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श्रीलंका के आर्थिक संकट से भारतीय अर्थव्यवस्था की तुलना करना कितना सही?

वैश्विक मंदी के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल्यांकन

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(यह दो पार्ट का आर्टिकल है, जिसमें इस बात का विश्लेषण किया गया है कि भारतीय और श्रीलंकाई अर्थव्यवस्थाओं के बीच जो व्यापक तुलना की जा रही है क्या वह सही है? भले ही भारत निश्चित तौर पर श्रीलंका के रास्ते पर नहीं है लेकिन उसे (भारत को) खुद के लाल संकेतों को स्वीकार करने की जरूरत है. इस आर्टिकल का पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं.)

भारत में अधिकांश सोशल मीडिया में श्रीलंका की आर्थिक स्थिति पर जो कुछ कहा और लिखा जा रहा है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं के बीच तुलना हो रही है. भले ही हमने पिछले लेख में देखा था कि इस तरह की तुलनाएं कितनी सरल हैं और भारत की स्थिति की गलत समझ पर आधारित हैं, लेकिन भारत की आर्थिक स्थिति और इसके कर्ज पर बात जरूर होनी चाहिए.

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कोई राजकोषीय फिसलन नहीं, लेकिन...

सीएमआईई CMIE के आंकड़ों के अनुसार, केंद्र सरकार 2021-22 में अपने राजकोषीय घाटे को 15.87 ट्रिलियन रुपये पर रोकने में सक्षम रही, जो कि इसके संशोधित अनुमान से 45.5 बिलियन रुपये कम है. 6.9 प्रतिशत के संशोधित अनुमान की तुलना में घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 6.7% रहा. 2021-22 के संशोधित अनुमान से सरकार ने 241.7 बिलियन रुपये अधिक खर्च किए हैं.

भारत का रेवेन्यू खर्च (revenue expenditure) 32 ट्रिलियन रुपये रहा, जोकि संशोधित अनुमान से 333.1 बिलियन रुपये अधिक था, जबकि पूंजीगत खर्च (capital expenditure) 5.93 ट्रिलियन रुपये रहा, जो इसके संशोधित अनुमान से केवल 91.4 बिलियन रुपये कम था. केंद्र की विनिवेश प्राप्तियां (disinvestment receipts) 146.4 बिलियन रुपये रही जोकि 780 बिलियन रुपये के संशोधित अनुमान से काफी कम थीं. लेकिन नेट टैक्स रेवेन्यू (net tax revenue) और नॉन टैक्स रेवेन्यू (non-tax revenue) उनके संशोधित अनुमानों से क्रमश: 552.5 बिलियन रुपये और 342.5 बिलियन रुपये से अधिक हो गया जिसकी वजह से सरकार को राजकोषीय फिसलन का अनुभव किए बिना अपनी व्यय (expenditure) योजनाओं पर टिके रहने में मदद मिली.

केंद्र सरकार के एक्सपेंडिचर प्रोग्राम की शुरुआत 2022-23 के लिए काफी धीमी रही. सरकार ने अप्रैल 2022 में 2.7 ट्रिलियन रुपये खर्च किए. भले ही यह पिछले के मुकाबले 21.2 फीसदी ज्यादा था लेकिन एक्सपेंडेचर (खर्च) 39.4 ट्रिलियन रुपये की वार्षिक बजट राशि का 7 फीसदी भी नहीं था.

मई 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से, केंद्र सरकार ने वित्तीय वर्ष के पहले ही महीने में अपने वार्षिक बजट व्यय का औसतन 9.4 फीसदी खर्च किया है. अप्रैल 2022 में सरकार ने 789 बिलियन रुपये खर्च किए जो वार्षिक पूंजीगत व्यय बजट का 10.5 फीसदी के बराबर है.

वहीं अप्रैल 2022 में रेवेन्यू एक्सपेंडेचर यानी राजस्व व्यय की बात करें तो यह 2 ट्रिलियन रुपये रहा, जो वार्षिक बजटीय राजस्व व्यय का 6.1 फीसदी था. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा चालू वित्त वर्ष के लिए 1.1 ट्रिलियन रुपये की अतिरिक्त उर्वरक सब्सिडी और 800 बिलियन रुपये की लागत से सितंबर 2022 तक पीएमजीकेएवाई के विस्तार का वादा किया था, लेकिन इसके बावजूद प्रोग्रेस काफी धीमी रही.

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आगे राजकोषीय संकट है?

रेवेन्यू यानी राजस्व के संदर्भ में बात करें तो 2022-23 के लिए लक्षित अपने नेट टैक्स कलेक्शन का 8.9 फीसदी (1.8 ट्रिलियन रुपये) हासिल करने में सरकार अप्रैल में ही सफल हो गई थी. पेट्रोलियम ईंधन पर उत्पाद शुल्क (excise duty) में कटौती और कुछ अन्य उत्पादों पर आयात शुल्क (import duties) में कमी करने की वजह से केंद्र का नेट टैक्स रेवेन्यू फ्लो प्रभावित हो सकता है. सरकार ने अनुमान लगाया है कि इस पर 1 ट्रिलियन रुपये से अधिक के राजस्व नुकसान का हो सकता है.

अप्रैल 2022 में नॉन-टैक्स राजस्व प्राप्तियां (Non-tax revenue receipts) 119.4 बिलियन रुपये थी, जिसने वार्षिक बजट लक्ष्य में महज 4.4% का योगदान दिया. वहीं गैर-ऋण पूंजी प्राप्तियां (Non-debt capital receipts) जिसमें मुख्य तौर पर विनिवेश (disinvestment) आय शामिल है, की बात करें तो अप्रैल 2022 में यह महज 34.9 बिलियन रुपये थी. अप्रैल 2022 में सकल राजकोषीय घाटा (GFD : gross fiscal deficit) 748.5 बिलियन रुपये (वार्षिक बजट टारगेट का 4.5%) था, जोकि पिछले साल के 787 बिलियन रुपये से कम रहा.

आशावादी GST रेवेन्यू के बावजूद भारत के पास मैक्रो-फिस्कल परिदृश्य में बताने के लिए सीमित राजकोषीय सफलताएं हैं. डॉ रथिन रॉय के शब्दों में इसका मतलब है कि भारत एक मंदी : "तीन एकाउंटिंग वर्ष से सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी में लगातार गिरावट" से उत्पन्न "शांत राजकोषीय संकट" का सामना कर रहा है.

डॉ रॉय के मुताबिक विकासशील देश के संदर्भ में भारत की 'मंदी' ज्यादा अनोखी है, यह सामान्य परिणामों के साथ वित्त वर्ष 2016 से चली आ रही है, इसमें विशेष तौर पर टैक्स रेवेन्यू उछाल की गिरावट शामिल है.

हाल ही डॉ. रॉय ने में तर्क देते हुए कहा :

"वित्त वर्ष 22 में टैक्स उछाल वित्त वर्ष 19 के 0.8 की तुलना में 1.4 था, लेकिन चिंताजनक रूप से, वित्त वर्ष 23 में इसके 0.67 तक गिरने का अनुमान है. यह दिखाता है कि बढ़ती उछाल अस्थायी थी और बड़े पैमाने पर यह बेस इफेक्ट के कारण था... इस प्रकार अभी भी राजकोषीय संकट हम पर बना हुआ है. वहीं दो महत्वपूर्ण पहलुओं ने इस संकट को और भी बढ़ा दिया है. पहला, सरकार ने अपनी राजस्व समस्याओं को हल नहीं किया है. हालांकि उम्मीदों को कम करना प्रशंसनीय यथार्थवाद है, लेकिन यह कम राजस्व उछाल की समस्या का समाधान नहीं है. यह भारत के शांत राजकोषीय संकट का एक अहम कारक है. इसका मलतब यह है कि मध्यम अवधि में उधार लेने की जरूरत तब तक बढ़ती रहेगी जब तक सरकार खर्च कम करके घाटे को कम करने का इरादा नहीं रखेगी."

भारत सरकार को इस पर ध्यान देने की जरूरत है. लघु से मध्यम अवधि में केंद्र और राज्य, दोनों सरकारों को "उधार लेने की जरूरत" (या तो घरेलू या बाहरी तरीकों (विदेशी मुद्रा में)) के कारण उच्च मैक्रो-ऋण-से-जीडीपी अनुपात के लिए मजबूर होना पड़ेगा.

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मैक्रो-क्रेडिट ग्रोथ : मिली-जुली तस्वीर

8 जून 2022 को भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने रेपो दर को 50 आधार अंकों (bps) से बढ़ाकर 4.9% कर दिया. RBI द्वारा इससे पहले 4 मई 2022 को 40 बीपीएस की ऑफ-साइकिल दर में बढ़ोतरी करने का निर्णय लिया गया था. मौद्रिक नीति के स्टेटमेंट (monetary policy statement) में स्पष्ट तौर पर मुद्रास्फीति को आरबीआई के कंफर्ट जोन में वापस लाने के लिए उदार नीति (accommodative policy) को वापस लेने का उल्लेख किया गया है.

शेड्यूल कर्मशियल बैंक (SCB) की क्रेडिट ग्रोथ COVID-19 महामारी के दौरान गिर गई थी, वह 2021-22 के मध्य के बाद से ठीक होने लगी है. इसने अप्रैल 2022 तक 10 फीसदी का आंकड़ा पार कर लिया. डबल डिजिट वाली यह विकास दर 20 मई 2022 तक न केवल बनी रही बल्कि बढ़कर 11.5% तक पहुंच गई. अप्रैल 2022 तक उपलब्ध बकाया SCB क्रेडिट के विवरण से पता चलता है कि 2021–2022 के मध्य से विकास में देखा गया सुधार ब्रॉड-बेस्ड था.

इंडस्ट्री के लिए बकाया ऋण (outstanding credit) में साल-दर-साल वृद्धि सितंबर 2021 में 2.5 फीसदी थी जोकि अप्रैल 2022 तक बढ़कर 8.1 फीसदी हो गई है.

एमएसएमई को दिए जाने वाले क्रेडिट का इस ग्रोथ में सबसे ज्यादा प्रभाव रहा, जिसमें साल-दर-साल 35.1 फीसदी की वृद्धि हुई, जबकि बड़ी औद्योगिक इकाइयों के क्रेडिट में 1.6 फीसदी की वृद्धि हुई.

इस दौरान सेवा क्षेत्र के लिए बकाया एससीबी क्रेडिट में साल-दर-साल वृद्धि 0.8% से बढ़कर 11.1% हो गई. इसमें ज्यादातर क्रेडिट नॉन बैंकिंग फाइनेंसियल कंपनियों (NBFCs) को दिया गया था.

सीएमआईई के मुताबिक पर्सनल लोन में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई, अप्रैल 2022 के अंत तक इसमें 14.6 फीसदी की वृद्धि हुई है. इनमें से होम लोन में 13.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इसके अलावा वाहन खरीदी के लिए 11.5 फीसदी और कंज्यूमर ड्यूरेबल्स के लिए 64.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई. वहीं क्रेडिट कार्ड की आउटस्टैंडिंग में 20 फीसदी की बढ़त देखी गई. अप्रैल 2022 के अंत तक एडवांस्ड अगेन्स्ट फिक्स्ड डिपोजिट, शेयर्स, बॉन्ड्स आदि में डबल डिजिट की ग्रोथ हुई.

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यूक्रेन-रूस युद्ध ने कैसे हालात को बदतर बना दिया

इसमें कोई संदेह नहीं है कि रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से भारत की बैलेंस ऑफ पेमेंट (बीओपी) की स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है.

वैश्विक अनिश्चितता ने सभी क्षेत्रों में शॉर्ट टर्म कैपिटल फ्लाइट (एक ऐसी स्थिति जब किसी घटना की वजह से किसी देश से संपत्ति / पूंजी बड़े पैमाने पर आउट फ्लो होती है) के एपिसोड को ट्रिगर किया है, खास तौर पर विकासशील दुनिया में जहां विदेशी निवेशकों ने कम समय में उभरते बाजारों से अपना पैसा निकाला है. इसकी वजह से बाहरी/विदेशी ऋण स्थिति (एक विदेशी मुद्रा इकाई में मूल्यवर्ग) और उसके एक्सचेंज रेट (विदेशी मुद्रा जिसकी दर आंकी गई है) के लिए 'बाहरी' परेशानी पैदा होती है.

भारत के मामले में भी इसकी बाहरी वित्तीय स्थिति को भी थोड़ा झटका लगा है, एक बड़ा चालू खाता घाटा (उच्च आयात बिल के कारण) और एक बड़ा पूंजी खाता असंतुलन एफपीआई और एफआईआई से विदेशी निवेशकों के पैसे की निकासी के कारण देखा गया.

युद्ध और COVID-19 की वजह से सप्लाई चेन में आई बाधाओं के अत्यधिक प्रभाव ने भारत के बाहरी क्षेत्र दो तरह से प्रभावित किया है.

पहला, सप्लाई में बाधा आने और वैश्विक कमोडिटी कीमतों में वृद्धि होने की वजह से भारत के इंपोर्ट बिल में वृद्धि हुई, जिससे उसका चालू खाता घाटा (current account deficit) बढ़ गया है.

दूसरा, युद्ध की वजह से निवेशकों के बीच जोखिम से बचने और अमेरिकी ट्रेजरी दरों में वृद्धि की वजह से शॉर्ट टर्म कैपिटल आउटफ्लो को गति मिली.

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बढ़ता व्यापार घाटा

भारत का चालू खाता घाटा (CAD) दिसंबर 2021 की तिमाही में 9 साल के उच्च स्तर 23 बिलियन डॉलर पर पहुंच गया था. अनुमान के मुताबिक मार्च 2022 तिमाही में CAD में थोड़ी गिरावट आई और जून 2022 तिमाही में एक बार फिर विस्फोट हुआ. दिसंबर 2021 की तिमाही में भारत का व्यापारिक व्यापार घाटा (merchandise trade deficit) 60 बिलियन डॉलर के सर्वकालिक उच्चतम स्तर पर पहुंच गया था जोकि मार्च 2022 तिमाही में कम होकर 54.2 बिलियन डॉलर पर आ गया. नीचे आने के बावजूद भी मार्च तिमाही का व्यापार घाटा दिसंबर 2012 के बाद से अपने दूसरे उच्चतम स्तर पर रहा.

चालू वित्त वर्ष में व्यापार संतुलन बिगड़ गया 23.3 बिलियन डॉलर का सर्वकालिक उच्चतम व्यापार घाटा मई 2022 में देखा गया. हालांकि सेवाओं के निर्यात से शुद्ध आय में सुधार हुआ, लेकिन यह व्यापारिक व्यापार घाटे हुई वृद्धि की भरपाई के लिए पर्याप्त नहीं था.

चालू खाता घाटे के फाइनेंसिंग के लिए भारत के दो अहम स्रोत फॉरेन डायरेक्ट इंवेस्टमेंट्स (FDI) और फॉरेन पोर्टफोलियो इंवेस्टमेंट्स (FPI) हैं. इनमें से एफडीआई इनफ्लो मार्च 2022 की तिमाही में 12.8 बिलियन डॉलर के आकंड़े के साथ मजबूत था. वहीं इस तिमाही में 15.7 बिलियन डॉलर के ऑर्डर के साथ एफपीआई (FPIs) की बड़ी उड़ान देखी गई.

CMIE के रिकॉर्ड के मुताबिक पूंजी बाजार (capital market) में एफपीआई गतिविधि को लेकर नेशनल सिक्योरिटीज डिपॉजिटरी लिमिटेड (NSDL) द्वारा जारी किए गए आंकड़े बताते हैं कि चालू वित्त वर्ष में एफपीआई ने भारतीय बाजार से पैसा निकालना जारी रखा. उन्होंने (एफपीआई ने) इस साल 1 अप्रैल से 13 जून के बीच 10.5 बिलियन डॉलर के भारतीय इक्विटी और डेब्ट इंस्ट्रूमेंट्स बेचे.

भारत के बाहरी क्षेत्र के प्रदर्शन के कमजोर होने से इसके (भारत के) विदेशी मुद्रा भंडार और भारतीय रुपये के मूल्यांकन पर असर पड़ा है. अमेरिकी डॉलर (USD $)के मुकाबले भारतीय रुपया (INR) दिसंबर 2021 में 75.4 से गिरकर मार्च 2022 में 76.2 और मई 2022 में 77.3 पर आ गया. 13 जून 2022 को डॉलर के मुकाबले रुपया 78.14 के नए निचले स्तर को छू गया. अब यह लगभग 80 के करीब पहुंच रहा है.

हां तो निष्कर्ष यह है कि श्रीलंका का आर्थिक संकट भारत की वर्तमान व्यापक आर्थिक समस्याओं की प्रकृति और स्वरूप दोनों में काफी अलग हो सकता है, लेकिन भारत की अपनी बाधाएं हैं जिन पर उसे ध्यान देने की जरूरत है.

(दीपांशु मोहन,एसोसिएट प्रोफेसर और डायरेक्टर, सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज, जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी हैं. वह अर्थशास्त्र विभाग, कार्लटन यूनिवर्सिटी, ओटावा, कनाडा में अर्थशास्त्र के विजिटिंग प्रोफेसर हैं. आशिका थॉमस सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज, जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में रिसर्च एनालिसट हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है, और व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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