भारत ने ऊंची शख्सियत को खो दिया है.
यूं प्रणब मुखर्जी कद में ऊंचे नहीं थे- सिर्फ 5 फीट, 4 इंच के थे. वैसे भारतीय मानदंडों के हिसाब से इतनी लंबाई कोई कम नहीं है, लेकिन उनका कद बहुत ज्यादा नहीं लगता था. चाहे वह बंगाली भद्रलोक की तरह धोती पहनें या बंदगला और ट्राउजर. लेकिन भारतीय राजनीति में अपने समकालीनों की तुलना में उनका कद बहुत ऊंचा था.
इंदिरा के जाते ही राजीव की आंखों में खटक गए थे
उनका संसदीय जीवन 37 साल का था, जिसकी शुरुआत 1969 में हुई थी. लगता है, एक अरसा हो गया. जब प्रणब मुखर्जी 34 साल के थे, तब इंदिरा गांधी ने उन्हें कांग्रेस के लिए चुना था. उसी साल कांग्रेस दो फाड़ हुई थी. इंदिरा गांधी ने अपने गुट के साथ नई पार्टी बनाई थी. इरादा अपनी पार्टी को सोशलिस्ट ओरिएंटेशन देना था. प्रणब मुखर्जी जीवन भर सोशलिस्ट बने रहे, हालांकि वह कभी अपनी विचारधारा को लेकर कट्टर नहीं रहे.
उनके पास लगभग सभी बड़े मंत्रालय रहे- वित्त, रक्षा, विदेशी मामले और वाणिज्य. वह योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे, जोकि एक दौर में काफी प्रभावशाली संस्था थी. आज के नीति आयोग की तरह नहीं, जिसे बेदम और बेअसर कर दिया गया है.
उन्होंने कांग्रेस के चार प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया- इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पीवी नरसिंह राव और डॉ. मनमोहन सिंह. हालांकि वह खुद प्रधानमंत्री नहीं रहे लेकिन यूपीए एक और यूपीए दो में उनका राजनैतिक कद डॉ. सिंह से कमतर भी नहीं रहा.
कांग्रेस के भीतर भी उनका कद ऊंचा ही रहा. पार्टी में वह आला दर्जे के सलाहकार बने रहे और उनके मशविरे का हर बड़ा नेता सम्मान करता था.
इतिहास तो मानो उन्होंने घोंटकर पिया था. उनकी विलक्षण बुद्धि का ही नतीजा था कि अपने साथियों के बीच वह भरोसमंद और सम्मानजनक शख्सीयत बन गए, इसके बावजूद कि उनका राजनीतिक सफर कई बार डगमगाया. इंदिरा गांधी की त्रासद हत्या के बाद 1985 में राजीव गांधी ने उन्हें अपने कैबिनेट में शामिल नहीं किया, वह सबसे बड़ा गतिरोध था. प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब द टरबुलेंट ईयर्स: 1980-1996 में इसका जिक्र कुछ यूं किया है:
“मैं सिर्फ यही कह सकता हूं कि उन्होंने गलती की और मैंने भी. वह दूसरों के प्रभाव में आ गए और उनकी चुगलियों पर विश्वास किया. मैंने धैर्य का दामन छोड़ दिया और कुंठा को हावी होने दिया.”
वह ‘एक्सिडेंटल प्रेसिडेट’ नहीं थे
उनकी जिंदगी का वह गौरव भरा पल था, जब उन्हें 2012 में भारत का राष्ट्रपति चुना गया. उनके पास विस्तृत अनुभव और अपार ज्ञान था. समाज, राजनीति और भारत में शासन प्रणाली की जटिलताओं की संतुलित समझ थी जिसके लिए लगातार संविधान के पन्नों को खंगाला जाता है. प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति पद पर इन सभी विशेषताओं के साथ विराजमान हुए. संविधान के रक्षक के रूप में उन्होंने पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ अपनी जिम्मेदारियां निभाईं. इसके साथ ही दो धुर विपरीत चारित्रिक विशेषताओं वाले प्रधानमंत्रियों डॉ. सिंह और नरेंद्र मोदी से सम्मान अर्जित किया. नरेंद्र मोदी तो उस पार्टी के मुखिया हैं जिसका प्रणब मुखर्जी एक प्रतिबद्ध कांग्रेसी के तौर पर सालों तक मजबूती से विरोध करते रहे.
बेशक, वह डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की तरह जनप्रिय नहीं थे. लेकिन वैज्ञानिक कलाम एक एक्सीडेंटल प्रेसिडेंट थे जिन्होंने इस अवसर का बेहतरीन तरीके से उपयोग किया था.
प्रणब दा एक अलग किस्म के व्यक्ति थे. राजनीतिज्ञ होने पर भी उन्होंने लोगों को खुश करने की कभी कोशिश न की. पार्टी के भीतर, कैबिनेट की बैठकों और संसदीय बहस में हमेशा बेहिचक अपनी बात कही. राष्ट्रपति के तौर पर भी उन्होंने गणतंत्र के इस सर्वोच्च पद को अपने अनुभवों से समृद्ध किया.
सरकार को चेताया भी
भारत के राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में देश की राजधानी का एक बड़ा भूभाग आता है. लेकिन असल में देश को चलाना उसके अधिकार क्षेत्र का हिस्सा नहीं. संविधान में उसके अधिकार बहुत सीमित हैं. उस बात की भी सीमा तय है कि वह सार्वजनिक तौर पर क्या कह सकता है और क्या नहीं. इसके बावजूद प्रणब मुखर्जी ने कई मौकों पर सरकार को चेताया, समाज को भी- जब भी भारत के गणतंत्रीय मूल्यों पर आंच आई. उन्होंने कई बार चेतावनी दी कि हमारे समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है. उन्होंने अभिव्यक्ति और बहस की आजादी के महत्व पर बल दिया.
स्वतंत्र प्रेस के बिना लोकतंत्र कागज के खाली टुकड़े की तरह है
25 मई, 2017 को रामनाथ गोयनका मेमोरियल लेक्चर में उन्होंने कई सच्चाइयों को बयान किया.
उन्होंने लगातार यह चेताया कि संसद और राज्य विधानसभाओं में बहस का स्तर गिर रहा है. इस तरह वह याद दिलाने की कोशिश करते रहे कि भारत में लोकतंत्र सही तरीके से काम नहीं कर रहा. वह खुद एक समर्पित सांसद थे, इसीलिए कई मौकों पर चिंता और गुस्सा जाहिर कर रहे थे. 23 जून, 2017 को संसद के दोनों सदनों से विदा लेते हुए उन्होंने कहा था:
“जब संसद कानून बनाने के अपने काम में असफल रहती है या बिना बहस के कानून लागू करती है तो मेरे हिसाब से वह इस महान देश की जनता के साथ विश्वासघात करती है जिसने उस पर अपना भरोसा जताया है.” उन्होंने कार्यपालिका की इस आदत पर नाखुशी जाहिर की थी कि वह अध्यादेश बनाने के अधिकार का दुरुपयोग कर रही है. उन्होंने कहा था, “उसे सिर्फ विशेष परिस्थितियों में इसका साधन का इस्तेमाल करना चाहिए और आर्थिक मामलों में अध्यादेश का सहारा नहीं लेना चाहिए.”
प्रधानमंत्री मोदी प्रणब दा से क्या सीख सकते हैं
प्रणव मुखर्जी का विदाई भाषण दो और कारणों से उल्लेखनीय था. पहला, उस व्यापक सोच के लिए जो उन्होंने सभी राजनीतिक पार्टियों के दिग्गजों को श्रद्धांजलि देते हुए प्रदर्शित की थी. उन्होंने याद किया था:
क्या हमें कोई ऐसा मौका याद है जब प्रधानमंत्री मोदी ने अतीत या वर्तमान के विपक्षी नेताओं, खासकर कांग्रेसी नेताओं की महानता की इतनी सच्चाई के साथ सराहना की है?
दूसरी तरफ इंदिरा गांधी की मिसाल देते हुए उन्होंने उन नेताओं को संदेश दिया जो यह समझते हैं कि वे कभी गलतियां नहीं करते.
जो कोई भी अपने और दूसरों के अनुभवों से सीखना चाहता है, गलतियों से बचना चाहता है और यह पाठ दोहराना चाहता है, उसके लिए लोकतंत्र ही सबसे बड़ा उस्ताद है. वह हठधर्मिता को तोड़ता है, अहंकार को शांत करता है और राजनेताओं को उस गहरे सच को समझने के लिए प्रेरित करता है जिसे लेनिन गथा रचित ट्रैजिडी फाउस्ट के पात्र मेफिस्टोफिलिस के हवाले से कहा करते थे: ‘मेरे दोस्त सिद्धांत भूरा होता है लेकिन हरा जीवन के शाश्वत शाख का रंग है’.
प्रणब मुखर्जी ने दर्शाया था कि वह शाश्वत और सदाबहार ‘जीवन के शाख’ से सीखने का माद्दा रखते हैं. अपनी समाजवादी प्रतिबद्धता के बावजूद वह डेंग जियाओपिंग के जबरदस्त प्रशंसक थे जिनके बाजारोन्मुखी साहसिक सुधारों ने चीन के आर्थिक विकास में बड़ी भूमिका निभाई थी. अस्सी के दशक में उन्होंने व्यापार जगत सहित निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की जरूरत महसूस की. वह धीरूभाई अंबानी को काफी पसंद करते थे जिनमें उन्हें राष्ट्रीय विकास के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विश्व स्तरीय उद्यमों के विकास की क्षमता नजर आती थी.
हालांकि यह उनकी, कांग्रेस और पूरे देश की नाकामी थी कि देश ‘भारतीय विशेषताओं वाले समाजवाद’ का लक्ष्य हासिल करने के लिए दीर्घकालीन और राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य वैचारिक ढांचा तैयार नहीं कर पाया. इसी वजह से भारत में आर्थिक और राजनैतिक सुधारों की प्रगति इतनी धीमी और असंतुलित रही और सामाजिक न्याय और समतावाद के लिए कोई मजबूत प्रतिबद्धता नजर नहीं आई.
प्रणब मुखर्जी का आरएसएस मुख्यालय जाना
2017 में राष्ट्रपति भवन से जाने के बाद प्रणब मुखर्जी ने एक और साहसिक कदम बढ़ाया. वह 7 जून 2018 को आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत के बुलावे पर नागपुर स्थिति संगठन के मुख्यालय पहुंचे. कई लोगों की भौंहें तन गईं जब उन्होंने आरएसएस के संस्थापक डॉ. के. बी. हेडगेवर को ‘भारत माता का महान पुत्र’ कहा. लेकिन उन्होंने अपने भाषण राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रभक्ति के जरिए अपने आलोचकों का मुंह बंद कर दिया.
अपने भाषण के जरिए इस विषय पर उन्होंने जो बहस छेड़ी, उसने भारतीय नेताओं और विचारकों के बीच विवाद पैदा कर दिया. भागवत और आरएसएस के स्वयंसेवक उनकी बात सुन रहे थे और पूरा देश उन्हें टीवी पर लाइव देख रहा था. उन्होंने कहा कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ भारतीय सभ्यता और संविधान के आधारभूत स्तंभों में से एक है और ‘हिंदू राष्ट्र’ के रूप में भारत को पहचानने वाले संघ का असरदार तरीके से विरोध किया. इसका सबूत उनके भाषण के इन हिस्सों से मिल सकता है
अंत में अर्थशास्त्र में कौटिल्य के श्लोक को उद्धृत किया जोकि संसद में लिफ्ट नंबर 6 के पास लिखा है, प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् . नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ..
प्रणब मुखर्जी ने आधुनिक भारतीय राज्य के मूलभूत कर्तव्य और प्राथमिकता का उल्लेख किया था:
जनता के सुख में ही राजा का सुख है, प्रजा का कल्याण ही राजा का कल्याण है... राज्य की हर गतिविधि के केंद्र में नागरिक हैं, नागरिकों में भेदभाव पैदा करने वाला या उन्हें बांटने वाला कोई काम नहीं किया जाना चाहिए. राज्य का लक्ष्य होना चाहिए कि वह लोगों को गरीबी, बीमारी और तकलीफों से मुक्त कराने में ऊर्जा लगाए, और आर्थिक वृद्धि को सच्चे विकास में बदल दे. आइए शांति, समन्वय और खुशहाली को अपनी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा बनाएं, और इसी के जरिए हमारे राष्ट्र के सभी कार्यकलाप और आम नागरिकों का जीवन चले.
मुखर्जी-आडवाणी की पहल पर कांग्रेस-आरएसएस का संवाद
जब मैं प्रणब मुखर्जी के जीवन के महत्वपूर्ण पड़ावों की ओर देखता हूं तो मुझे इस बात की खुशी होती है कि मैं उन चंद लोगों में से एक हूं जिन्होंने उनके आरएसएस मुख्यालय जाने से पहले और उसके बाद भी उनकी तारीफ की थी. इंडियन एक्सप्रेस के अपने आर्टिकल में मैंने लिखा था कि “प्रणब मुखर्जी की नागपुर की प्रस्तावित यात्रा राहुल गांधी के लिए एक सबक है. संघ को वामपंथी नजरिए से मत देखिए.” उनके दौरे के बाद मैंने लिखा था- “राहुल और भागवत को जरूरत बात करनी चाहिए”, साथ ही लिखा था कि “दोनों के बीच के संवाद से धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता की बहस कमजोर हो सकती है.”
मैंने द क्विंट पर एक दूसरा आर्टिकल लिखा था जिसमें यह स्पष्ट किया था कि “आरएसएस मुख्यालय में गांधीवादी प्रणब और आधे नेहरूवादी भागवत, दोनों विजयी रहे.”
इस श्रद्धांजलि में मुझे एक व्यक्तिगत टिप्पणी जोड़नी चाहिए.
बीजेपी से मेरा लंबा रिश्ता रहा है और मैंने एल के आडवाणी के साथ काफी काम किया है. मैं कह सकता हूं कि आज आडवाणी जी बहुत अधिक दुखी होंगे क्योंकि उन्होंने आज एक ऐसे व्यक्ति को खोया है जिसके लिए उनके मन में गहरा सम्मान था और प्रणब दा भी उन्हें वैसा ही सम्मान देते थे.
मई 2013 में मैं बहुत खुश था क्योंकि प्रणब मुखर्जी ने मुंबई में ऑबजर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) के एक समारोह में आने का मेरा निमंत्रण मंजूर कर लिया था. मैं इस संगठन के साथ जुड़ा हुआ हूं. 1893 में स्वामी विवेकानंद शिकागो में विश्व धर्म संसद में भाग लेने गए थे. इस ऐतिहासिक घटना के 120 साल पूरे होने पर यह समारोह आयोजित किया गया था.
प्रणब दा रामाकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के भक्त थे और उन्होंने इस मौके पर बहुत शानदार भाषण दिया था.
पिछले साल नई दिल्ली में 10 राजाजी मार्ग स्थित उनके आवास पर मेरी उनसे लंबी बातचीत हुई जो मुझे खास तौर से याद है. मैंने उन्हें बधाई दी कि उन्होंने आरएसएस और उसके सैद्धांतिक विरोधियों के बीच सेतु बनने की कोशिश की. मैंने उनसे कहा, ‘राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय प्रगति के लिए यह संवाद महत्वपूर्ण है. अब आप और आडवाणी जी इस मिशन को आगे बढ़ाएं और मोहन भागवत जी और कांग्रेसी नेताओं के बीच संवाद की शुरुआत करें.’ उन्होंने इस सुझाव का स्वागत किया. उन्होंने मेरी इस बात को भी ध्यान से सुना कि दक्षिण एशिया के लिए बेहतर भविष्य रचने में भारत को बड़ी भूमिका निभानी चाहिए.
मैंने कहा था कि इसके लिए कश्मीर के मुद्दे को नए सिरे से सुलझाने की जरूरत है ताकि भारत और पाकिस्तान के संबंध सामान्य हो सकें. साथ ही भारत और चीन के बीच भी व्यापक समन्वय कायम होना चाहिए. उन्होंने कहा: “यह मुद्दा मेरे दिल के बहुत करीब है. मैं इस दिशा में काम कर रहा हूं. न सिर्फ भारत-पाकिस्तान, बल्कि हमें भारत-बांग्लादेश के संबंधों को भी सुधारना चाहिए. इसके बाद पुलवामा और बालाकोट हो गया और फिर सीएए, एनआरसी और कोविड संकट आ गया. कोविड के कारण प्रणब दा ने दुनिया को अलविदा कर दिया.”
और वह आला दर्जे का शख्स हमें बिलखता छोड़ गया.
(लेखक ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक के तौर पर कार्य किया है. वह ‘फोरम फॉर अ न्यू साउथ एशिया- पावर्ड बाय इंडिया-पाकिस्तान-चीन कोऑपरेशन’ के संस्थापक हैं. @SudheenKulkarni लेखक का ट्विटर हैंडल है और उनका ईमेल एड्रेस sudheenkulkarni@gmail.com है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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