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अजित वाडेकरःजिसे पता था इंपॉसिबल को पॉसिबल कैसे किया जाए

भारतीय क्रिकेट वाडेकर के प्रति उदार नहीं रहा. वो शख्स जो कि 1971 में भारतीय क्रिकेट का एक महत्वपूर्ण सदस्य था

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अब तक भारतीय क्रिकेट का सबसे बेहतरीन लम्हा कौन-सा रहा है? अगर ये सवाल आज की पीढ़ी के सामने रखा जाए, तो संभवत: उनका जवाब होगा 1983 विश्व कप और 2011 का विश्व कप.

ज्यादातर लोग गहराई में नहीं जाएंगे और वास्तव में ये नहीं ढूंढ पाएंगे कि भारतीय क्रिकेट का असली टर्निंग प्वाइंट क्या था? वो लम्हा 1971 में गर्मियों से बहुत पहले आया था, जब भारत ने वो हासिल किया था, जिसकी कोई कल्पना ही नहीं थी. भारत ने एक नहीं, बल्कि बाहर की धरती पर दो–दो टेस्ट सीरीज एक ही साल में जीत ली थी, ऐसा पहली बार हुआ था. और ये हुआ था वेस्टइंडीज और इंग्लैंड की धरती पर.

ये वो वक्त था, जब हम विदेशों में एक टेस्ट मैच जीतने का सपना देखते थे. लेकिन वो एक ऐसा समय था, जब घर में या बाहर एक टेस्ट जीतना बहुत बड़ी बात होती थी. ऐसे में भारत ने न सिर्फ एक, बल्कि दो बाहर की सीरीज जीत ली थी, जो कि किसी किवदंती से कम नहीं थी.

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इससे पहले भारत ने 1967 में महान टाइगर पटौदी की अगुवाई में विदेशी धरती पर न्यूजीलैंड में अपनी पहली टेस्ट सीरीज जीती थी.

लेकिन 1971 तक पटौदी का रुतबा घट चुका था और उन्हें कप्तानी ही नहीं, वेस्टइंडीज जाने वाली टीम का हिस्सा तक नहीं बनाया गया. तब इस घटना के पीछे चयन समिति के चेयरमैन विजय मर्चेंट का वो चर्चित वोट आया था, जिसकी वजह से पटौदी टीम से बाहर रह गए थे.

तब पटौदी की जगह बॉम्बे के अजित लक्ष्मण वाडेकर को टीम की कप्तानी सौंपी गई.

चैंपियन बॉम्बे रणजी टीम के सदस्य के तौर पर वाडेकर एक ऐसे ‘स्ट्रीट स्मार्ट क्रिकेटर’ थे, जिसने बॉम्बे के मैदानों पर अपनी गहरी छाप छोड़ी थी.

इस मायने में वो पटौदी से एकदम अलग मिट्टी के बने थे. क्योंकि रॉयल फेमिली से आने वाले पटौदी ने 1960 के दशक में भारतीय क्रिकेट पर राज किया था.

ऐसे में अजित वाडेकर की अगुवाई में भारतीय क्रिकेट एक नए युग में प्रवेश कर रहा था, जिसमें सुनील गावस्कर जैसे युवा खिलाड़ियों की मौजूदगी थी. जबकि इनके अलावा कुछ जाने-पहचाने चेहरों की शक्ल में एकनाथ सोलकर, फारूख इंजीनियर और गुंडप्पा विश्वनाथ भी टीम का हिस्सा थे.

क्रिकेट का एक नया युग

भारतीय क्रिकेट का ये नया युग वेस्टइंडीज में जीत के साथ एक बड़े ही भव्य अंदाज में शुरू हुआ.

इसे भारतीय क्रिकेट में एक युग निर्माणकारी पल माना गया. क्योंकि 1960 के दशक तक वेस्टइंडीज में जीत हासिल करना एक असंभव और असाधारण काम माना जाता था. सच तो यही है कि तब तक भारत वेस्टइंडीज के साथ खेली गई कुल 5 टेस्ट सीरीज के 23 मैचों में एक भी जीत हासिल नहीं कर सका था. ये श्रृंखलाएं 1948 -49 से उस वक्त तक भारत या फिर वेस्टइंडीज में खेली गई थीं.

इस लिहाज से 1971 में भी वेस्टइंडीज की टीम चैंपियन थी. उनके पास तब भी लांस गिब्स, रोहन कन्हाई, क्लाइव लॉयड, सर गैरी सोबर्स जैसे खिलाड़ी थे. बावजूद इसके तब वो पूर्व के उस रुतबे के स्तर पर नहीं थे. लॉयड के प्रभुत्व वाला युग अभी कुछ वक्त दूर था. इसके बावजूद उनके खिलाफ कोई टेस्ट मैच जीतना भारतीय क्रिकेट के लिए महान क्षण था.

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अपनी टीम को हैंडल करने के मामले में वाडेकर बड़े ही चतुर थे. उन्होंने तब अपने प्रतिद्वंद्वी सोबर्स को हर तरीके से छकाया. गावस्कर आज भी 1971 दौरे से जुड़ी वाडेकर की अंधविश्वास की कहानियां सुनाते हैं

पांच टेस्ट मैचों की सीरीज में भारत की जीत, और वो भी पोर्ट ऑफ स्पेन क्वींस पार्क ओवल पर ! सबकुछ एक सपने की तरह था. और ये घटना गावस्कर की विश्व क्रिकेट में ग्रैंड एंट्री का गवाह भी बनी. इसके बाद भारतीय क्रिकेट ने कभी भी उस लम्हे से पीछे मुड़कर नहीं देखा. वेस्टइंडीज फतह के बाद लौटने पर भारतीय टीम का मुंबई में ऐतिहासिक स्वागत हुआ. ऐसा नजारा इसके बाद सिर्फ दो बार देखने को मिला. 1983 के विश्व कप में जीत के बाद और फिर 2007 में टी-20 विश्व कप में जीत हासिल करने के बाद.

1971 में कुछ महीनों के बाद भारत फिर से लय में नहीं था, लेकिन इस बार उन्हें तब की दुनिया की नंबर वन टीम इंग्लैंड के साथ खेलना था. रे इलिंगवर्थ की अगुवाई में तब इंग्लैंड विश्व क्रिकेट की सबसे हॉट टीम मानी जाती थी.

किसी ने नहीं सोचा था कि भारत अपने पुराने साम्राज्यवादी शासक को उनके हरे और स्विंग वाले ट्रैक पर हरा सकता है. लेकिन टीम ने सभी शक करने वालों को गलत साबित किया और इसका श्रेय जाता है वाडेकर के चतुर नेतृत्व को, जिन्होंने एक बार फिर अपने स्पिनरों का शानदार तरीके से इस्तेमाल किया. खासतौर से भागवत चंद्रशेखर का उन्होंने जिस तरीके से इस्तेमाल किया, वो भारत का मास्टर स्ट्रोक साबित हुआ.

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वाडेकर के नेतृत्व में चार चांद लगाया सोलकर, आबिद अली, श्रीनिवास वेंकटराघवन और खुद कप्तान की उत्तम कैचिंग ने. ये उनकी कप्तानी का एक बड़ा पहलू साबित हुआ.

एक बार फिर दिल्ली और मुंबई के नागरिक पूरी संख्या में सड़कों पर निकलकर आए और वाडेकर के सिपहसलारों का वेलकम किया. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी इसकी गवाह बनीं. इसी कारण, 1971 का साल भारत के क्रिकेट प्रेमियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण और मील का पत्थर वाला मौका बन गया.

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भारतीय क्रिकेट वाडेकर को लेकर उदार नहीं रहा

हालांकि, भारतीय क्रिकेट वाडेकर के प्रति उदार नहीं रहा. वो शख्स जो कि 1971 में भारतीय क्रिकेट का एक महत्वपूर्ण सदस्य था, 1974 में पूरी तरह से हाशिये पर चला गया, जब 1974 में अंग्रेजों के हाथों भारत को 0-3 से करारी हार झेलनी पड़ी. इसमें टीम की वो पारी भी रही, जिसमें हम 42 रन पर ऑल आउट हो गए थे.

यह अपने आप में भारत के लिए सबसे भूल जाने लायक दौरा था, जबकि मौजूदा दौरा भी उसी दिशा में जा रहा है। यही नहीं, भारत ने जो मैदान के बाहर एक वाकया झेला, वो ये था कि भारतीय उच्चायुक्त बी के नेहरू ने टीम को अपने लंदन आवास पर चल रही पार्टी में से बाहर चले जाने को कहा. वाडेकर का कसूर सिर्फ इतना था कि वो टीम के सम्मान में रखी पार्टी में पहुंचने में थोड़ी देर हो गए थे.

भारत की हार का खामियाजा वाडेकर को निजी तौर पर उठाना पड़ा. वापस लौटने के बाद उन्हें पहले पश्चिमी जोन और फिर बॉम्बे की टीम से भी बाहर होना पड़ा. 

इसके थोड़े ही समय बाद वाडेकर ने क्रिकेट के सभी प्रारूपों से संन्यास ले लिया. ऐसा उन्होंने इसलिए किया, क्योंकि इस घटना से वे बुरी तरह टूट चुके थे. हालांकि जो कुछ उनके साथ हुआ वो एक नाइंसाफी थी, किंतु भारतीय क्रिकेट और इसके फैंस बड़े निर्दयी हो सकते हैं.

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क्रिकेट प्रशासक/मैनेजर के रूप में वापसी

1974 की उस घटना के बाद 1992 तक वाडेकर भारतीय क्रिकेट के लिए भुला दिए गए लेकिन यही वो साल था, जब उन्होंने क्रिकेट प्रशासक के रूप में एक बड़ी वापसी की

1990 के बाद से भारतीय क्रिकेट ने प्रशासक के रूप में कई पूर्व क्रिकेटरों को आजमाया. इनमें बिशन सिंह बेदी, अशोक मांकड़ और अब्बास अली बेग शामिल हैं. (जिसे आज के जमाने में हेड कोच कहा जाता है.) तत्कालीन भारतीय कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन की बेदी के साथ इंग्लैंड के 1990 दौरे पर कुछ अनबन हो गई. तब उन्होंने महसूस किया कि भारतीय क्रिकेट को एक स्थायी कोच की जरूरत नहीं है.

तब ये भारतीय क्रिकेट में कप्तान और कोच के बीच का पहला झगड़ा था, जिसे आज के दिन कम ही याद किया जाता है.

लेकिन 1992 के ऐतिहासिक और भारत के पहले दक्षिण अफ्रीका दौरे पर आखिरकार अजहर ने वाडेकर के आने पर अपने विचार बदल लिए. अजहर और वाडेकर की कमाल की जुगलबंदी बनी, जो कि मार्च 1996 तक चली. जैसा कि वाडेकर ने अपनी कप्तानी के दौरान किया था, उन्होंने फिर से स्पिन और नजदीकी क्षेत्ररक्षण पर फोकस किया. अनिल कुंबले इसी दौरान शानदार तरीके से उभरकर सामने आए और 1993 से 1995 के बीच घरेलू मैदानों पर कई शानदार जीत के सूत्रधार बने.

आज के जमाने से अलग जबकि कप्तान मैदान के अंदर और उसके बाहर बॉस होता है, वाडेकर ने क्रिकेट मैनेजर के तौर पर संतुलित भूमिका का निर्वाह किया. भारतीय टीम के लिए लागू किया गया उनका कोड ऑफ कंडक्ट खासा चर्चित रहा. 1993 में इसकी खूब चर्चा रही.

अपनी कप्तानी की तरह ही मैनेजर की शक्ल में वाडेकर भारतीय टीम में कई बदलाव के सूत्रधार बने. उनके दौर में कई सारे सीनियर खिलाड़ी टीम से अलग हुए. रवि शास्त्री, कपिल देव, किरन मोर, क्रिस श्रीकांत या तो टीम से बाहर हुए या फिर रिटायर हो गए. इस चीज से वाडेकर को भारतीय क्रिकेट को एक नई राह पर ले जाने का मौका मिला
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सचिन तेंदुलकर का उदय भी वाडेकर के कार्यकाल के साथ ही हुआ. वाडेकर के दौर में ही 1994 में तेंदुलकर एकदिवसीय मैचों में बतौर ओपनर सामने आए.

वाडेकर का नजरिया बहुत ही सख्त था. इतना कि वो जरूरत के हिसाब से किसी भी नियम को तोड़ने के लिए तैयार रहते थे. उन्होंने 1994 में कानपुर के मैदान पर धीमी बल्लेबाजी करने पर मनोज प्रभाकर और नयन मोंगिया को टीम से बाहर का रास्ता दिखा दिया. जब वाडेकर को 1994 में शरजाह में हुए ऑस्ट्रेलेशिया कप के दौरान दिल का दौरा पड़ा, तो पूरी टीम ने इसका खामियाजा भुगता. इसी बात से ये पता चलता है कि वाडेकर की टीम पर कितनी गहरी छाप थी.

क्रिकेट मैनेजर के रूप में भारतीय क्रिकेट से वाडेकर का जुड़ाव आंसुओं के बीच खत्म हुआ. जिसे सबसे ज्यादा 1996 के विश्व कप सेमीफाइनल में हार के बाद विनाद कांबली के आउट होने के बाद रोते हुए पैवेलियन लौटने की घटना से याद किया जाता है. अजहर, जो कि फुल टाइम क्रिकेट मैनेजर नहीं चाहते थे, अब सिर्फ और सिर्फ वाडेकर ही उनकी पसंद थे.

मुख्य चयनकर्ता के रूप में वापसी

बाद में वाडेकर ने भारतीय क्रिकेट में चयनकर्ता के रूप में वापसी की। इसके बाद वे 1998 में मुख्य चयनकर्ता भी बने.

लेकिन इस भूमिका में वे उतने सफल नहीं रहे, जितने कि कप्तान और क्रिकेट मैनेजर के रूप में रहे थे. उनसे इस काम में कुछ गलतियां हुईं. इनमें खिलाड़ियों का गलत चयन भी शामिल था. आखिरकार उन्होंने एक बड़ा फैसला लिया और कभी अपने भरोसेमंद रहे अजरुद्दीन को उन्होंने 1999 विश्व कप के बाद कप्तानी से हटाकर ये जिम्मेदारी सचिन को सौंप दी.

ये आखिरी मौका था जब वाडेकर किसी भी शक्ल में भारतीय क्रिकेट से जुड़े थे. 30 साल तक अलग-अलग भूमिकाओं में वाडेकर ने भारतीय टीम के लिए कई योगदान दिया. 2004 में वो ‘घोस्ट राइटर’ की शक्ल में कॉलम लिखने लगे. उसके बाद उनका नजरिया 1971 की ऊंचाइयों के संदर्भ में दिखा.

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तथ्य यही है कि 1971 की यादें उनके जेहन में लंबे समय तक रहीं और ये अपने आप में एक संकेत है कि हमें वाडेकर को किस रूप में याद रखना चाहिए

भारतीय क्रिकेट वास्तव में उनका कर्जदार है. इसने ‘वाडेकर ब्रांड’ का इस्तेमाल एक बार नहीं, बल्कि दो बार किया. उनके कर्ज को चुकाने का एक ही तरीका है कि हम फिर से ‘अजित वाडेकर प्रोजेक्ट’ लॉन्च करें, जिसके तहत हमारा लक्ष्य हो कि हम किस तरीके से विदेशी पिचों पर लगातार टेस्ट मैच और सीरीज जीत सकते हैं. ऐसी शख्सियत के लिए इससे बड़ी श्रद्धांजलि कुछ नहीं हो सकती.

(चंद्रेश नारायण पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी हैं वह टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस में लेखक रह चुके हैं. आईसीसी के पूर्व मीडिया ऑफिसर और फिलहाल दिल्ली के डेयरडेविल्स में मीडिया मैनेजर हैं.)

यह भी पढ़ें: बस के सफर से शुरू हुआ था वाडेकर का क्रिकेट सफर

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