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मोदी से केजरीवाल तक भारत को बनाना चाहते हैं अव्वल, लेकिन नंबर 1 का मतलब क्या है?

भारत की प्रति व्यक्ति आय वैश्विक औसत का 20% भी नहीं है, वाकई में भारत को नंबर बनाना है तो करने होंगे 7 काम

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भारत के 75वें स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने मुनादी दी कि 2047 तक भारत को एक विकसित देश बनाना है. दो दिन बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) ने आह्वान दिया- भारत को “नंबर एक देश” बनाना है. यानी विकास के लॉलीपॉप ललचाया जा रहा है. तो, किसी देश को विकसित राष्ट्र किस तरह बनाया जा सकता है? “नंबर एक देश” होने का क्या मतलब है?

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भारत आज कहां है?

फिलहाल, वैश्विक जीडीपी लगभग 90 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है. भारत केवल 3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था है. वास्तव में उन्नत देशों की औसत प्रति व्यक्ति आय 50,000 अमेरिकी डॉलर से अधिक है. वैश्विक औसत प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 10000 अमेरिकी डॉलर से अधिक है. भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी केवल 2000 अमेरिकी डालर है. भारत की जनसंख्या विश्व जनसंख्या का 1/6 है, लेकिन वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का हिस्सा केवल 3% से थोड़ा अधिक है. भारत की प्रति व्यक्ति आय वैश्विक औसत का 20% भी नहीं है.

स्वतंत्रता के बाद, देशों के वर्गीकरण की संयुक्त राष्ट्र प्रणाली में भारत को 'सबसे कम विकसित देशों' (एलडीसी) में से एक कहा गया. विश्व बैंक के निम्न, मध्यम और उच्च आय वाले देशों के वर्गीकरण में हम 'निम्न आय वाले देश' (एलआईसी) बताए गए हैं.

भारत को मध्यम आय वाला देश बनने के लिए एलआईसी की श्रेणी से बाहर निकलने में पचास साल से अधिक लगेगा, अलबत्ता वह सिर्फ एक निम्न मध्यम आय वाला देश था. तो, अब भारत के लिए एक 'विकसित देश' की परिभाषा क्या हो सकती है, जब वैश्विक स्तर पर इसकी कोई स्वीकृत परिभाषा नहीं है?
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क्या जीडीपी विकास का भरोसेमंद संकेत है?

जीडीपी के मामले में भारत पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है. हम निश्चित तौर से अगले कुछ वर्षों में जर्मनी और जापान को पछाड़कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे. लेकिन क्या यह भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाता है? यहां तक ​​कि जब भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाता है, तब भी हम प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया के पहले सौ देशों में मुश्किल ही शामिल होंगे.

कुछ लोग सबसे बड़ी इकोनॉमी वाले टैग को विजय पताका के रूप में देखते हैं. यहां तक ​​कि वे 'नंबर एक' टैग को हासिल करने के लिए विश्व बैंक की परचेज पावर पैरिटी यानी क्रय शक्ति समता (पीपीपी) की पद्धति का भी सहारा लेते हैं. पीपीपी काफी त्रुटिपूर्ण अवधारणा है. यह मूल रूप से गरीबों की पहचान करने के लिए बनाया गया था और उसी तरह काम करता है. और यह भी कि इसके लिए जानबूझकर, एक निचली सीमा तय की गई है.

आप तेल या कंप्यूटर के लिए या उससे जुड़ी किसी भी चीज के लिए पीपीपी डॉलर में भुगतान नहीं करते हैं. पीपीपी के आधार पर जीडीपी का अनुमान लगाना, भ्रामक है. इसे कचरा पेटी में फेंक देना चाहिए.
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एक उच्च आय वाला देश (एचआईसी) एक विकसित देश हो सकता है. एचआईसी के लिए वर्तमान विश्व बैंक की मानदंड है, जहां प्रति व्यक्ति आय 13,000 अमेरिकी डॉलर से अधिक हो. चीन 40 वर्षों में अपनी जीडीपी को पांच गुना बढ़ाकर 16 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर कर सकता है. वह एचआईसी समुदाय की दहलीज पर खड़ा है. यहां तक पहुंचने के लिए भारत को अपनी प्रति व्यक्ति आय को छह से सात गुना बढ़ाना होगा. यह साफ तौर से अगले 25 वर्षों के भीतर असंभव लगता है.

आइए हम थोड़ा विनम्र होकर अपनी महत्वाकांक्षा को जाहिर करें. क्यों न सोचें कि 2030 के दरम्यान भारत को 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाया जाए या 2050 तक 25 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की? या, शायद, ज्यादा सही यह होगा कि प्रति व्यक्ति आय को 10,000 अमेरिकी डॉलर तक बढ़ाया जाए?

हम जो भी लक्ष्य तय करें, उसके लिए ज्यादा से ज्यादा मेहनत करनी होगी. कई मुश्किल नीतिगत पहल भी करनी होगी. केवल इच्छा और संकल्प से काम नहीं चलेगा. यहां सुधार के लिए कुछ सुझाव हैं.

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कृषि क्षेत्र में कायापलट की जरूरत है

भारत ने 1960 के दशक के दरम्यान हरित क्रांति को अच्छी तरह अपनाया था. उसके चलते हम खाद्य आयात से खाद्य निर्यातक देश बने. आज हम 60 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य के खाद्य उत्पादों का निर्यात और 30 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य के उत्पादों का आयात करते हैं. भारत वास्तव में कृषि में आत्मनिर्भर है.

हालांकि, न्यूनतम समर्थन मूल्य, इनपुट सब्सिडी (उर्वरक, बिजली, ऋण, बीज आदि) और मनरेगा के तहत गारंटीशुदा निम्न मजदूरी वाले रोजगार के नशे के बीच हमारे 20 करोड़ किसान और भूमिहीन श्रमिक गरीबी रेखा के नीचे, आय और खपत के बीच फंसे हुए हैं. उनकी आय को कई गुना बढ़ाने के लिए हमें एक और पहल करने की जरूरत है.

पहला, किसानों को नियंत्रणों, प्रतिबंधों और बाधाओं से मुक्त करने की आवश्यकता है. वे अपनी भूमि को पट्टे पर नहीं दे सकते, अपनी भूमि को गैर-कृषि भूमि में स्वतंत्र रूप से परिवर्तित नहीं कर सकते, आदिवासी और दलित/अनुसूचित जनजाति के किसान अपने समुदाय के बाहर अपनी जमीन नहीं बेच सकते, किसानों को अपनी उपज को रेगुलेटेड मंडियों में बेचना पड़ता है, और कहीं नहीं. वे स्वतंत्र रूप से उत्पादन/बिक्री के कॉन्ट्रैक्ट भी नहीं कर सकते. इन नियंत्रणों को खत्म करने की जरूरत है.

इसके अलावा भारत की आय कई गुना बढ़े, इसके लिए किसानों और भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को बड़ी संख्या में औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों में लगाया जाना चाहिए. अगर भारत यह सुनिश्चित कर सकता है कि 2047 में भारत के अधिकतम 10% श्रमिक, 10% जीडीपी का उत्पादन करते हों तो यह सचमुच किसानों की समृद्धि का संकेत होगा.
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वास्तविक औद्योगीकरण लाएं, निजी क्षेत्र को मुक्त करें

दूसरा, समाजवादी पैटर्न के युग में भारत के औद्योगीकरण की योजना बनाते समय हमने बहुत गलत राह पकड़ी. हम सार्वजनिक क्षेत्र पर बहुत अधिक निर्भर हुए. निजी उद्योगों को लाइसेंस-परमिट-कोटा राज में पिंजड़े में बंद कर दिया, जिससे उनके लिए फलने-फूलने के लिए बहुत कम जगह बची. इससे अकुशल सार्वजनिक क्षेत्र ने पूंजी का दोहन किया और क्रोनी कैपिटलिस्ट निजी क्षेत्र पनपना.

भारत ने असल में औद्योगीकरण किया ही नहीं. इसके कारण 1991 में नियंत्रणों में ढील देने के बावजूद मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र 15% जीडीपी पर टिका हुआ है.

पिछले कुछ सालों में कारोबारी सुगमता में भले ही सुधार हुआ हो, लेकिन व्यवसाय करने की लागत नहीं बढ़ी है. भारत अधिकांश औद्योगिक उत्पादों में विश्व स्तर पर गैर-प्रतिस्पर्धी बना हुआ है. इसीलिए मेक इन इंडिया, फेज-इन मैन्यूफैक्चरिंग, प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव, हाई टैरिफ प्रोटेक्शन आदि की घोषणा और कार्यान्वयन के बावजूद नतीजा यह निकला कि सिर्फ पीएलआई में ही सफलता मिली, चूंकि तकनीकी बढ़त और इनोवेशन की कमी थी. साफ देखा जा सकता है कि 95% से अधिक मोबाइल हैंडसेट बनाने वाली पांच चीनी कंपनियां हैं.

हमें निजी क्षेत्र को पीएलआई के जरिए सहारा देने की बजाय उसे पूरी तरह से मुक्त करना चाहिए. उसे विश्वव्यापी प्रतिस्पर्धा के थपेड़ों के बीच छोड़ देना चाहिए और उन्हें इस बात की इजाजत देनी चाहिए कि वे तकनीक को आयात कर सकें. भारत में व्यापार करने की लागत को प्रतिस्पर्धी बनाने की जरूरत है. उसे उसकी आर्थिक लागत पर बिजली, जमीन, ऋण और कर दिए जाने चाहिए, न कि क्रॉस सबसिडी और दूसरे तरीकों से.
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भारत सरकार को कुछ व्यवसायों से बाहर निकलने की जरूरत है

तीसरा, भारत सरकार को निजीकरण पर चर्चा करनी चाहिए. अब वह समय आ गया है. उसे बीमार और दिवालिया बीएसएनएल और एमटीएनएल को बचाने में सार्वजनिक धन बर्बाद करने की बजाय पूरे सार्वजनिक क्षेत्र को बेचना होगा. भारत में सार्वजनिक क्षेत्र अगले 25 वर्षों में समाप्त हो जाएगा क्योंकि यह नई प्रौद्योगिकियों में निवेश करने और गवर्नेंस की उत्पादक परंपराओं को अपनाने में असमर्थ है. सक्रिय निजीकरण और धीमे-धीमे गुमनाम होने के बीच का अंतर यह है कि सरकार निजीकरण के जरिए निवेश का एक अच्छा सौदा कर पाएगी, लेकिन अगर यह खुद ही अंतर्धान हो जाता है तो अरबों डॉलर डूब जाएंगे.

चौथा, वित्तीय क्षेत्र तीव्र और उत्पादक निवेश की कुंजी है. सरकार और आरबीआई वित्तीय बाजारों में एक कमजोर और नाकाबिल एंटिटी बनने की बजाय मुद्रा की आंतरिक और बाहरी स्थिरता के प्रबंधन पर ध्यान लगाए, औऱ नए जमाने की फिनटेक, डिजिटल बैंकिंग, उद्यम पूंजी और मुद्राओं के लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाए.

भारत सरकार को बैंकों, बीमा कंपनियों और आईआईएफसीएल और एनएबीएफआईडी जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनांसिंग संस्थानों को चलाने के कारोबार से बाहर निकलने की जरूरत है. पारंपरिक कृषि और औद्योगिक अर्थव्यवस्था से हटकर इंफ्रास्ट्रक्चर, डिजिटल अर्थव्यवस्था और पर्यावरणीय अर्थव्यवस्था में दाखिल होने से वैल्यू क्रिएशन होगा. ये क्षेत्र मुश्किल व्यवसाय हैं, जोकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से अलग हैं, चूंकि वहां जोखिम से बचने की कोशिश की जाती है.
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भारत को इंफ्रास्ट्रक्चर में तुरंत निवेश करने की जरूरत है

पांचवां, भारत में बुनियादी ढांचे-भौतिक और डिजिटल- की बड़ी कमी है. उसे इस कमी को जल्द से जल्द दूर करना चाहिए. वर्तमान नीतियां और निवेश ढांचा, कुछ क्षेत्रों को छोड़कर, इस बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए बहुत अधिक अनुकूल नहीं हैं. सरकार को एक बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर एजेंडा की योजना बनानी होगी- 10,000 किलोमीटर हाई स्पीड रेलवे का निर्माण, 25,000 किलोमीटर 6/8 लेन एक्सप्रेसवे, रीन्यूएबल मोड में 50-60% बिजली उत्पादन, पहले दर्जे के स्कूल/अस्पताल और अन्य सामाजिक बुनियादी ढांचे, राष्ट्रीय जल ग्रिड, वगैरह. निजी क्षेत्र इन सबका निर्माण करे, और भारत सरकार इस सिलसिले में व्यापक वायबिलिटी गैप फंडिंग करे.

छठा, भारत और उसके निवासियों की आर्थिक उन्नति का भविष्य डिजिटल अर्थव्यवस्था पर टिका हुआ है. डिजिटल अर्थव्यवस्था के चार प्रमुख हिस्सों-चिप्स, कोड, नेटवर्क और सेवाओं में से हम केवल सेवाओं में ही अच्छे रहे हैं. हमारे अपने इस्तेमाल के लिए चिप्स का शत प्रतिशत आयात करते हैं. सेमी-कंडक्टर फैब्रिकेशन में भी हम कहीं नहीं हैं. हाल में ही में हमने सॉफ्टवेयर/कोड में अपनी पहचान बनानी शुरू की है.

अपनी नीतियों की बदौलत हम राष्ट्रीय और विश्व स्तर के डिजिटल नेटवर्क का निर्माण नहीं कर पाए हैं. आने वाले वक्त में कम्यूनिकेश सोशल मीडिया पर निर्भर होगा लेकिन यह सब विदेशी हाथों में है. अगर हम एक मजबूत डिजिटल अर्थव्यवस्था का निर्माण करना चाहते हैं, तो हमें अपनी डेटा नीतियों और ई-कॉमर्स नीतियों को सही करना होगा. डिजिटल टेक्नोलॉजी के आयात और निवेश के प्रति खुला रवैया रखना होगा. वरना, 1950-1980 की तरह, हम सिर्फ बाकी देशों के पिछलग्गू बने रहेंगे, डिजिटल अर्थव्यवस्था में अगुवाई कभी नहीं कर पाएंगे.
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आखिर में, यह सब बेहतर जिंदगीके लिए है

सातवां, हमारी सिर्फ कमाई ज्यादा नहीं होनी चाहिए, बेहतर जिंदगी का सपना भी देखा जाना चाहिए. आज हवा, पानी, जमीन सभी प्रदूषित हैं और जीवन की क्वालिटी खराब हो रही है. अगर दिल्ली का पीएम 2.5 मिलीग्राम की सुरक्षित सीमा से 22 गुना बढ़ गया है, और वह दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर हो चुका है तो भारत एक स्वस्थ और समृद्ध देश कैसे बन सकता है. हमें प्रदूषण और कार्बन नियंत्रण पर खास ध्यान देना होगा. प्रदूषण नियंत्रण भारत सरकार की सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक नीति और उद्देश्य बनना चाहिए.

लोक निर्माण विभाग सड़कों का निर्माण करे, इसकी बजाय सरकार में वह इंजीनियरिंग क्षमता विकसित की जानी चाहिए जो हमारे शहरों, गांवों, नदियों, झीलों और दूसरे जल स्रोतों को स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त बनाए. समय आ गया है, जब ऐसे उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए जो गैर-प्रदूषणकारी उत्पाद बनाते हों और कचरे को उत्पादक रूप से इस्तेमाल करें ताकि सर्कुलर इकोनॉमी का निर्माण हो. उन पवन, सौर और दूसरे नॉन फॉसिल फ्यूल उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए जो हमारे घरों और मशीनों को चलाने के लिए बिजली पैदा करें. इस बदलाव से भारत ग्लोबल कार्बन फुटप्रिंट को नियंत्रित करने में अपना योगदान दे सकेगा.

सपने जरूर देखने चाहिए. वादे भी करने चाहिए. लेकिन सपनों को साकार करने और वादों को पूरा करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है और बहुत सारे मुश्किल फैसले करने पड़ते हैं.

(सुभाष चंद्र गर्ग SUBHANJALI के मुख्य नीति सलाहकार, The $10 Trillion Dream के लेखक और भारत सरकार के पूर्व वित्त और आर्थिक मामलों के सचिव हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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