्रेस उन्हें “बाहरी” समझता है और कांग्रेस पार्टी और अन्य विपक्षी नेताओं के अलावा राष्ट्र-विरोधियों के साथ इसकी मिलीभगत है.

चतुर, रक्षात्मक, और टालमटोल करने वाले मोदी

इस साक्षात्कार में मोदी के जिस पक्ष से लोगों का साक्षात्कार हुआ वह 2014 का मोदी नहीं था. यह मोदी काफी रक्षात्मक लगा. प्रश्न पूछने की इजाजत देकर उन्होंने कई सारे सवाल जगा दिए और उन्होंने बहुत ही पेशेवराना अन्दाज में इसका सामना किया. ज्यादा असहज करने वाले सवालों को टाल गए (क्या आपको इमरान खान में कोई नेकनीयती दिखाई देती है, क्या आप इमरान खान के न्योते पर सार्क की बैठक में भाग लेने जाएंगे? - उन्होंने बाद वाले प्रश्न का तो जवाब दिया पर शुरू के प्रश्न को टाल दिया.)

बहुत ही सक्षम वक्ता होने की वजह से, मोदी ने हाल के विधानसभा चुनावों में हार से लेकर तीन तलाक पर अपनी सरकार के रुख पर जवाब दिया. सबरीमाला मुद्दा, पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक, राम मंदिर मामला- जिस पर उनकी सरकार इस समय बैक फुट पर है, नोटबंदी, जीएसटी, ग्रामीण क्षेत्रों में संकट और इससे जुड़े किसानों की कर्जमाफी और भीड़ की हिंसा जिसकी वजह से एक पुलिस वाले की हाल में जान चली गई, ऐसे तमाम सवालों का सामना किया.

राम मंदिर के चुनौती भरे मसले पर आरएसएस ने उनके साक्षात्कार के बाद जो बयान जारी किया, वह महत्त्वपूर्ण है. यह इस मसले पर संघ परिवार में जिस तरह का दोहरापन है, उसको दर्शाता है. एक स्तर पर आरएसएस ने कहा कि अयोध्या पर मोदी का बयान ‘मंदिर के निर्माण की दिशा में एक सकारात्मक कदम है.

दूसरी ओर, संगठन के कार्यकारी अध्यक्ष भैयाजी जोशी ने पिछले महीने हुई विश्व हिंदू परिषद की रैली में काफी कठोर भाषा का प्रयोग किया. खासकर सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा, “एक ऐसी परिस्थिति बनती है, जब लोगों को न्यायपालिका पर अविश्वास होने लगता है. यह संसद का कर्तव्य है कि वह राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रसस्त करे हम कोई भीख नहीं मांग रहे.”

कई अन्य बीजेपी नेताओं ने भी इसी तरह की बातें कही हैं, जिनमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी शामिल हैं.

दावत या चालबाजी?

इनकी रणनीति स्पष्ट है. मोदी और आरएसएस औपचारिक रूप से यह कहेंगें कि वे संवैधानिक आदेश का पालन करेंगे, लेकिन सामाजिक माहौल को बिगाड़ने वाले कुछ नेताओं को खुली छूट भी दे देंगे. यह इस बात का संकेत हैकि अगले आम चुनावों से पहले के सौ दिनों के दौरान समाज में ध्रुवीकरण के बारे में उनके विचार पूरी तरह से स्पष्ट हैं.

भीड़ की हिंसा के बारे में भी यही कहा जा सकता. इसके बारे में भी वे कहते हैं . क्या यह सब 2014 से शुरू हुआ? मोदी तो उस बात को दोहराते हैं जो उन्होंने और मोहन भागवत ने पहले कहा हुआ है, “इस तरह की बातें सभ्य समाज को शोभा नहीं देतीं. इस तरह की घटनाओं को किसी का समर्थन नहीं मिल सकता है. जो हो रहा है वह पूरी तरह से गलत है और यह नींदनीय है.”

लेकिन सवाल उठता है कि जब इस तरह की घटनाएं बार-बार हुईं, तो सरकार ने क्या किया? इस पर वे चुप्पी लगा जाते हैं, जो इस बात का संकेत है कि ऐसा करना रणनीतिक है कि इस तरह की घटनाओं की नींदा की जाए, पर इस हिंसा में शामिल लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करो, क्योंकि ये अपने ही कुनबे के हैं.

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मिशन 2019 की शुरुआत

यह देखना महत्त्वपूर्ण है कि मोदी मध्य वर्ग का समर्थन हासिल करने के लिए खास कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि इनके बारे में यह कहा जा रहा है कि ये बीजेपी के हाथ से कई कारणों से खिसक गए हैं. ये कारण हैं रोजगार का अभाव, नोटबंदी और जीएसटी को लागू करना.

मोदी का कहना है कि मध्यवर्ग कभी किसी के भरोसे नहीं रहता, (लेकिन) वह पूरी गरिमा से देश को चलाने में काफी योगदान देता है. मध्य वर्ग के बारे में सोचना हमारी जिम्मेदारी है, सिर्फ इसलिए नहीं कि वे हमें वोट देते हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि यह देश के लिए जरूरी है.

यह किसी रूठे हुए वफादार से सुलह करने और उसका खयाल रखने का वादा करने जैसा ही है. इस धड़े पर नजर रखना जरूरी है और चुनावी आदर्श संहिता के लागू होने के पहले मोदी इस वर्ग के लिए अपना पिटारा खोल सकते हैं.

स्पष्ट है कि आज जिस मोदी को हम देख रहे हैं, वह 2014 का वह मोदी नहीं है, जिसकी मुट्ठी में सब कुछ था और जो दूसरों को मुद्दों पर अपना रुख तय करने की ताकीद करता था. आज गेंद किसी अन्य के पाले में है.

पहले की तुलना में मोदी ने खुद को ज्यादा खोला है, यह बात खुद ही यह बताती है कि चीजें उनके हाथ से फिसल रही हैं. इस साक्षात्कार से मोदी ने अगले चुनाव की दशा और दिशा तय नहीं की है, बल्कि यह संकेत मिला है कि वह इसके प्रति चौकन्‍ने हैं.

साक्षात्कार के अंत तक आते-आते मोदी एक ऐसे नेता के रूप में दिखाई देते हैं, जो 2019 के लिए अभी भी अपने मुद्दों को तराशने में लगे हैं. उनको खुद को बार-बार यह समझाना पड़ता है कि उदासी को त्यागना जरूरी है. अपनी विचारधारा की आंच को कम किए बगैर सहानुभूतिपूर्ण चेहरे को फलक पर पसार पाना ही उनकी उपलब्धि है. आप यह उम्मीद लगा सकते हैं कि मोदी अभी अन्य कई साक्षात्कार के अनुरोध को मान सकते हैं.

(लेखक दिल्ली के पत्रकार हैं. उनकी लिखी पुस्तकें हैं : ‘The Demolition: India at the Crossroads’ और ‘Narendra Modi: The Man, The Times’. उनका ट्विटर हैंडल है @NilanjanUdwin. इस आर्टिकल में छपे विचार लेखक के हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

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