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Salman Rushdi पर हमला: खतरनाक बात यह है कि नफरत 34 सालों तक जिंदा रह सकती है

आजादी के वक्त दिलों में जो खाइयां थीं, वह अब भी बरकरार हैं और उन्हें कभी भी चौड़ा किया जा सकता है

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अभी भारत की आजादी के 75वें साल का जश्न शुरू ही हुआ था कि न्यूयॉर्क में उसके स्वघोषित ‘मिडनाइट चाइल्ड’, यानी सलमान रश्दी (Salman Rushdi) को चाकू घोंप दिया गया. वह जगह और प्रसंग, दोनों ही विडंबनापूर्ण हैं. सलमान रुश्दी पश्चिमी न्यूयॉर्क के चौटाक्वा इंस्टीट्यूट में थे. इस संस्थान की ख्याति इस मायने में है कि यह निर्वासित लेखकों और दूसरे कलाकारों को शरण देता है.

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रचनात्मक अभिव्यक्ति की आजादी का केंद्र है, और एक शांतिप्रिय स्थान है. अब हैरान और हताश होकर लोग अमेरिका और भारत में एक ही सवाल पूछ रहे हैं- “क्या कुछ भी सेक्रेड, यानी पूजनीय नहीं है?”

अब नहीं. सोशल मीडिया ने व्यक्ति और उसके आदर्श के बीच की खाई को पाट दिया है. उसके आदर्शों के खिलाफ मौखिक हिंसा आम है. शायद शारीरिक हिंसा बस एक फर्लांग दूर है. वह दिन बीत चुके हैं, जब गुस्से को जाहिर करने के लिए तमाम तरीके तलाशने पड़ते थे. शायद सुरक्षाकर्मियों को पहले से ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है. खासकर, सलमान रुशदी के मामले में न्यूयॉर्क पुलिस डिपार्टमेंट (NYPD) ने बहुत ज्यादा लापरवाही की है.

स्नैपशॉट

• न्यूयॉर्क में सलमान रश्दी पर घातक हमले के बाद अमेरिका और भारत में लोग हैरान और हताश होकर एक ही सवाल पूछ रहे हैं- “क्या कुछ भी सेक्रेड, यानी पूजनीय नहीं है?

• सोशल मीडिया ने व्यक्ति और उसके आदर्श के बीच की खाई को पाट दिया है. उसके आदर्शों के खिलाफ मौखिक हिंसा आम है.

• लेकिन इससे भी खतरनाक वह सवाल है कि कोई कितने लंबे समय तक मन में दुश्मनी रख सकता है? इस मामले को 34 साल बीत चुके हैं.

• विभाजन हमारी पसंदगी को घेराबंद करते हैं क्योंकि वे हम पर जातिवाद को थोपते हैं और हमारी अभिव्यक्तियों को सीमित करते हैं.

• अगर कोई इनसान सलमान रश्दी के भाषण को सिर्फ इसलिए सुनने जाता है क्योंकि उसके दिल में उनके कत्ल का जुनून है, और वह भी खुमैनी के फतवे के तीस साल बाद तो हम समझ सकते हैं कि आधी रात की आजादी के वक्त दिलों में जो खाइयां थीं, वह अब भी बरकरार हैं.

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वो एक इंटरव्यू

लेकिन इससे भी खतरनाक वह सवाल है कि कोई कितने लंबे समय तक मन में दुश्मनी पाल सकता है? इस मामले को 34 साल बीत चुके हैं. जिब्राइल फरिश्ता और सलादीन चमचा 1988 में इंग्लिश चैनल के ऊपर आसमान से गिरे और उस जुदाई यथार्थवाद ने 'द सैटेनिक वर्सेज' की कहानी की रचना की. लेकिन इस प्रयोग में शायद किसी का नुकसान नहीं होता, अगर इंडिया टुडे में सलमान रुशदी का वह विवादास्पद इंटरव्यू न छपता. उस इंटरव्यू को लच्छेदार शैली में और मसालेदार बनाया गया. इसके बाद ईरान में अयातुल्ला खुमैनी नाराज हुए- वह भी, 'द सैटेनिक वर्सेज' को पढ़े बिना.

किताब में भगवान की आलोचना की गई है, इस आरोप के साथ रुशदी के खिलाफ फतवा जारी किया गया. उनका सिर कलम करने पर इनाम रखा गया. यूके में मार्गरेट थैचर की सरकार ने उन्हें सालों तक छिपाए रखा, जैसा कि रुश्दी ने अपने संस्मरण, जोसेफ एंटोन में लिखा है. जिन लोगों ने यह किताब पढ़ी है, वे जानते हैं कि रुशदी से नाराज रहने वालों ने उस किताब का एक भी अक्षर भी नहीं पढ़ा. अपनी जहालत में उन लोगों ने सिर्फ खौफ के चलते सेंसरशिप की संस्कृति पैदा की. आधुनिक लोकतंत्र के इतिहास में पहली दफा ऐसा हुआ था.

जोसफ एंटोन में रुशदी ने कहा है कि भारत ने 'द सेटेनिक वर्सेज़' को बैन करने में जल्दबाजी दिखाई. राजीव गांधी ने हिंसा की आशंका में सैयद शहाबुद्दीन की मांग पर यह कदम उठाया.

बैन करना भारत में बहुत आसान है. आज उसी डर के साए में सरकार तुरत-फुरत इंटरनेट काट देती है, और भारत में डिजिटल ब्लैकआउट हो जाता है.,

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किताब के बैन होने के समय, कस्टम अधिकारी अपने काम को बहुत संजीदगी से करते थे. हवाई यात्रियों के सामान की तलाशी ली जाती थी- कहीं कोई अपने साथ शराब, 555 सिगरेट, बड़ी मात्रा में कैमे साबुन, और प्रतिबंधित किताबें तो नहीं लाया. इसलिए भारत में 'द सेटेनिक वर्सेज' की फोटोकॉपियां बिकीं- ठीक वैसे ही, जैसे सोवियत संघ में सेमिजैट साहित्य (यानी सोवियत सरकार की आलोचना करने वाला साहित्य) दबे-छिपे बिकता था.

फतवा ने इशारा किया था कि आगे दुनिया दो फाड़ होने वाली है

रुश्दी के लिए सेंसरशिप कोई नई बात नहीं थी. पाकिस्तान रेडियो के लिए एडवर्ड एल्बी की ज़ू स्टोरी के प्रोडक्शन में उन्हें कई बदलाव करने पड़े थे. जब उनकी किताब भारत में बैन थी, तब उन्होंने कई बार यहां के दौरे किए, चूंकि उन्हें अपने नए उपन्यासों के लिए लोकेशंस देखनी थी. फिर उन्हें जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में फिर से सेंसर कर दिया गया. डर था कि हिंसा न भड़क जाए. हालांकि पाकिस्तान में उनके साथ ज्यादा अच्छा सलूक किया गया, जबकि उनके उपन्यास शेम में पाकिस्तान और हिंसा की कहानी थी. इसके बाद मिडनाइट चिल्ड्रन आई जो उनकी शायद सबसे बेहतरीन और कसी हुई रचना है.

जबकि 'द सैटेनिक वर्सेज भारत' में अब भी बैन है, रुश्दी की हत्या के लिए रखा इनाम 30 लाख डॉलर से बढ़ चुका है. 2016 में ईरान सरकार से जुड़े समाचार संगठनों ने उनके सिर को कलम करने का इनाम बढ़ाकर 600,000 डॉलर कर दिया है. यानी वह चिंगारी अभी बुझी नहीं है.

लेकिन रुश्दी की हत्या का इरादा, इनाम के लालच से कभी प्रेरित नहीं था. यह अपनी बिरादरी की इज्जत और उसकी हिफाजत का सवाल था. भारत में अयोध्या एक ज्वलंत मुद्दा थी. शहाबुद्दीन ने इसके खिलाफ मोर्चा निकालने की धमकी दी थी और राजीव गांधी ने 'द सैटेनिक वर्सेज' को बैन करके उनके हाथ से वह मौका छीन लिया था. तीन साल बाद ही बोस्निया युद्ध शुरू हो गया था, और इसके बाद अमेरिका इराक में घुस गया था और अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया. सबसे निर्णायक मोड़ था, 9/11 का हमला, जहां सभ्यताओं का टकराव सिर चढ़कर बोल रहा था, वहीं दूसरी ओर शार्ली एब्दो की घटना जैसी सांस्कृतिक झड़पें भी हो रही थीं.

रुश्दी के खिलाफ फतवे के साथ विश्व स्तर पर आंदोलन की चेतावनी मिल चुकी थी. इशारा साफ था कि मुस्लिम समुदाय जिसे अपनी इज्जत और विश्वास मानते हैं, उसकी रक्षा के लिए खड़ा हो रहा है. दूसरी तरफ बाकी दुनिया उन्हें बदनाम करने के लिए कमर कसे हुए है. 'द सैटेनिक वर्सेज' का खूनी इस्तेकबाल आने वाले दिनों में उस विभाजित दुनिया का अक्स दिखा रहा था जिसमें आज हम रहते हैं.
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हमारे देश में सेंसरशिप और मौन बहुत आसानी से थोप दिए जाते हैं

विभाजन हमारी पसंदगी को घेराबंद करते हैं क्योंकि वे हम पर जातिवाद को थोपते हैं और हमारी अभिव्यक्तियों को सीमित करते हैं. लेकिन भारत में सेंसरशिप और मुंह बंद करने के लिए किसी दूसरे समुदाय की हठधर्मिता की दरकार नहीं. इसके लिए ऐसे शैतान गढ़े गए हैं जिनका कोई दीन-ईमान नहीं. बहुमत जिनके खिलाफ एकजुट होकर, अपमानजनक शैली का इस्तेमाल करना चाहे, ये शैतान उनके खिलाफ मोर्चा खोल लेते हैं. भगवान की निंदा का अब मजहब से कोई लेना-देना नहीं. बहुमत को जो भी असुविधाजनक महसूस हो, वही ईश्वर की तौहीन मान लिया जाता है, और प्रदूषणकारी भी.

अगर कोई इनसान सलमान रुशदी के भाषण को सिर्फ इसलिए सुनने जाता है क्योंकि उसके दिल में उनके कत्ल का जुनून है, और वह भी खुमैनी के फतवे के तीस साल बाद तो हम समझ सकते हैं कि आधी रात की आजादी के वक्त दिलों में जो खाइयां थीं, वह अब भी बरकरार हैं. भले उस पर घास-पात उग आई हो लेकिन उस खाई को कभी भी फिर से चौड़ा किया जा सकता है.

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(प्रतीक कांजीलाल द इंडिया केबल के संपादक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यह लेखक के अपने विचार हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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