राष्ट्र मंच के संस्थापक यशवंत सिन्हा (Yashwant Sinha) की बुलाई शरद पवार (Sharad Pawar) के दिल्ली आवास पर होने वाली मीटिंग में मेरे शिरकत करने की जानकारी जब एक पत्रकार को मिली तो उसने मुझसे पूछा "क्या आप लोग मीटिंग में तीसरा मोर्चा बनाने पर चर्चा करेंगे?"दूसरे पत्रकार ने पूछा "क्या यह बैठक 2024 में नरेंद्र मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए विपक्षी रणनीति के बारे में है?"
22 जून को हुई इस मीटिंग के बारे में मीडिया द्वारा लगाए गए अधिकांश कयास इसी के इर्द-गिर्द थे. क्या गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेसी मोर्चा तैयार होने वाला है? क्या इस चर्चा का मकसद 2024 के लिए विपक्ष का रोडमैप तैयार करना है? वास्तविकता यह है कि मीडिया की यह सारी अटकलें हकीकत से बहुत दूर थीं.
मीडिया दिखाना चाहता है एक 'बिखरा' विपक्ष जो पीएम मोदी के टक्कर का नहीं
ये अटकलें बिना एजेंडा के नहीं हैं, कम से कम सरकार समर्थक मीडिया सेक्शन की तरफ से. एजेंडा यह दिखाने का है कि विपक्ष एकजुट नहीं है और हो भी नहीं सकता ताकि बीजेपी को अकेले फ्रंट के रूप में दिखाया जा सके.
और निष्कर्ष निकाला गया: "2024 के आम चुनाव में बीजेपी अपराजित रहेगी,बावजूद इसके कि वह कुछ राज्यों में चुनाव हार गयी हो".
इस नैरेटिव को दूसरे संबंधित एजेंडों के साथ मजबूत किया जाता है-यह दिखाना कि मोदी को चुनौती देने के लिए विपक्ष के पास कोई चेहरा नहीं है.यह सच भी है कि विपक्ष अभी इस चुनौती का जवाब देने की स्थिति में नहीं है.
और फिर उनका दूसरा निष्कर्ष: "2024 में मोदी अपराजित रहेंगे क्योंकि विपक्ष के पास मोदी के टक्कर का करिश्माई नेता नहीं है".
राष्ट्र मंच की बैठक इस जाल में नहीं फंसी क्योंकि शरद पवार और यशवंत सिन्हा दोनों ही दिग्गज नेता हैं. इन दोनों ने भारतीय राजनीति में दशकों गुजारे हैं और यह जानते हैं कि कैसे एक अच्छे विचार को खराब होने से बचाया जा सकता है.
"मोदी मुद्दा नहीं है, राष्ट्र के सामने जो मुद्दे हैं वो मुद्दा है"
वास्तव में यशवंत सिन्हा ने बैठक के उद्देश्य को बखूबी बताया."राष्ट्र मंच के सामने मोदी मुद्दा नहीं है, राष्ट्र के सामने जो मुद्दे हैं वो मुद्दा है". यह स्मार्ट राजनीति है.बात मुद्दों की करो व्यक्तित्वों कि नहीं.क्योंकि विपक्ष के पास उठाने को ये मुद्दे हैं:
सरकार द्वारा कोविड संकट का प्रबंधन
सरकार द्वारा आर्थिक संकट का प्रबंधन
बेरोजगारी,जो भारत के लाखों युवाओं के लिए चिंता का कारण है
किसानों की दुर्गति
पेट्रोल और डीजल का दाम सेंचुरी के पार क्यों है?
एक्टिविस्टों पर आजादी से 2014 तक जितने देशद्रोह के मामले दर्ज नहीं हुए उतने पिछले 7 साल में क्यों?
केंद्र-राज्य संबंध आजाद भारत में अपने न्यूनतम स्तर पर क्यों?
यह लिस्ट बढ़ती ही जाती है. बीजेपी और बीजेपी समर्थक मीडिया पलटकर यह नहीं कह सकते हैं " ओह,लेकिन मोदी नहीं तो कौन?" मुद्दे उन्हें (सरकार समर्थक मीडिया) असहज करते हैं. उनके कंफर्ट जोन मोदी हैं.
'मोदी है तो मुमकिन है" से ध्यान को नहीं भटकने दें
2014 में सत्ता में आने के बाद से ही बीजेपी ने राष्ट्रीय नैरेटिव को मोदी केंद्रित बना दिया है. "मोदी है तो मुमकिन है". यह उनका डिंग मारने वाला नारा बन गया है. लेकिन समय आ गया है जब इस नारे को एक बड़े बैनर के ऊपर लिख दिया जाए और उसके नीचे उन मुद्दों का जिक्र हो जिसे वर्तमान भारत झेल रहा है. यह उन लोगों को बीजेपी से कड़े सवाल पूछने के लिए प्रेरित करेगा जिन्होंने बीजेपी को वोट दिया था. जैसे:
क्या कोविड-19 से जुड़े लाखों लोगों की मौत और वैक्सीनेशन की धीमी रफ्तार भी मोदी के होने से मुमकिन है?
क्या कोविड-19 से मौत की वास्तविक संख्या को दबाना भी मोदी के होने से मुमकिन है?
पवित्र गंगा में लोगों की लाश को शर्मनाक तरीके से फेंक देना भी मोदी के होने से मुमकिन है?
अभूतपूर्व बेरोजगारी, जिसको सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी(CMIE)के रिसर्च रिपोर्ट चीख-चीख के बता रहे हैं, क्या वह भी मोदी के होने से मुमकिन है?
किसानों की कमाई में होती लगातार कमी भी मोदी के होने से मुमकिन है?
संविधान की संघीय संरचना पर होता हमला भी मोदी के होने से ही मुमकिन है?
चुनाव आयोग और अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता और अखंडता से होता समझौता भी मोदी के होने से मुमकिन है?
बोलने की आजादी के अधिकार को लगातार कुचलना भी क्या मोदी के होने से मुमकिन है?
इन तमाम चीजों के अलावा ऐसी और भी बहुत सारी चीजें भी क्या मोदी की वजह से ही संभव हो पाई हैं?
बीजेपी और उसके मीडिया मुखपत्र इन सवालों का जवाब नहीं दे सकते हैं.उनकी चुप्पी लोगों को इस बात का यकीन दिलाएगी जिसे वे अब धीरे-धीरे महसूस करने लगे हैं-"हां हमारे साथ विश्वासघात किया गया है". यह वास्तव में ऐसे मुद्दे हैं जो हमें और राष्ट्र, दोनों को प्रभावित करते हैं .लेकिन बीजेपी और उसकी सरकार अहम मुद्दों से हमारा ध्यान भटकाने की कोशिश कर रही है.
इसलिए यशवंत सिन्हा द्वारा इस बैठक के उद्देश्य के बारे में दिया गया विवरण शानदार था "मोदी मुद्दा नहीं है,मुद्दे मुद्दा है". हमने राष्ट्र के सामने मौजूद उन सारे मुद्दों पर चर्चा की जिसे ऊपर बताया गया है और उसके अलावा भी. हमारी कार्यवाही क्या होनी चाहिए इसपर भी बात की गयी, जिनके बारे में देश आगे जानेगा.
राष्ट्र मंच 'गैर-दलीय' है 'गैर-राजनीतिक' नहीं
वास्तव में राष्ट्र मंच किसी भी तरह से एकमात्र ऐसा संगठन नहीं है जो इन मुद्दों पर विचार-विमर्श कर रहा है. पूरे भारत में फैले स्टूडेंटों, यूथ महिलाओं, किसानों, कामगारों, वकीलों, पत्रकारों और अन्य पेशेवरों का नेतृत्व करने वाले ऐसे हजारों 'गैर-दलीय संगठन' हैं जो इन मुद्दों पर उतने ही चिंतित है जितना कि हम. वो देश की उतनी ही फिक्र करते हैं जितना हम करते हैं.
यह तथ्य कि वे पब्लिक डोमेन में अपनी चिंताओं को साहस के साथ व्यक्त कर रहे हैं और यहां तक कि संघ परिवार के अंदर कई लोगों की भी यही चिंता है,अब बीजेपी को परेशान कर रही है.
लेकिन राष्ट्र मंच और देश भर में मौजूद इन गैर-राजनैतिक सिविल सोसाइटी संगठनों के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि राष्ट्र मंच गैर-दलीय जरूर है लेकिन गैर-राजनीतिक नहीं. यशवंत सिन्हा द्वारा 3 साल पहले इसकी स्थापना के बाद इसने विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं और मेरे जैसे कई गैर-दलीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी आकर्षित किया है.
यशवंत सिन्हा के नेतृत्व में 'राष्ट्र मंच' एक 'साझा मंच'
सार्वजनिक जीवन में अपने लंबे और प्रतिष्ठित करियर में सिन्हा ने दलों से ऊपर जाकर बहुत लोगों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाया है. उन्होंने दो प्रधानमंत्रियों- चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी के अंतर्गत भारत के वित्त मंत्री के रूप में कार्य किया है. वो वाजपेयी सरकार में भारत के विदेश मंत्री भी थे. वो 2 दशकों से अधिक समय तक बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं में से एक थे और वे हाल ही में तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुए हैं और इसके उपाध्यक्ष बने.
उनके व्यक्तिगत कद के कारण राष्ट्र मंच आज भारत में एकमात्र ऐसे मंच के रूप में उभरा है जो विभिन्न गैर-बीजेपी दलों के लोगों को राष्ट्र के सामने मौजूद महत्वपूर्ण मुद्दों पर सार्थक और कार्यवाही भरा संवाद करने के लिए एक साथ ला सकता है .ऐसे में आने वाले महीनों और वर्षों में इसका महत्व काफी बढ़ने वाला है.
कांग्रेस विरोधी नहीं, व्यापक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता
एक पत्रकार ने मुझसे पूछा "लेकिन कांग्रेस की तरफ से इस मीटिंग में कोई प्रतिनिधि क्यों नहीं आया था?" बढ़िया सवाल.
लेकिन यहां किसी भी तरह की अटकलों की गुंजाइश नहीं है. राष्ट्र मंच की स्थापना के बाद से ही कांग्रेस के कई महत्वपूर्ण नेता यशवंत सिन्हा के कहने पर इसकी चर्चाओं में भाग लेते रहे हैं. यहां तक कि 22 जून की बैठक में भी वर्तमान में देश के सबसे अनुभवी सक्रिय राजनेता, पवार ने मंच की गतिविधियों में राजनीतिक दलों के व्यापक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता पर जोर दिया था.
उन्होंने कहा "कांग्रेस,शिवसेना,DMK और उनके जैसे अन्य सभी को शामिल किया जाना चाहिए". यह सलाह एक ऐसे नेता की तरफ से है जो भारत के हाल के इतिहास में सबसे इनोवेटिव गठबंधन सरकारों में से एक के वास्तुकार हैं- महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली MVA सरकार. यह बताता है कि अगले संसदीय चुनाव में विपक्ष को एक मंच पर लाया जा सकता है.
मैं यह बात दोहराता हूं कि राष्ट्र मंच की 22 जून की मीटिंग में चर्चा का विषय मोदी नहीं थे बल्कि पिछले 7 सालों में देश के सामने पैदा हुए अत्यंत गंभीर मुद्दों के कारण भारत था.
(लेखक ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक के तौर पर कार्य किया है. वह ‘फोरम फॉर अ न्यू साउथ एशिया- पावर्ड बाई इंडिया-पाकिस्तान-चीन कोऑपरेशन’ के संस्थापक हैं.लेखक का ट्विटर हैंडल @SudheenKulkarni और उनका ईमेल एड्रेस sudheenkulkarni@gmail.com है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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