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कैफी की कविता सुन जब लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हें गले लगा लिया था

कैफी ने पद्मश्री पुरस्कार को यह कहते लौटा दिया था कि आप मुझे अवार्ड दे रहे हैं, मेरी जुबान को कोई हक नहीं दे रहे.

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एक कलम जिसकी स्याही आज भी पक्की है.

एक हीरे के लिए लाख जिगर तोड़े हैं,

घर तो घर शम्अ मजारों की भी बुझ जाती है,

जब कहीं इसके नगीनों में चमक आती है.

ऐसी कई पंक्तियां लिखने वाले कैफी आजमी (Kaifi Azmi) का जन्म 14 जनवरी, 1919 को आजमगढ़ के छोटे से गांव मिजवां में हुआ थी. कैफी के बचपन का नाम अख्तर हुसैन रिजवी था. कैफी में हुकूमत से खिलाफत के गुण बचपन से ही दिखने लगे थे, उनके पिता सैयद फतेह हुसैन रिजवी ने जब उन्हें पढ़ने के लिए 'सुल्तान उल मदारस' लखनऊ में भेजा तो कैफी ने वहां हड़ताल करा दी , जिस वजह से उन्हें मदरसे से निकाल दिया गया और वह मौलवी नही बन सके.

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कैफी के पिता और दादा अच्छे शायर थे, जिसका असर उन पर भी पड़ा. कैफी अपनी पढ़ाई के दौर में गांधी और नेहरू के स्वराज आंदोलन से प्रभावित होकर कानपुर पहुंचे , वहां साल 1942 के दौरान 19 साल की आयु में एक मिल में काम करते हुए उन्होंने मजदूरों की समस्या देखी और वह उससे प्रभावित हुए और कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए.

इसके बाद उन्होंने पार्टी के अखबार 'कौमी जंग' के लिए लिखना शुरू कर दिया और बॉम्बे चले गए. कौमी जंग में काम करते उन्हें 45 रुपए महीना पगार मिलने लगी.

1947 में औरंगाबाद के एक मुशायरे में उन्होंने ताज के खिलाफ एक नज्म पढ़ी, वहीं उनकी होने वाली पत्नी शौकत साहिबा का ध्यान उनकी तरफ गया.

दूरदर्शन से बात करती हुई शौकत कहती हैं कि कैफी साहब की यह खूबी थी कि लोग मुश्किल नज़्म भी उनके हाथों के इशारे और आवाज से समझ जाते थे.

शौकत साहिबा ,कैफी की नज्म 'औरत' से बेहद प्रभावित हुई थी. जिसकी कुछ पंक्तियां हैं-

'तुझे कद्र अब तक तिरी तारीख ने जानी ही नहीं

तुझ में शोले भी हैं बस अश्क-फिशानी ही नहीं

तू हकीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं

तेरी हस्ती भी है इक चीज जवानी ही नहीं

अपनी तारीख का उन्वान बदलना है तुझे

उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे'

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कैफी बहुत गरीब थे, उनके कमरे में एक मेज और पलंग थी. वह नज्म से ही कमाते थे. एक दिन पीसी जोशी कैफी के घर आए तो उन्होंने शौकत से कहा कि लड़की को भी काम करना चाहिए, जिसके बाद वह भी काम करने लगी.

जब मुंशी प्रेमचंद से हुई मुलाकात

साल 1935 में मुंशी प्रेमचंद की मौजूदगी में पहली प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन सम्मेलन का आयोजन हुआ तो वहां कैफी एक नौजवान की हैसियत से जुड़ गए. इलाहाबाद से लेखक प्रो. ए.ए फातिमी कहते हैं कि कैफी हुकूमत और अमीरों के खिलाफ दबंगई से बोलते थे.

इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन के लिए उन्होंने 'भूत गाड़ी' के रूप में पहला नाटक लिखा. उनका लिखा नाटक 'आखिरी शमां' बहुत हिट हुआ. इस रास्ते पर चलते कैफी का परिवार गरीबी से गुजर रहा था और उनका एक बच्चा भी गुजर गया.

शबाना आजमी के पैदा होने से पहले कैफी फिल्मों में लिखने लगे. उन्होंने 1952 में शाहिद लतीफ द्वारा निर्देशित फिल्म 'बुजदिल' के लिए अपना पहला गीत लिखा.

उनके प्रसिद्ध फिल्मी गीत शमा, कागज के फूल, शोला और शबनम, अनुपमा, आखिरी खत, हकीकत, हंसते जख्म, अर्थ जैसी फिल्मों से हैं.

कागज के फूल फिल्म के लिए लिखे गीत बहुत लोकप्रिय हुए थे. गीत लिखने के अलावा, उन्होंने चेतन आनंद की फिल्म 'हीर रांझा' की पटकथा लिखी, इसके सभी चरित्रों के संवादों को उन्होंने पूरी तरह से पद्य शैली में लिखा.

कैफी ने कहा था

निर्देशक चेतन आनंद को जो चाहिए होता था वो दो मिनट में आपसे निकाल लेते थे, चेतन आनंद ने हीर रांझा के लिए उनसे पहले कुछ अन्य शायरों को भी आजमाया था पर बात नहीं बनी थी.
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उन्होंने एमएस सथ्यू की उत्कृष्ट कृति 'गर्म हवा' की पटकथा और संवाद के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार और फिल्मफेयर पुरस्कार जीता. गर्म हवा में काम कर चुके अभिनेता विकास आनन्द कहते हैं कि कैफी ने गर्म हवा में मुझे रोल ऑफर न किया होता तो आज जो मैं हूं वो न होता.

कैफी ने बच्चों की भावनाओं पर आधारित फिल्म 'नौनिहाल' के गीत लिखे, इन गीतों की रिकॉर्डिंग के समय रफी साहब गाना गाते बीच में रो पड़ते थे. कैफी की रचनाओं में यथार्थ का मर्म झलकता है, इसका कारण यह था कि उन्होंने जीवन की पाठशाला से ज्ञान अर्जित किया था.

एक बार कैफी लखनऊ जाने वाले थे,कुछ ही दिन पहले वहां दंगे हुए थे. लोग उम्मीद कर रहे थे कि कैफी आदत के मुताबिक, लखनऊ की तारीफ करेंगे. लेकिन कैफी ने जो बोला वो ये था.

'अजा में बहते थे आंसू यहां, लहू तो नहीं

ये कोई और जगह है ये लखनऊ तो नहीं

यहां तो चलती हैं छुरिया जुबां से पहले

ये मीर अनीस की, आतिश की गुफ्तगू तो नहीं'

कैफी आजमी भारत सरकार के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में से एक पद्मश्री थे, कैफी ने इस पुरस्कार को यह कहते लौटा दिया था कि पद्मश्री अवार्ड मुझे दिया गया था उर्दू शायर की हैसियत से. आप मुझे अवार्ड दे रहे हैं, मेरी ज़ुबान को कोई हक नहीं दे रहे.

इसके अलावा उन्हें उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार और उनके संग्रह 'आवारा सजदे' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, महाराष्ट्र उर्दू अकादमी का विशेष पुरस्कार, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, एफ्रो-एशियन राइटर्स एसोसिएशन से लोटस अवार्ड और राष्ट्रीय एकीकरण के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

वर्ष 1998 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें ज्ञानेश्वर पुरस्कार से सम्मानित किया. उन्हें आजीवन उपलब्धि के लिए प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी फैलोशिप से भी सम्मानित किया गया था.

साल 2000 में उन्हें दिल्ली सरकार और दिल्ली उर्दू अकादमी द्वारा पहले मिलेनियम पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. उन्हें विश्व भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि से भी सम्मानित किया गया.

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दूरदर्शन से बात करते शबाना आजमी कहती हैं

उनके पिता ने उनसे कहा था कि तुम्हें एक्टिंग में जाने की इच्छा है तो साइकोलॉजी लो. तुम एक्टिंग करोगी तो इतनी अच्छी एक्ट्रेस बनो कि लोग कहें सचमुच ये बहुत अच्छी है.

अपने गांव मिजवां से उनका खासा लगाव था, वहां उन्होंने मुख्य सड़क से गांव को जोड़ने के लिए दो किलोमीटर सड़क बनाई और गांव की छोटी रेल लाइन को बड़ी लाइन में बदलवाया. ये कराने वह व्हीलचेयर में आए थे.

डॉ मोहम्मद आरिफ उनके गांव प्रेम पर ज्यादा प्रकाश डालते हैं.

इतिहासकार डॉ मोहम्मद आरिफ बताते हैं

कैफी साहब की सेहत उनके गांव में लगातार बिगड़ती जा रही थी. बच्चों की जिद भी उन्हें मुम्बई ले जाने पर राजी न कर सकी, इस बीच वे अपने महिला इंटरमीडिएट कॉलेज का विस्तार डिग्री कॉलेज के रूप में करने पर आमादा रहे. गिरती सेहत के बावजूद गवर्नर से लेकर कुलपति तक उन्होंने इस बाबत बातचीत की, उनका उत्साह देखते बनता था. कभी-कभी घंटों आंखें मूंदे रहते थे, पास बैठे लोगों का भान तक नहीं होता था लेकिन जैसे ही किसी के मुंह से डिग्री कॉलेज की बात निकलती ऐसे आंखें खोल देते जैसे सोए ही न हों.

ये थी उनकी तल्लीनता और फिक्रमन्दी. एक बार मैने कैफी साहब से पूछा कि डिग्री कॉलेज में कौन – कौन सा विषय पढ़ाया जाएगा, उन्होंने तपाक से जवाब दिया –इंसानियत और मोहब्बत का. बात को और आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा क्यों न ऐसे कोर्स की डिजाइन तैयार की जाए जिसमें लोगों को एक दूसरे से नफरत और मारकाट की जगह मोहब्बत हो, खुलूस हो,एक दूसरे के दुःख दर्द से दिली रिश्ता और अमन-चैन लिखा हो और उस पेपर का नाम Indian Culture of Love रखा जाए.

बदलते जमाने के साथ कैफी साहब ने अपने गांव में स्कूल, लड़कियों का कॉलेज, कंप्यूटर शिक्षा के साथ-साथ लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की एक वृहत योजना बनाई और उसे अमली जामा पहनाने के लिए अपने गांव के नाम पर ‘मिजवां वेलफेयर सोसायटी ‘ बनाई. वो चाहते तो जमाने के दस्तूर के मुताबिक अपने वालिदैन के नाम पर सोसायटी बना सकते थे. लेकिन उन्हें अपने खानदान की मकबूलियत से ज़्यादा गांव की मकबूलियत और तरक्की पसंद थी.

इस सिलसिले में मैंने एक बार उनसे पूछा कि कैफी साहब इस सोसायटी का नाम कुछ अनजाना सा है. अगर आप अपने या अपने बुज़ुर्गों के नाम पर इसका नामकरण करते तो बहुत जल्द मंजर-ए-आम पर होती.

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कैफी साहब मुस्कुराये ,कहा

आरिफ साहब सोसाइटी मेरे नाम पर जानी जाए या लोग कहें कि कैफी साहब की सोसाइटी है यह मुझे मंजूर नहीं. मैं चाहता हूं कि लोग कुछ अरसे बाद ये कहें कि ‘मिजवां वेलफेयर सोसायटी’ के लिए कैफी साहब भी काम करते हैं. मिजवां मेरा गांव, मेरा वजूद सबकी जबान पर हो.

आखिर मिट्टी का कर्ज तो चुकाना ही है

जब लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री थे उस समय भारत-पाकिस्तान के बीच जंग चल रही थी. कैफी ने एक कविता इसी जंग के समय लिखी थी, कविता का शीर्षक था 'फर्ज'. उसकी कुछ पंक्तियां हैं.

रिश्‍ते सौ, जज्‍बे भी सौ, चेहरे भी सौ होते हैं,

फर्ज सौ चेहरों में शक्‍ल अपनी ही पहचानता है,

वही महबूब वही दोस्‍त वही एक अजीज,

दिल जिसे इश्क और इदराक अमल मानता है.

इस कविता का अर्थ था कि जंग अगर हो ही रही है तो उससे डरना या उससे दूर खड़े रहना ,कोई विकल्प नहीं है. जन्नत या जहन्नुम का फैसला कोई और करेगा, हमें तो अपना फर्ज निभाना है.

मुंबई के आजाद मैदान में एक जलसे के दौरान जब कैफी ने यह कविता सुनाई तो लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हें गले लगाते कहा तुम मजदूरों के नहीं, पूरे हिंदुस्तान के शायर हो.

10 मई 2002 को इस दुनिया से दूर जाने के बाद भी कैफी अपनी रचनाओं के जरिए हमारे बीच जिंदा हैं. उनके फिल्मी गीतों का संकलन 'मेरी आवाज सुनो' वर्ष 2001 में प्रकाशित हुआ था. उनकी किताब 'नई गुलिस्तां' दो भागों में प्रकाशित हुई है, उनकी रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद पवन वर्मा द्वारा 'सिलेक्टेड पॉइम्स' नाम से प्रकाशित हुआ है.

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सांप और आज

कवि दिनेश उपाध्याय, कैफी की कविता 'सांप' को आज के दौर के लिए सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं, जिसमें कहा गया है कि इंसान किसी धर्म का होने से पहले एक इंसान ही था और धर्म के नाम पर मरने-मारने पर उतारू हो चुका इंसान एक दिन फिर से सिर्फ 'इंसान' के तौर पर ही पहचाना जाएगा.

सांप

ये साँप आज जो फन उठाए

मिरे रास्ते में खड़ा है

पड़ा था कदम चाँद पर मेरा जिस दिन

उसी दिन इसे मार डाला था मैं ने

उखाड़े थे सब दाँत कुचला था सर भी

मरोड़ी थी दुम तोड़ दी थी कमर भी

मगर चाँद से झुक के देखा जो मैं ने

तो दुम इस की हिलने लगी थी

ये कुछ रेंगने भी लगा था

ये कुछ रेंगता कुछ घिसटता हुआ

पुराने शिवाले की जानिब चला

जहाँ दूध इस को पिलाया गया

पढ़े पंडितों ने कई मंतर ऐसे

ये कम-बख्त फिर से जिलाया गया

शिवाले से निकला वो फुंकारता

रग-ए-अर्ज पर डंक सा मारता

बढ़ा मैं कि इक बार फिर सर कुचल दूँ

इसे भारी कदमों से अपने मसल दूँ

करीब एक वीरान मस्जिद थी, मस्जिद में

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ये जा छुपा जहां इस को पेट्रोल से गुस्ल दे कर

हसीन एक तावीज गर्दन में डाला गया

हुआ जितना सदियों में इंसा बुलंद

ये कुछ उस से ऊचा उछाला गया

उछल के ये गिरजा की दहलीज पर जा गिरा

जहां इस को सोने की केचुल पहनाई गई

सलीब एक चांदी की सीने पे उस के सजाई गई

दिया जिस ने दुनिया को पैगाम-ए-अम्न

उसी के हयात-आफरीं नाम पर

उसे जंग-बाजी सिखाई गई

बमों का गुलू-बंद गर्दन में डाला

और इस धज से मैदां में उस को निकाला

पड़ा उस का धरती पे साया

तो धरती की रफ्तार रुकने लगी

अंधेरा अंधेरा जमीं से

फलक तक अंधेरा

जबीं चांद तारों की झुकने लगी

हुई जब से साइंस जर की मुतीअ

जो था अलम का ए'तिबार उठ गया

और इस सांप को जिंदगी मिल गई

इसे हम ने जह्हाक के भारी काँधे पे देखा था इक दिन

ये हिन्दू नहीं है मुसलमां नहीं

ये दोनों का मग्ज और खूं चाटता है

बने जब ये हिन्दू मुसलमान इंसा

उसी दिन ये कम-बख्त मर जाएगा.

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