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पश्चिम की पाबंदियों के बाद भी रूबल क्यों न हुआ दुर्बल? चल गए पुतिन के 2 पैंतरे

जब रूस जैसी कमजोर इकनॉमी ये कमाल कर सकती है, तो भारत क्यों डरता है?

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रूस-यूक्रेन युद्ध के दो अप्रत्याशित नतीजों ने सभी पंडितों के हैरान कर दिया है. पहला ये कि आखिर कैसे हूडी वाले एक कॉमेडियन ने अपने देश को रूस जैसी भयानक सैन्य ताकत के सामने मजबूती से खड़ा रखा, जबकि माना जा रहा था कि एक हफ्ते के भीतर ही रूसी सेना यूक्रेन को रौंद देगी. दूसरा अचंभा है लगभग लुट-पिट चुके रूबल, जो एक डॉलर के बदले 150 तक लुढ़क गया था, उसने दो महीने के भीतर ही प्रति डॉलर 68 पर कैसे शानदार हेल्दी वापसी कर ली है! चूंकि कॉमेडी को मैं ज्यादा समझता नहीं, पर मैं जियो इकोनॉमिक्स के गुबार को जरूर जानता हूं, इसलिए मैं यहां रूबल के बारे में ही बात करूंगा.

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रूबल दुनिया की दूसरी सबसे पुरानी करेंसी (स्टर्लिंग के बाद) है, जो 14वीं सदी की है. यह निर्बाध रूप से चलने वाली करेंसी है और युद्ध से पहले, 2019 में दुनिया की 17वीं सबसे ज्यादा कारोबार वाली करेंसी थी.

जब औंधे मुंह गिरा रूबल

जब अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों ने यूक्रेन पर हमला करने के लिए रूस पर गंभीर प्रतिबंध लगाए तो रूबल के पतन की भविष्यवाणियां की जाने लगीं. 300 अरब डॉलर से अधिक के रूसी संपत्तियों को फ्रीज कर दिया गया. जबरदस्त नाटकीयता के साथ रूसी बैंकों को स्विफ्ट सिस्टम से बाहर कर दिया. मतलब विश्व में कारोबार करने के लिए जो सिस्टम था, उसे रूस के लिए प्रतिबंधित बना दिया गया. एक डॉलर के मुकाबले लगभग 150 तक रूबल को पहुंचा दिया गया. तब रूबल को खत्म मानकर श्रद्धांजलि लिखी जाने लगी थी.

बेशक, जब रूबल हांफ रहा था, तब भी ऑक्सीजन की कुछ छोटी-छोटी पर महत्वपूर्ण शीशियां इसे ताकत दे रही थीं. रूस ने यूरोप, चीन, भारत, कनाडा, जापान और दक्षिण कोरिया को भारी मात्रा में इन प्राकृतिक गैस और तेल की शीशियां सप्लाई की. कोई भी इस एनर्जी लाइफ लाइन को एक झटके में बंद करने का जोखिम नहीं उठा सकता था, इसलिए पाबंदियों के बाद भी डॉलर रूस में जाते रहे, हालांकि ये काफी कम था.

जब रूस जैसी कमजोर इकनॉमी ये कमाल कर सकती है, तो भारत क्यों डरता है?

यूरोपीय देशों ने महंगाई बढ़ने के खतरे के बाद रूस से इंपोर्ट घटाने और इसका विकल्प तलाशने का जोखिम भरा फैसला लेना शुरू कर दिया. यहां तक कि जर्मनी, जिसने 2022 के अंत तक रूसी सप्लाई समाप्त करने की बात कही थी, ने समय सीमा से पहले ही इसे बंद करने की धमकी दी. जो कभी असंभव माना जा रहा था, अब वो हो रहा था. ऐसी सूरत में एक डॉलर के मुकाबले रूबल को गिरकर 200 के बराबर हो जाना चाहिए था... सही है ना ?

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रूबल का पलटवार

गलत! रूबल ने सिर चकरा देने वाली शानदार वापसी की है. आज एक डॉलर के मुकाबले 70 पर पहुंच गया है. मार्च और अप्रैल में सबसे शानदार प्रदर्शन करने वाली ग्लोबल करेंसी बन गई है. इस पूरी परिघटना को समझने के लिए सिर्फ एक शब्द जो मेरे मन में आता है, उसे हिंदी में ‘अनहोनी’ कहते हैं, मतलब जो कभी नहीं होना चाहिए था.

रूस और साहसी, ताकतवर नेता, व्लादिमीर पुतिन ने इसे कैसे किया?

जब 2022 की शुरुआत में रूस पर पाबंदियों की पहली झड़ी गिरी, तो रूस ने शास्त्रीय अंदाज में इसका जवाब दिया. रूस ने ब्याज दरें 20% तक बढ़ा दीं और डॉलर को रूस में क्वारंटीन करके रखने और रूबल को कंट्रोल में करने के लिए कदम उठाए. लेकिन इस सामान्य रणनीति ने किसी को अचरज में नहीं डाला. इस रणनीति ने रूबल को औंधे मुंह गिरने से बचाया जरूर हो लेकिन वो ऐसी मजबूती वो नहीं दे सकती थी.

जब रूस जैसी कमजोर इकनॉमी ये कमाल कर सकती है, तो भारत क्यों डरता है?
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पुतिन के दो पैंतरे

यहीं पर दबंग पुतिन ने अपनी ताकत दिखाई. उन्होंने रूबल पर दो जोखिम भरे, साहसी, लीक से हटकर दांव लगाए.

पुतिन का पहला पैंतरा

1. सबसे पहले, रूस के केंद्रीय बैंक ने मार्च में घोषणा की कि 30 जून तक एक ग्राम सोना 5000 रूबल की फिक्स कीमत पर खरीदेगा. यह एक स्मार्ट सोच थी. क्योंकि इससे रूबल की वैल्यू गोल्ड की कीमत से जुड़ती है. दुनिया में बहुत से देश कारोबार के लिए गोल्ड का इस्तेमाल करते हैं. और आपको ये याद रखना चाहिए कि गोल्ड पहले से ही रूस में काफी है.

दुनिया में सालाना गोल्ड का जितना खनन होता है उसका 10 फीसदी रूस में ही होता है. इसके पास जनवरी 2022 में 2300 मीट्रिक टन सोना था, जो वैश्विक स्तर पर पांचवां सबसे बड़ा भंडार था. इस तरह से रूस ने रूबल रखने वालों को भरोसा दिया कि अब जो फ्री फॉल रूबल में है वो थम गई है. क्योंकि अगर सोना गिर नहीं रहा है तो फिर रूबल क्यों गिरेगा?
जब रूस जैसी कमजोर इकनॉमी ये कमाल कर सकती है, तो भारत क्यों डरता है?

इसके बाद, रूस ने बड़ी चतुराई से विश्व मीडिया में एक 'अफवाह' फैला दी कि वह लगभग एक सदी तक गोल्ड स्टैंडर्ड को छोड़ने के बाद फिर से उसे लागू करने की योजना बना रहा है. पुतिन ने ऐसा कहा और उनके सिक्योरिटी काउंसिल के सेक्रेटरी पेत्रुशेव ने इसे दोहराया. पुतिन ने मामले को गर्माए रखा जब तक कि उनके केंद्रीय बैंक के गवर्नर ने इस तरह के किसी कदम या योजना को पूरी तरह से खारिज नहीं कर दिया. इस जुगलबंदी ने अपना काम कर दिखाया.

रूबल ने अपना खोया हुआ मूल्य वापस पा लिया. रूस ने ये सब हासिल कर लिया गोल्ड स्टैंडर्ड लागू करने को लेकर बिना किसी वादे के अब दो हफ्ते के भीतर ही, रूस 5000 रूबल की फिक्स प्राइस पर एक ग्राम सोना खरीदने की अपनी नीति से भी पीछे हट गया है. वो अब मोलभाव करके गोल्ड खरीदने पर वापस आ गया.

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पुतिन का पहला पैंतरा

2. रूबल पर पुतिन का दूसरा जुआ और भी जोरदार था. और आखिर यह नाटक कैसे समाप्त होगा, अभी इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता. पुतिन ने अपने गैस/तेल खरीदारों को रूबल में पेमेंट करने का निर्देश देते हुए सभी डॉलर कॉन्ट्रैक्ट रद्द करने की धमकी दी. उनको लगता था कि उनके पास जो जरूरी गैस और तेल सप्लाई की ताकत है, वो अमेरिकी डॉलर से ज्यादा बलवान है. रूस अपने इस एक्शन में चीन और भारत, खासकर चीन जिसने हमेशा ही अमेरिकी डॉलर के ग्लोबल वर्चस्व का विरोध किया है, से मदद की उम्मीद की.

जब रूस जैसी कमजोर इकनॉमी ये कमाल कर सकती है, तो भारत क्यों डरता है?

रूस ने अपने इरादों की मजबूती दिखाने के लिए पोलैंड और बुल्गारिया को एनर्जी एक्सपोर्ट रोक दी, क्योंकि इन दोनों देशों ने रूबल में पेमेंट करने से मना किया था. अब पश्चिमी ताकतें रूस के इस जोर आजमाइश को बड़ी-बड़ी आंखों से घूर रही हैं, तो दूसरे लोग बहुत चौकस हो गए हैं. चार यूरोपीय देशों के रूबल में पेमेंट के लिए सहमत होने की भी खबर है, जबकि 10 बड़े कॉरपोरेशन ने गैसप्रॉमबैंक के साथ डील की है.

फिलहाल हम इस अर्थ युद्ध में एक मुश्किल ‘डर का संतुलन’ देख रहे हैं. क्या पश्चिमी देश रूसी गैस/तेल सप्लाई रोकने में असरदार तरीके से सफल होंगे और पुतिन के 'रूबल ट्रिक' को खत्म कर पाएंगे? या अगर गैस की कीमतें उछलती हैं, महंगाई तेजी से बढ़ती है, और सड़क पर विरोध बढ़ता है, क्योंकि लोग घरों को गर्म रखने या खाना पकाने में असमर्थ हो जाते हैं, तो क्या वो देश आत्मसमर्पण कर देंगे?

भले ही ये एक घिसा-पिटा जबाव लगे लेकिन फिलहाल वही कहावत "केवल समय ही बताएगा" पर ही इन सवालों को छोड़ देना चाहिए.

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भारत को किसने रोका?

अब आप पूछेंगे कि ऐसे समय पर जब रूस जैसे देश ने पूरी दुनिया को युद्ध से दहला दिया है, तो फिर उसका गुणगान क्यों? नहीं जनाब! मेरे मन में पुतिन या फिर उनके देश के लिए इतिहास के इस मोड़ पर रत्ती भर भी तारीफ नहीं है. इसके बजाय मैं ये मिसाइल भारत के नीति निर्माताओं पर दाग रहा हूं, जो डॉलर मार्केट में भारत की मैक्रो-इकोनॉमी का फायदा उठाने से हिचकिचा रहे हैं.

इससे पहले के एक लेख में मैंने तीन नीतिगत सुझाव दिए थे, जिनसे अपने देश में 50 बिलियन डॉलर आसानी से आ सकते थे. इससे रुपया मजबूत होता और बॉन्ड यील्ड कम. लेकिन हमारे नीति निर्माता इससे पीछे हट गए. उनको ये बाहर से मुसीबत बुलाने जैसा लगा, जिससे आर्थिक परेशानी बढ़ सकती है. मैं सिर्फ उन्हें ये दिखाना चाहता था कि रूस ने विदेशी मुद्रा के उतार-चढ़ाव को कैसे नियंत्रित किया है.

अगर रूस जैसी कमजोर इकोनॉमी पाबंदियों के बावजूद ऐसा कर सकती है तो जरा सोचिए हमारे जैसे मजबूत डॉलर भंडार वाला देश कितना कुछ कर सकता है.

अगर इसका कोई उल्टा नतीजा आता है, तब भी व्यापक और तार्किक आर्थिक नीति वाला देश भारत बहुत चतुराई के साथ उसे संभाल सकता है. हमें बस जरा साहस और समझदारी की जरूरत है. काश, नौकरशाही इन शब्दों के मायने समझ पाती!

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(राघव बहल क्विंटिलियन मीडिया के को-फाउंडर और चेयरमैन हैं, जिसमें क्विंट हिंदी भी शामिल है. राघव ने तीन किताबें भी लिखी हैं- 'सुपरपावर?: दि अमेजिंग रेस बिटवीन चाइनाज हेयर एंड इंडियाज टॉरटॉइस', "सुपर इकनॉमीज: अमेरिका, इंडिया, चाइना एंड द फ्यूचर ऑफ द वर्ल्ड" और "सुपर सेंचुरी: व्हाट इंडिया मस्ट डू टू राइज बाइ 2050")

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