शिवसेना का प्रथम ठाकरे परिवार आम तौर पर महाराष्ट्र की सीमा से बाहर नहीं निकलता है. हिन्दुत्व पर अपनी आक्रामकता और 1990 में राम जन्मभूमि आंदोलन को समर्थन देने के बावजूद स्वर्गीय बाल ठाकरे ने कभी अयोध्या में कदम नहीं रखा.
उनके बेटे और पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे ने पूरे महाराष्ट्र में अपने पिता से कहीं ज्यादा यात्राएं की हैं, लेकिन 52 साल की यह पार्टी बमुश्किल राष्ट्रीय प्रोफाइल बना सकी है. बीते हफ्ताहांत इस स्थिति में बदलाव हुआ है.
पत्नी रश्मि के साथ उद्धव ठाकरे, बेटे व राजनीतिक उत्तराधिकारी आदित्य, पार्टी सांसद संजय राऊत व अनिल देसाई और बड़ी संख्या में दूसरी पंक्ति के नेता अयोध्या पहुंचे ताकि राम मंदिर निर्माण की तारीख घोषित की जा सके.
दो विशेष रिजर्व ट्रेनें भी शिवसैनिकों को लेकर अयोध्या शहर पहुंचीं. आम श्रद्धालु पर्यटकों की तरह ठाकरे परिवार भी लक्ष्मण किला पहुंचा. वहां सरयू नदी के किनारे प्रार्थनाएं कीं, विवादित परिसर में पूजा की और रामलला का आशीर्वाद लिया.
ठाकरे शिवनेरी से मिट्टी लेकर पहुंचे थे, जहां 17वीं शताब्दी का किला है और जो छत्रपति शिवाजी का जन्म स्थल माना जाता है. उन्होंने राम जन्मभूमि न्यास के महंत नृत्य गोपाल दास को प्रतीकात्मक चांदी की ईंट भी दी और एक रैली को संबोधित किया.
शिवसैनिकों की विशाल उपस्थिति और अयोध्या में 25 नवम्बर को विश्व हिन्दू परिषद के धर्म संसद की तारीख अलग-अलग थी. 2019 में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के मद्देनजर योजना बनाते समय यह सतर्कता बरती गयी थी.
दो दिवसीय दौरे के दौरान ठाकरे ने तगड़ा माहौल बनाया. 30 साल से बीजेपी की वैचारिक सहयोगी और महाराष्ट्र सरकार में साझीदार रही शिवसेना के निशाने पर थी एक मात्र बीजेपी. ये हैं अयोध्या में उनके कुछ बयान :
“हर हिन्दू की यही पुकार, पहले मंदिर फिर सरकार”
“जो लोग मंदिर की बात करते हैं उन्होंने वास्तव में श्रीराम को निर्वासन में भेज दिया है...मैं कुम्भकर्ण को जगाने आया हूं. पहले कुम्भकर्ण 6 महीने सोया करता था, अब वह पिछले 4 साल से सो रहा है.”उद्धव ठाकरे
“उत्तर प्रदेश में मजबूत बीजेपी की सरकार है और केन्द्र में बीजेपी की बहुमत सरकार है. मंदिर अब तक बन जाना चाहिए. आपको जो करना हो करें- कानून बनाएं या अध्यादेश लाएं, लेकिन मंदिर हर हाल में बनना चाहिए.
“दिन, महीने, साल और पीढ़ियां बीत गयीं. मंदिर वहीं बनाएंगे, पर तारीख नहीं बताएंगे.”
“अगर आपको (बीजेपी) अदालत जाना है (राम मंदिर मुद्दे पर) तो आपको अपने चुनाव अभियान और घोषणापत्रों में इसका जिक्र नहीं करना चाहिए. आपको साफ करना चाहिए कि ‘भाइयो और बहनो’, कृपया हमें माफ कीजिए. यह हमारी ओर से एक और जुमला था.”
एक राजनीतिज्ञ के लिए, जिसके करियर का अधिकांश हिस्सा मंदिर मुद्दे से आंदोलित नहीं रहा हो, वास्तव में ये बहुत कठोर शब्द थे. एक योजना का हिस्सा थे ये शब्द. अलग-अलग नजरिए से देखें, तो ठाकरे के इस बगावती तेवर के तीन पहलू हैं:
पहला, इस आक्रामकता से शिवसेना और बीजेपी के बीच दोस्त से दुश्मनी की ओर बढ़ता संबंध स्पष्ट रूप से विरोधी तेवर अख्तियार करता दिख रहा है. पिछले चार साल से, शिवसेना के नेता केन्द्र और राज्य के मंत्रिमंडल में हैं. सबसे अमीर बृहन्मुम्बई म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन समेत राज्यभर में स्थानीय निकायों की सत्ता में दोनों पार्टियां साझीदार हैं.
लेकिन, महाराष्ट्र में ठाकरे सबसे मजबूत विपक्ष की आवाज हैं, जो मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणनवीस से अलग-अलग मुद्दों पर विरोध का कोई मौका नहीं छोड़ते. नोटबंदी समेत विभिन्न मुद्दों पर समय-समय पर वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमले करते रहे हैं.
दोनों पार्टियों, खासकर शिवसेना के कार्यकर्ता भ्रम में रहे हैं कि वे लोग आपस में दोस्त हैं या दुश्मन. शिवसेना दोनों चुनाव गठबंधन से अलग होकर अपने बूते लड़ना चाहती है. उसे अपने हमले दोनों सरकारों पर तेज करने की जरूरत है. बीजेपी से स्वतंत्र होकर खुद को खड़ा करने के लिए उसे इस बात को नजरअंदाज करना होगा कि वह उन सरकारों में सहयोगी के तौर पर बनी हुई है. राम मंदिर पर बीजेपी को परेशान करते हुए शिवसेना की स्थिति हर हाल में मुस्कुराते रहने की बनी हुई है.
ठाकरे दिखाना चाहते हैं कि शिवसेना अपने से ताकतवर सहयोगी को उसके मूल मुद्दे पर चुनौती दे रही है. वे अपनी पार्टी को बीजेपी के मित्र या सहयोगी के बजाए उसे चुनौती देने वाली पार्टी के रूप में स्थापित कर रहे हैं. अगर उन्हें फायदा हो तो वे गठबंधन से बाहर निकल सकते हैं. विकल्प के तौर पर उन्होंने दोस्ती से दुश्मनी की ओर बढ़ता रुतबा बनाया है. इस मुद्दे को उन्होंने साथ चुनाव लड़ने के लिए एक तरह से भावनात्मक शर्त बना दिया है.
राम मंदिर मुद्दे पर बीजेपी को साफ संकेत दिया
दूसरी बात, जिस राम मंदिर मुद्दे से बीजेपी तीन दशकों से पहचानी जाती रही है, उसी मुद्दे को उभारकर और उसी मुद्दे पर बीजेपी से टकराकर ठाकरे बीजेपी नेताओं को संदेश दे रहे हैं कि उनकी तुलना में वे बड़े हिन्दूवादी हैं.
अयोध्या जाकर और नेशनल मीडिया में आकर उन्होंने उम्मीद के मुताबिक अपनी यात्रा को राष्ट्रव्यापी बना दिया. इससे महाराष्ट्र से बाहर उनकी और पार्टी की हिन्दुत्व से जुड़ी पहचान मजबूत हुई है और मंदिर समर्थकों में इस मुद्दे पर ईमानदार और प्रतिबद्ध दिखने की उनकी कोशिश भी सफल हुई है.
शिवसेना देख रही है कि दुर्भाग्य से एक बार फिर 2019 में राम मंदिर निर्माण ही मुख्य मुद्दा होने वाला है, तो वह कोशिश कर रही है कि अपने भगवा रंग को और अधिक गाढ़ा किया जाए.
शिवसेना अयोध्या कांड के बाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसके आक्रामक संगठन विश्व हिन्दू परिषद के साथ खड़ी रही है, जो तुरंत मंदिर निर्माण के लिए हल्ला मचाते रहे हैं, जो मोदी सरकार से कानून बनाने की मांग करते रहे हैं और जो कहते रहे हैं कि अदालत के निर्णय की प्रतीक्षा करना व्यर्थ है.
ठाकरे से उम्मीद यही है कि आने वाले समय में बीजेपी के मुकाबले खुद को अधिक भगवामय बताते हुए वे इस मुद्दे को गरम रखेंगे. हरसम्भव मौके पर वे इसे ऊर्जा देते रहेंगे, चाहे वह महाआरती के रूप में हो या फिर ऐसे ही किसी और तरीके से.
बाल ठाकरे हिन्दूवाद के अपने राजनीतिक ब्रांड को कुछ इस तरह समझाया करते थे, ‘ज्वलन्त हिन्दुत्व’ का अर्थ ‘जलता हुआ’ हो या ‘दहकता हुआ’. ठाकरे अक्सर कहा करते थे कि उन्हें वैसे हिन्दू नापसंद हैं, जिनके पास केवल शेंडी, जनेऊ होते हैं और जो केवल मंदिरों में घंटा बजाया करते हैं.
6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जब बीजेपी के अग्रिम पंक्ति के नेता इस घटना से खुद को अलग बता रहे थे, तो बाल ठाकरे पहले राजनीतिक नेता थे, जिन्होंने इस घटना की जिम्मेदारी लेते हुए कहा था, “अगर मेरे लड़कों ने यह किया है, तो मुझे उन पर गर्व है.” महाराष्ट्र के राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह आक्रामकता उद्धव के काल में भोथरी हुई है.
राम मंदिर निर्माण को लेकर उद्धव की अयोध्या यात्रा और बीजेपी के लिए उनके कठोर शब्दों के बाद पार्टी की हिन्दुत्व की छवि धारदार होगी और उत्तर भारतीयों के विरोध के रुख में थोड़ी नरमी आएगी. यह वही पार्टी है, जिसके मुखिया सीनियर ठाकरे को हमेशा सम्मान के साथ ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ कहा जाता था. यह संबोधन बाद में मोदी के लिए भी इस्तेमाल किया जाने लगा.
2019 के आम चुनाव से पहले शिवसेना के विचार में बदलाव
तीसरा, मुम्बई का सामाजिक प्रोफाइल बदल रहा है, जिसमें अब मराठी 30 फीसदी रह गये हैं. मराठी धरती पुत्र का मुद्दा, जिसे शिवसेना पांच दशकों से उठाती रही है, वो भी अब उतना लाभकारी नहीं रह गया है. इस वजह से शिवसेना को अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलने की जरूरत आ पड़ी है.
‘बाहरी’ लोगों के लिए शिवसेना नकारात्मक रूप में स्वयंसिद्ध रही है. चुनाव में सफल होने के लिए इस छवि को बनाए नहीं रखा जा सकता.
महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटों में मुम्बई और थाणे में ही दस हैं. इन्हीं दो शहरों में महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में 60 सीटें हैं. ठाकरे को अपने खास सेना वोटरों या जिसे मराठी वोट कहा जाता है, उससे बाहर निकलकर देखना होगा. ये दो शहर जो उनके किले माने जाते हैं, वहां शहरी मतदाताओं को उन्हें खास तौर से जुड़ना होगा.
राम मंदिर पर झुकने को कतई तैयार नहीं दिख रहे ठाकरे को उम्मीद है कि इसी रुख के साथ वह अपनी पार्टी का विस्तार गुजराती, मारवाड़ी और उत्तर भारतीय वोटरों में कर सकेंगे जो परम्परागत रूप से बीजेपी को प्राथमिकता देते हैं. उन्हें विश्वास है कि उनमें से कुछ वोटर उनके लिए मतदान करेंगे.
क्या 2019 में शिवसेना के लिए केवल राम मंदिर ही काफी होगा?
बीजेपी या शिवसेना में किसे मंदिर का मुद्दा महाराष्ट्र में अधिक सीट दिलाएगी? 1989 के आम चुनाव में जब राम जन्मभूमि आंदोलन को लालकृष्ण आडवाणी और अन्य नेताओं ने गति दी थी, तब कांग्रेस ने राज्य में 48 में से 28 सीटें जीती थी. तब बीजेपी और शिवसेना को क्रमश: 10 और 4 सीटें मिली थीं.
आडवाणी की रथयात्रा के 6 महीने के भीतर और राजीव गांधी की हत्या के साये में हुए 1991 के चुनाव में कांग्रेस ने 38 सीटें जीती थीं, जबकि भगवा गठबंधन केवल 9 सीटें ही जीत सका था. बीजेपी की ताकत आधी होकर 5 सीटों की रह गयी थी.
बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुम्बई में भयानक सांप्रदायिक दंगे हुए थे, जिसके बाद 1992-93 में सीरियल ब्लास्ट हुए. दो साल बाद विधानसभा चुनाव हुए, शिवसेना-बीजेपी को जीत मिली और दोनों ने मिलकर सरकार बनायी. 1996 के आम चुनाव में शिवसेना ने 15 और बीजेपी ने 18 लोकसभा की सीटें जीतीं. इस तरह दोनों ने कुल 33 सीटें जीतीं. कांग्रेस 15 सीट ही जीत सकी.
शिवसेना का मानना है कि हिन्दुत्व पर मतदाताओं के ध्रुवीकरण से उसे मदद मिलती है. इससे बेहतर भावनात्मक मुद्दा और क्या होगा? अक्टूबर में हुई दशहरा रैली में उद्धव ठाकरे ने गर्जना की थी कि अगर बीजेपी मंदिर नहीं बना सकती, तो शिवसेना उसे बनाएगी.
शिवसेना से पूछा ये जाता है कि जब वह केंद्र और राज्य में सत्ता में है और ताकतवर मुम्बई म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन पर उसका नियंत्रण है, फिर भी वह अपने संस्थापक नेता के लिए पांच साल में स्मारक नहीं बना सकी, तो वह अयोध्या में राम मंदिर क्या बनाएगी? इस मुद्दे पर भी ठाकरे की परीक्षा होगी.
वास्तव में यही सही समय है. सामाजिक उथल-पुथल और आर्थिक परेशानियों के बीच एक भावनात्मक मुद्दा मूल चुनावी मुद्दा बनता दिख रहा है और उद्धव इस मुद्दे पर सवार होते हुए कहीं अधिक खुश हैं.
(स्मृति कोप्पिकर मुम्बई में पत्रकार और संपादक हैं. वह राजनीतिक, शहरी मुद्दों, जेंडर और मीडिया पर लिखती रही हैं. यहां व्यक्त नजरिया लेखक का है. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है)
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