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संडे व्यू : संन्यास तो नहीं ले रहे राहुल? गुजरात में नहीं दिखी चुनौती

पढें आज तवलीन सिंह, टीएन नाइनन, केशव गुहा, पी चिदंबरम और संकर्षण ठाकुर के विचारों का सार.

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राहुल सियासत में हैं या संन्यास ले रहे हैं?

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में राहुल गांधी की यात्रा के स्वरूप पर प्रश्न उठाया है. उन्होंने लिखा है कि अगर यह आध्यात्मिक यात्रा है तो उन्हें चाहिए कि कांग्रेस का नेतृत्व किसी और के हाथ में सौंप दे. राहुल को याद दिलाना जरूरी है कि राजनीति में चुनाव जीतना सबसे जरूरी होता है. राहुल को यह सोचना होगा कि क्या वे राजनीति से संन्यास लेना चाहते हैं?

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तवलीन सिंह लिखती हैं कि दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं जो इन चुनावों में ऐसे छाए रहे जैसे हर जनपद में वे खुद लड़ रहे हों. हिमाचल में उन्होंने स्पष्ट कहा कि वोट करते समय मतदाता ध्यान रखें कि वे अपना वोट मोदी के नाम पर दे रहे हैं. ऐसा लगा जैसे चुनाव नहीं मोदी पर राय शुमारी हो रही हो.

नतीजों से साफ है कि गुजरात के लोगों ने स्थानीय मुद्दों की अनदेखी की, सिर्फ मोदी को ध्यान में रखा. लोगों ने मोरबी की घटना को भी याद नहीं रखा जिसमें घटना के लिए जिम्मेदार लोगों की गिरफ्तारी बाकी है.

वहीं हिमाचल प्रदेश में मोदी का वैसा जादू नहीं दिखा. अगर राहुल गांधी वक्त निकाल पाते तो हिमाचल की जीत और बड़ी हो सकती थी. ऐसे में सवाल यही है कि राहुल गांधी चाहते क्या हैं? क्या वे राजनीति से दूर हट कर नये रास्ते पर चलने लगे हैं? क्या उन्को वास्तव में कांग्रेस पार्टी की मृत्यु से की तकलीफ नहीं होगी?

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बीजेपी के प्रभुत्व को चुनौती ही नहीं मिली

केशव गुहा ने एनडीटीवी.कॉम में लिखा है कि गुजरात में बीजेपी की जीत के बाद आदतन कुछ बाते दोहरायी जा रही हैं. ईवीएम टैम्परिंग, धन बल, हिन्दुत्व, वोटर की अज्ञानता जैसी बातें कही जा रही हैं. एक और बात कही जा रही है कि बीजेपी इसलिए जीत गयी क्योंकि आप ने बीजेपी विरोधी वोटों को दो हिस्सों में बांट दिया. इनमें से हरेक कारण महत्वपूर्ण है. मगर, वास्तव में जो कारण है जिस कारण बीजेपी की एकतरफा जीत हुई है वह है बीजेपी के प्रभुत्व को जमीनी स्तर पर चुनौती नहीं दी गयी.

केशव गुहा लिखते हैं कि 52.5 फीसदी वोट पाने वाली बीजेपी को साझा विपक्ष भी चुनौती नहीं दे सकता था. 17 सीटें जीतने वाली कांग्रेस अगर उन सीटों को भी जीत लेती जहां वह दूसरे नंबर पर आयी है तो उसकी सीटें 33 होतीं. तब भी कांग्रेस का हार का रिकॉर्ड ही बना रही होती.

सितंबर 2021 में विजय रूपाणी को कैबिनेट समेत सत्ता से बाहर कर दिया गया था. तभी यह साफ हो गया था कि गुजरात में मोदी का चेहरा ही नेतृत्व है. गुजरात में आम आदमी पार्टी ने 40 सीटों पर अपनी मौजूदगी दिखलायी है. 12.5 फीसदी वोट और 5 सीटों पर जीत के साथ उसने बीजेपी की जीत को आसान बनाया. जिस तेजी से वह विभिन्न राज्यों में अपना प्रसार कर रही है वह महत्वपूर्ण है. उत्तराखण्ड से अलग हिमाचल में यह दिखा कि कांग्रेस यहां दोबारा चुनाव जीत सकती है. यहां प्रियंका गांधी को श्रेय दे रहे विद्वान चमचागिरी दिखा रहे हैं. वास्तव में स्थानीय कारकों की वजह से नतीजे आए हैं.

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उजाले की दस्तक हैं चुनाव नतीजे

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि तीन चुनावों में तीन दलों की जीत बढ़ते अंधकार के बीच उजाले की दस्तक की तरह है. ऐतिहासिक संदर्भ में उन्होंने लिखा है कि 1967 में कांग्रेस का प्रभुत्व समाप्त हुआ और कई राज्यों में क्षेत्रीय दल काबिज हुए तो 1977 में गैर कांग्रेसी सरकारों का दौर शुरू हुआ. केरल में बारी-बारी से सरकार बननी शुरु हुई तो 1990 के दशक से यही सिलसिला यूपी, राजस्थान, हिमाचल, प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में देखने को मिला.

सत्ता के दुरुपयोग के उदाहरण रखते हुए पी चिदंबरम ने लिखा है कि एमजी रामचंद्रन और उनकी पार्टी एआईडीएमके ने लगातार तीन चुनाव जीते, तो जे जयललिता और उनकी पार्टी भी ऐसा तीन बार कर सकी. नवीन पटनायक ने लगातार पांच बार तो बीजेपी ने गुजरात में (2002 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में) लगातार 6 चुनाव जीते हैं.

चिदंबरम ने सत्ता के दुरुपयोग और प्रौद्योगिकी व बाहुबल के इस्तेमाल के छह कारणों को चिन्हित किया है. इसके बावजूद लेखक का विश्वास है कि समाज में अन्य कारक भी मौजूद हैं जो प्रत्येक राज्य के इतिहास और संस्कृति की दृष्टि से अद्वितीय हैं. गुजरात और उत्तर प्रदेश में अजीब-सी शांति और सन्नाटा की ओर भी लेखक ध्यान दिलाते हैं जो खतरनाक है. वहीं हिमाल प्रदेश और दिल्ली नगर निगम में अलग प्रवृत्ति दिखी. यही उजाले का संकेत है.

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रक्षा क्षेत्र में खुशखबरी का इंतजार

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि आम धारणा यह है कि भारत दशकों से हथियारों के विकास और निर्माण में आत्मनिर्भर होने का प्रयास कर रहा है. जबकि, हकीकत यह है कि भारत दुनिया में रक्षा क्षेत्र का दूसरा सबसे बड़ा आयातक है. यह भी उल्लेखनीय है कि अगर अंतरिक्ष और नाभिकीय ऊर्जा को रक्षा में शामिल कर लिया जाए तो रक्षा शोध और विकास बजट के मामले में भारत चौथा सबसे बड़ा देश है. वहीं, अमेरिका और चीन की तुलना में भारत रक्षा क्षेत्र में बहुत कम खर्च करता है.

केंद्र सरकार ने पिछले आम बजट में घोषणा की थी कि रक्षा शोध एवं विकास पर खर्चा का चौथाई हिस्सा निजी उद्योगों द्वारा गैर सरकारी संस्थानों में किया जाएगा. रक्षा क्षेत्र में यह अब दिखने लगा है. सी-295 परिवहन विमान का निर्माण टाटा एयरबस का संयुक्त उपक्रम करने वाला है जबकि लार्सन एंड ट्रुबो तथा भारत फोर्ज द्वारा हॉवित्जर का निर्माण किया जाएगा.

चार साल पहले सरकार ने शोध एवं विकास के लिए नवाचार संस्थान की स्थापना की थी. इसकी कार्यकारी शाखा यानी इनोवशन फॉर डिफेंस एक्सिलेंस यानी आइडेक्स ने ड्रोन, रोबोटिक्स, कृत्रिम मेधा और उन्नत सामग्री के क्षेत्र में शोध के लिए 100 से अधिक परियोजनाओं को फंडिग दी.

रक्षा खरीद प्रणाली अब भी कई बाधाओं का सामना कर रही है. सबसे सस्ती बोली अपनाने की मानक परंपरा वेंडरों को प्रोत्साहित नहीं करती है. सरकार अब सरकारी फंड से होने वाले शोध से तैयार बौद्धिक संपदा पर स्वामित्व का दावा नहीं करती. ऐसे में कंपनियां भी उत्पादन के चरण में पूंजी जुटाने के लिए बेहतर स्थिति में हैं.

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लिपिड ने हमें आईना दिखाया

संकर्षण ठाकुर टेलीग्राफ में लिखते हैं कि आईना देखना और आईना दिखाने में बड़ा फर्क होता है. आईना दिखाने का मतलब है अकर्मण्यता के नतीजों को बताना, जबकि आईना देखना ईमानदार कर्त्तव्य होता है. इजराइली फिल्म निर्माता नाडव लिपिड ने हमें आईना दिखाने के लिए चुना. हमें बताया कि हम कौन हैं

और हमारे बारे में खुलासा भी किया. गोवा अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में लिपिड ने विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ पर बड़ी टिप्पणी की. इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के लिए सर्वथा अनुपयुक्त बताया. फिल्म को उन्होंने अश्लील और प्रोपेगेंडा करार दिया.

संकर्षण ठाकुर लिखते हैं कि भारत में हम आलोचनात्मक चर्चा छोड़ चुके हैं. ऐसा लगता है कि चिंतन, परीक्षण और विश्लेषण करने वाले विद्वान हमारे लिए अतीत की बात हो गयी है. ऐसा लगता है कि हम अपने साथ खड़े होने की हिम्मत गंवा चुके हैं.

ठाकुर लिखते हैं कि एक व्यक्ति के रूप में हम अपने ऊपर हुए अत्याचारों पर सवाल भी नहीं उठाते. हमने नोटबंदी के कहर को पुरस्कृत किया. नासमझ कुप्रबंधन कोविड की तबाही का कारण बनी. गोवा में नाडव लापिड ने हमें महज यह पड़ताल करने को कहा है कि हैशटैग न्यू इंडिया क्या है. हम लैपिड टेस्ट में फेल हो गये. हमने उनके संदेहों की पुष्टि की. वास्तव में हम और भी बुरे हैं. हम मानते हैं कि लैपिड टेस्ट अवैध है क्योंकि यह हमारे बारे में असहज सच्चाइयों को उजागर करता है. लेखक अंत में असत्यमेव जयते का नारा बुलंद करते हैं.

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सरकार-अदालत में रार, पिस रही है जनता

पवन के वर्मा ने एशियन एज में सवाल उठाया है कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने एक बार फिर न्यायिक स्वायत्तता को सीमित करने की कोशिश की है या वास्तव में न्यायिक सुधार की जरूरत है? धनखड़ ने कहा है कि किसी अन्य लोकतांत्रिक देश में ऐसा नहीं है कि संसद के फैसले को ज्यूडिशियरी ठुकरा दे. 2014 में नेशनल ज्यूडिशियल एप्वाइंटमेंट कमेटी (एनजेएसी) लेकर आयी थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया था. एनजेएसी के जरिए वर्तमान कोलेजियम को बदलने का प्रयास किया गया था. कानून मंत्री किरन रिजिजू खुले तौर पर कह चुके हैं कि कोलेजियम सिस्टम पारदर्शी और जिम्मेदार नहीं है. जबकि, पूर्व सीजेआई एनवी रमना का मानना है कि कोलेजियम के बारे में गलत धारणाएं हैं.

पवन के वर्मा लिखते हैं कि सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट यहां तक कह चुका है कि कोलेजियम के खिलाफ कोई अपमानजनक बात नहीं सुना जा सकता. समस्या की जड़ यह है कि हर सरकार अपने कार्य और एजेंडे के अनुरूप न्याय व्यवस्था चाहती है. आखिर 80 फीसदी मामलों में खुद सरकार एक पक्ष होती है. नवंबर 2020 तक न्यायिक नियुक्तियों से जुड़ी कोलेजियम की 68 सिफारिशें लंबित हैं.
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न्यायपालिका और कार्यपालिका में तकरार का असर आम लोगों पर पड़ रहा है. देश में 4.7 करोड़ मामले लंबित हैं. 87.4 फीसदी मामले निचली अदालतो में हैं तो 12.4 फीसदी उच्च न्यायलयों में. सुप्रीम कोर्ट में 60 हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं. हाईकोर्ट में 1108 जजों के पद स्वीकृत हैं. इनमें से 380 खाली हैं. पटना हाईकोर्ट में 49 फीसदी पद खाली हैं. इलाहाबाद हाईकोर्ट में 160 स्वीकृत जजों के पदों में 60 खाली हैं. दिल्ली, कोलकाता और पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट में भी 40 फीसद पद खाली पड़े हुए है. सरकार और न्यायलयों को आम लोगों के बारे में मिलकर सोचने और उचित फैसला लेने की तत्काल आवश्यकता है.

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