न्यायपालिका की नाराजगी का खतरा उठाते हुए भी मैं निश्चितता के भरपूर पुट के साथ कह सकता हूं कि लखनऊ में विशेष सेशन जज द्वारा बाबरी मस्जिद विध्वंश मामले में बीजेपी के दिग्गज नेता एलके आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार और संघ परिवार के अन्य नेताओं को आपराधिक साजिश का दोषी ठहराने की संभावना कम ही है.
यह तथ्य कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में वह घटनाएं, जिनके चलते 16वीं सदी का विवादास्पद ढांचा गिराया गया, एक आपराधिक योजना के रूप में देखी जा रही हैं, रामजन्म भूमि आंदोलन के दूरगामी राजनीतिक प्रभाव को समझ पाने में विफलता की ओर इशारा करता है. सर्वोच्च न्यायालय के रोजाना सुनवाई करने और दो साल में मामला निपटा देने के निर्देश की यह व्याख्या करना कि इंसाफ का पहिया घूम रहा है, आदेश के राजनीतिक प्रभाव की खराब समझ को दर्शाता है.
गहरी साजिश
जो लोग तर्क दे रहे हैं कि अगर बड़ी साजिश नहीं होती तो बाबरी मस्जिद का विध्वंश नहीं होता, वो अगुवाई करने और ढांचे को गिराने की साजिश में सक्रिय भागीदारी वाले नेताओं की “इच्छा” को समझ नहीं पा रहे हैं. अयोध्या आंदोलन से जुड़ा हर नेता असंदिग्ध रूप से इसके संभाव्य विध्वंश का पक्षधर था; किसी समय कुछ लोग दूसरों से ज्यादा हो सकते हैं. कुछ लोगों ने इस काम में “मदद” भी की हो सकती है, लेकिन यह बारीक विवरण के साथ पहले से तयशुदा होता, तो भी सबूतों के अभाव में इसे कभी भी साबित नहीं किया जा पाता. यह समझना जरूरी है कि तीन गुंबदों को जमीन पर गिरा दिए जाने के बाद यह देख मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती प्रफुल्तित क्यों थे. लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि आडवाणी ने क्यों कहा कि 6 दिसंबर 1992 उनकी जिंदगी का “सबसे दुखद दिन” था.
राजनीतिक रूप से यह बड़ी हानि का क्षण था, क्योंकि संघ परिवार ने हमेशा के लिए वह “लाल झंडा”- या हिंदू “दासता” का प्रतीक- हमेशा के लिए खो दिया, जिसे लहरा कर हिंदुत्व के लिए समर्थन जुटाया जाता था.
राजनीतिक परिदृश्य से बाबरी मस्जिद को मिटा देने के बाद संघ परिवार फिर कभी भी राम मंदिर के नाम पर लोगों की इतनी बड़ी भीड़ नहीं जुटा सका.
नियमित सुनवाई और गर्मागर्म बहस
एक हद तक सुप्रीम कोर्ट का आदेश भाजपा और इसके विस्तृत परिवार को फायदा ही पहुंचाएगा. इससे हिंदू आंदोलन का नया चक्र शुरू होगा. प्रतिदिन होने वाली सुनवाई, जो जल्द ही शुरू होगी, से यह मुद्दा एक बार फिर से संदूक से बाहर आ जाएगा. मुस्लिम शासक हिंदू-विरोधी थे या नहीं और क्या भारत उनके हमले से पहले सोने की चिड़िया था, यह बहस नेपथ्य से फिर से चर्चा के केंद्र में आ जाएगी.सामाजिक पूर्वाग्रह गहरे होंगे और नि:संदेह हिंदुत्व के विचार के लिए भारी समर्थन जुटेगा.
अदालत की प्रतिदिन की सुनवाई भरपूर ड्रामाई होगी और कोई शक नहीं कि टेलीविजन चैनल इसकी कवरेज में प्रक्षेपक की भूमिका में आ जाएंगे. चूंकि “दिखाने” को कुछ नहीं होगा, इसलिए जोर उन घटनाओं को “पुनर्जीवित” करने पर ज्यादा होगा, जैसी कि वो घटित हुई थीं.
यह बाबरी विध्वंश की 25वीं वर्षगांठ भी है, और दोनों खेमों की तरफ से सबसे जहरीली जुबानी जंग छेड़ने की कोशिश भी होगी. हर मुमकिन पहलू पर बहस होगी- यहां तक कि 6 दिसंबर “शौर्य दिवस” के रूप में मनाया जाए जैसा कि वीएचपी 1993 से हर साल कर रही है या “काला दिन” के रूप में मनाया जाए, जैसा कि मुस्लिम संगठन इसे कहते हैं.
कट्टरपंथी और उदारवादी
अयोध्या मामले की चर्चा के केंद्र में वापसी केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ दल का भी सिरदर्द बढ़ाएगी. आंदोलन की शुरुआत से ही इसमें सक्रिय भूमिका निभाने को लेकर संघ परिवार में कट्टरपंथी और उदारवादी विचारधारा में टकराव रहा है.1980 के दशक के उत्तरार्ध और 1990 के दशक की शुरुआत में आडवाणी कट्टरपंथी थे और वाजपेयी उदारवादी.
2004 के बाद अपना आडवाणी ने अपना रुख उदारवादी बना लिया और जिन्ना वाला कुख्यात बयान दिया तो नरेंद्र मोदी कट्टरपंथी बन गए. मोदी को भी 2014 के चुनाव अभियान के दौरान प्रवीण तोगड़िया जैसों से चुनौती मिली.
एक समय था जब योगी आदित्यनाथ हिंदुत्व के आक्रामक प्रतीक थे, लेकिन अब उन पर कानून और व्यवस्था बनाए रखने का दायित्व होगा. उन्हें पार्टी की नीति कि कानून के दायरे में राम मंदिर बनना चाहिए और कार्यकर्ताओं में बढ़ती बेचैनी के बीच संतुलन साधना होगा. चुनौती सिर्फ योगी या मोदी नहीं बल्कि मोहन भागवत के सामने भी है. वह और उनके वरिष्ठ नेता कैसे लोगों को समझाएंगे कि राम मंदिर कहीं ज्यादा बड़े अभियान का एक छोटा हिस्सा है- जिनका मकसद देश के मौलिक सिद्धांतों को बदल देने का है.
अगर योगी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ना होते तो…
यह देखते हुए कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश की पृष्ठभूमि काफी समय से बन रही थी, कहा जा सकता है कि आदित्यनाथ का चुनाव इस परिघटना से निर्देशित था. उस दृश्य की एक पल के लिए कल्पना कीजिए कि वह आग उगलने वाले एक सांसद होते, हिंदू युवा वाहिनी ने नए सदस्यों की भरती पर रोक नहीं लगाई गई होती और संभावित मुख्यमंत्री पद के लिए विचार किए गए नेताओं में से कोई गद्दी पर बैठा होता. क्या तब योगी हिंदुत्व के झंडे तले सभी युद्धोन्मत नेताओं की अगुवाई नहीं कर रहे होते? अगर ऐसा होता तो यूपी सरकार, या इस मामले में मोदी खुद, क्या कदम उठाते? यहां तक कि अभी भी इसकी कोई गारंटी नहीं है कि संघ परिवार के कुछ लोग प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के “उदारवादी रवैये” का प्रतिकार करने के लिए नेताओं को आगे नहीं बढ़ाएंगे.
बहुत धूमिल है समझौते की उम्मीद
राम मंदिर अकेला अंतिम मुद्दा नहीं है, इस सरकार का चुनाव संघ परिवार की अंतिम ख्वाहिश पूरी हो जाना भी नहीं है. किसी भी अन्य व्यक्ति के मुकाबले मोदी इस बात को सबसे ज्यादा जानते हैं. इसलिए दबाव ऐसे उपाय करने का है जिससे कि विकास और राम मंदिर, बिना एक की भी उपेक्षा किए, दोनों पर बराबर ध्यान दिया जाए.
इसमें थोड़ा ही संदेह है कि सुप्रीम कोर्ट का 19 अप्रैल का आदेश पूरी तरह उस चर्चा को बंद कर देता है कि मोदी आडवाणी को राष्ट्रपति भवन भेज कर गुरु दक्षिणा अदा करेंगे.
जोशी के साथ आडवाणी के लिए भी परदा गिर चुका है. जहां तक उमा भारती का सवाल है, उनके लिए कोई कानूनी बाध्यता नहीं है कि वो त्यागपत्र दें, क्योंकि उन पर अभी जुर्म साबित नहीं हुआ है. लेकिन चूंकि उनके मोदी के साथ कामकाजी रिश्ते सहज नहीं हैं, देखना होगा कि क्या इनमें से कोई इसका इस्तेमाल दूसरे से छुटकारा पाने के लिए करता है.
जहां तक अयोध्या विवाद का मुद्दा है, समझौते की उम्मीद बहुत कम है और इस पर गतिरोध बने रहने की संभावना है. सर्वोच्च अदालत का आदेश चिंगारी को बुझने नहीं देगा, और मोदी व लखनऊ में उनके नामांकित योगी को ध्यान रखना होगा कि ये चिंगारी कहीं जंगल की आग ना बन जाए.
(लेखक दिल्ली स्थित लेखक व पत्रकार हैं. इन्होंने “नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स” और “सिख: द अटोल्ड एगोनी ऑफ 1984” पुस्तकें लिखी हैं. इनसे @NilanjanUdwin. पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक वैचारिक लेख है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट ना तो इनका समर्थन करता है ना ही इसके लिए उत्तरदायी है.)
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)