ऐसे समय में जब सुप्रीम कोर्ट की ओर से बेजा जनहित याचिका लगाने वाले वकीलों पर जुर्माना लगाया जा रहा हो, तब वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण कानून के इस शक्तिशाली साधन का इस्तेमाल अपनी लड़ाई लड़ने में कर रहे हैं. हालांकि भ्रष्टाचार के खिलाफ भूषण की इस मुहिम से सत्ता के गलियारों में उन्होंने प्रशंसकों से ज्यादा अपने आलोचक बनाए हैं.
वकील के रूप में अपने तीन दशक के अनुभव में प्रशांत भूषण ने सरकार से लेकर न्यायपालिका तक को आड़े हाथों लिया है. गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में अवमानना के एक मामले में वरिष्ठ वकील ने सजा से बचने के लिए माफी मांगने से इनकार कर दिया. ऐसा पहली बार नहीं है, जब वह सुप्रीम कोर्ट के साथ सीधे टकराव की मुद्रा में हों.
मौजूदा अवमानना केस, वास्तव में न्यायपालिका के ऊंचे हलकों की जवाबदेही के लिए उनकी दशक भर की लड़ाई का नतीजा भी है.
यह मामला हालिया ट्वीट से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने भारत के मौजूदा चीफ जस्टिस एसए बोबडे की आलोचना की थी और 2009 का वह इंटरव्यू है, जिसमें उन्होंने 16 पूर्व सीजेआई में से आधे लोगों को "भ्रष्ट' बताया था.
सुप्रीम कोर्ट और भूषण
नवंबर 2017 की बात है. प्रशांत भूषण उस वक्त तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अदालत से बाहर चले गए थे. तब जस्टिस मिश्रा की अध्यक्षता वाली एक संविधान बेंच जजों पर घूस लेने के आरोपों की सुनवाई कर रही थी. इन जजों पर मेडिकल कॉलेज प्रवेश घोटाले में आरोपियों के हक में फैसला सुनाने का आरोप लगा था, इसकी जांच सीबीआई कर रही थी.
यह पहली बार नहीं था, जब प्रशांत भूषण की सुप्रीम कोर्ट के जजों के साथ तीखी बहस हुई हो.
सुप्रीम कोर्ट में न्यायिक जवाबदेही को बहाल करने के लिए प्रशांत ने 1998 में अपने पिता और पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण और अन्य वकीलों के साथ एक कमेटी का गठन किया था. इस कमेटी का काम सुप्रीम कोर्ट में न्यायिक जवाबदेही और पारदर्शिता लाना था. कमेटी ने जस्टिस एमएम पंछी पर महाभियोग चलाने के लिए एक आरोप पत्र तैयार किया और उस पर 25 राज्यसभा सांसदों के हस्ताक्षर हासिल किए. लेकिन तब जस्टिस पंछी को सीजेआई नियुक्त किए जाने के बाद मामला ठंडे बस्ते में चला गया. तब से प्रशांत भूषण न्यायिक जवाबदेही और व्यवस्था में सुधारों को लेकर अभियान की अगुवाई करते रहे हैं.
जजों के कामकाज में जवाबदेही और पारदर्शिता की बात करते हुए भूषण ने 2009 में आरटीआई कार्यकर्ता एससी अग्रवाल का केस सफलतापूर्वक लड़ा. इसका नतीजा ये हुआ कि जजों को कोर्ट की वेबसाइट्स पर अपनी संपत्ति का ब्यौरा देना पड़ा.
संसद में जस्टिस पीडी दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव के नोटिस के पीछे भी भूषण ही थे. इसके चलते 2011 में जस्टिस दिनाकरन का इस्तीफा हो गया.
राजनेताओं और कॉरपोरेट घरानों से रखी दूरी
2012 में आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में रहे प्रशांत भूषण भले ही पूर्व कानून मंत्री के बेटे हैं, लेकिन उन्होंने नेताओं से हमेशा ही दूरी बनाए रखी.
चाहे वह कांग्रेस समर्थक हों, बीजेपी या दक्षिणपंथी कार्यकर्ता हों या फिर वामपंथी उदारवादी. प्रशांत भूषण ने बीते सालों में लोगों के गंभीर मुद्दे उठाकर सभी विचारधाराओं का कड़ा विरोध झेला है.
2जी स्पैक्ट्रम घोटाला, राडिया टेप्स, कोयला घोटाला और मुख्य सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) पीजे थॉमस की नियुक्ति पर उनकी जनहित याचिकाओं (पीआईएल) ने यूपीए सरकार की नाक में दम कर दिया था.
सितंबर 2011 में भूषण ने तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के लिए आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदेही तय करने के लिए मनमोहन सरकार के महत्वाकांक्षी न्यूक्लियर प्रोग्राम के खिलाफ भी याचिका दायर की थी. प्रशांत भूषण की अगुवाई वाला इंडिया अंगेस्ट करप्शन अभियान कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ.
बीजेपी और दक्षिणपंथियों के लिए ‘पंचिंग बैग’
प्रशांत भूषण बीजेपी और दक्षिणपंथी समर्थकों के लिए पंचिंग बैग रहे हैं. उन्होंने 1995 में नर्मदा बचाओ आंदोलन के फैसले के बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से झगड़ा मोल ले लिया था. वह गोधरा दंगों के मामलों में कोर्ट के लिए निष्पक्ष सलाहकार की भूमिका रह चुके हैं.
कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात हो, आदिवासियों की मांगों पर आवाज उठाना हो, नक्सलियों के फर्जी मुठभेड़ पर चिंता जताना हो, विवादित अफस्पा (AFSPA) को वापस लेना हो और यहां तक कि लेखक और कार्यकर्ता अरुंधति रॉय का वकील बनना हो, इन सभी मामलों में प्रशांत को बीजेपी समर्थकों और दक्षिणपंथियों का पुरजोर विरोध झेलना पड़ा.
उनके इंडिया अंगेस्ट करप्शन अभियान का समापन आम आदमी पार्टी के उदय से हुआ. प्रशांत भूषण को अपने कई दोस्तों से अरविंद केजरीवाल के साथ राजनीतिक पार्टी बनाने को लेकर विरोध झेलना पड़ा. उन पर ये हमले 2015 तक जारी रहे, जब तक उन्हें मार्च 2015 में पार्टी से निकाल नहीं दिया गया.
जब प्रशांत भूषण ने 1983 में दून घाटी में चूना पत्थर की खदानों पर अपनी पहली जनहित याचिका दायर की थी, तब से ही वह कॉरपोरेट घरानों के साथ सीधे टकराव में हैं.
2जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में, उन्होंने रतन टाटा, अनिल अंबानी और अन्य शीर्ष उद्योगपतियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की मांग की. उन्होंने तेलंगाना पर श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट का विरोध करते हुए आरोप लगाया कि कॉरपोरेट घरानों ने शर्तों को निर्धारित किया है. वह अक्सर जमीन के अधिकार, पर्यावरण संबंधी चिंताओं और औद्योगिक परियोजनाओं और विकास से प्रभावित लोगों के पुनर्वास जैसे मुद्दों को उठाने के लिए कॉरपोरेट दिग्गजों से सीधे भिड़ते रहे हैं.
प्रशांत भूषण: आम आदमी के वकील
अगर देश में कोई वकील है, जो जनहित याचिकाओं की ताकत को सच्चे मायने में समझता हो तो वह प्रशांत भूषण ही हैं. पीआईएल को पहली बार 1986 में जस्टिस पीएन भगवती ने शुरू किया था. तब से प्रशांत अब तक 500 के करीब पीआईएल दायर कर चुके हैं.
1983 में, मशहूर पर्यावरण कार्यकर्ता वंदना शिवा, प्रशांत भूषण के साथ खनन मामले को देखने दून घाटी आई थीं. यह भूषण की पहली पीआईएल थी. 1984 में दिल्ली में हुए सिख विरोधी दंगे के बाद उन्होंने पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज (पीयूसीएल) ज्वाइन किया और दंगा पीड़ितों के केस लड़े. तब से भूषण निचले तबके और गरीबों तक पैठ बनाते आ रहे हैं और उनके केस लड़ते रहे हैं.
1988 में, मुआवजे को लेकर भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों की लड़ाई पहली बार सुप्रीम कोर्ट पहुंची और भूषण अपनी सेवा देने के लिए वहां तैयार थे.
तमिलनाडु के किसानों की दुर्दशा से लेकर कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन तक, प्रशांत भूषण ने लगभग सभी प्रमुख लोगों के मुद्दों को उठाया है.
प्रशांत भूषण: "ड्रॉप आउट' से बने नामी वकील
प्रशांत भूषण ने आईआईटी मद्रास में दाखिला लिया, लेकिन एक सेमेस्टर के बाद ही उसे छोड़ दिया. फिर फिलॉसफी, इकनॉमिक्स, पॉलिटिकल साइंस में दो साल का बीएससी कोर्स करने लगे. फिलॉसफी में उच्च शिक्षा के लिए वह प्रिंसटन यूनिवर्सिटी तो गए, लेकिन खत्म किए बिना ही भारत लौट आए. बाद में 1983 में उन्होंने वकील के तौर पर अपना करियर शुरू किया.
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव मामले की सुनवाई के दौरान प्रशांत भूषण एक अंडर ग्रेजुएट स्टूडेंट थे. उनके पिता शांति भूषण राज नारायण की ओर से इंदिरा गांधी के खिलाफ केस लड़ रहे थे. इस दौरान प्रशांत को सुनवाई में हिस्सा लेने का मौका मिला. इस हाई प्रोफाइल केस से प्रेरित होकर भूषण ने स्टूडेंट रहते हुए 1978 में अपनी पहली किताब "द केस दैट शूक इंडिया' लिखी. दूसरी किताब उन्होंने 1990 में बोफोर्स कांड पर लिखी, जिसका नाम था बोफोर्स, द सेलिंग ऑफ नेशन.
(सहस्रांशु महापात्रा दिल्ली में पत्रकार हैं. वह कानूनी और राजनीतिक मुद्दे पर लिखते हैं. सीएलसी, डीयू के पूर्व छात्र हैं. उनका ट्विटर हैंडल @sahas है. ये लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है. )
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