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संडे व्यू: “ये गुजरात मैंने बनाया है...”, दिल्ली में प्रदूषण किसने फैलाया है?

पढ़ें आज तवलीन सिंह, मुकुल केसवान, टीएन नाइनन, आदिति फडणीस, शोभा डे के विचारों का सार।

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दिल्ली नहीं, देश की समस्या है प्रदूषण

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि दिल्ली में इन दिनों सांस लेना मुश्किल है. मगर, हमारे आदरणीय राजनेता एक-दूसरे पर दोष मढ़ने में लगे रहे हैं. पिछले साल अरविंद केजरावील कह रहे थे कि मुख्यमंत्री होने के नाते वे अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं लेकिन पंजाब में पराली जलाने पर जब तक पूरी तरह पाबंदी नहीं लगती, दिल्ली में प्रदूषित हवाएं आती रहेंगी. इस साल उनकी जुबान बदल चुकी है क्योंकि पंजाब में उनकी ही सरकार है. इसी बहाने बीजेपी नेता और प्रवक्ता केजरीवाल पर दोष मढ़ने में लग गये. कब आएगा वह दिन जब हमारे राजनेता समझ पाएंगे कि प्रदूषण राष्ट्रीय समस्या है, शहरी नहीं?

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तवलीन सिंह लिखती हैं कि राजधानी दिल्ली की हवा इतनी गंदी है कि स्कूल बंद करने पड़े हैं. डीजल गाड़ियों और ट्रकों पर पाबंदियां लगायी गयी हैं. हमारे शासकों की गंभीर लापरवाही दिख रही है. इन दिनों मिस्र में चल रहे पर्यावरण सम्मेलन में भारत उन देशों में शामिल है जो विकसित देशों को बिगड़े पर्यावरण के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए उनसे मुआवजा मांग रहे हैं. मगर,

लेखिका का सवाल है कि क्या हमारे शहरों की हवा को साफ रखना हमारी अपनी जिम्मेदारी नहीं है? क्या गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों को साफ करना हमारी जिम्मेदारी नहीं है?

अपना बचपन याद करती हुई लेखिका बताती हैं कि रात को आसमान में तारे दिखते थे, प्रदूषण की चादर नहीं. राजीव गांधी के समय में गंगा कार्य योजना बनी थी. इतने सालों बाद भी गंगा साफ नहीं हो सकी. दिल्ली का जो हाल है वही हाल कभी लंदन, न्यूयॉर्क जैसे महानगरों का भी हुआ करता था. वहां अगर आज हवा साफ हुई है तो इसलिए कि उन देशों के राजनेताओं ने पर्यावरण को साफ करने पर ध्यान दिया है. आखिर कब तक हम बर्दाश्त करते रहेंगे अपने राजनेताओं की लापरवाहियां?

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रूटीन बन गयी है पर्यावरण चिंता

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन ने लिखा है कि 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित पहले जलवायु सम्मेलन के बाद से अब तक पर्यावरण सुरक्षा को लेकर निराशा बढ़ती ही गयी है. जो कुछ हासिल हुआ है, वह बहुत धीमी गति से हुआ है और उसकी कीमत भी गरीबों को चुकानी पड़ी है. वैश्विक परिदृश्य की तुलना एक हद तक दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों से की जा सकती है. दशकों से तबाही का अनुमान जताया जा रहा है और सुधार के कुछ कदम भी उठाए गये हैं लेकिन त्रासद हकीकत नहीं बदली है.

नाइनन ने लिखा है कि 1992 में रियो डी जनेरिया में पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन किया गया, जहां जलवायु परिवर्तन पर एक फ्रेमवर्क सम्मेलन तैयार किया गया. फिर 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल सामने आया जिसमे तीन दर्जन विकसित देशों से कहा गया कि वे अपने कार्बन उत्सर्जन को सन् 1990 के आधार स्तर से नीचे लाएं.

इसकी पुष्टि में ही आठ साल का समय बीत गया. फिर कोपेनहेगन-2009 और पेरिस 2015 जैसे अन्य सम्मेलन हुए. दुनिया तापमान में औद्योगिकीकरण के पहले के तापमान से 1.5 डिग्री सेल्सियस के इजाफे की दिशा में 80 फीसदी तक बढ़ चुकी है. अच्छी खबर यह है कि कई अमीर देशों ने उत्सर्जन कम करना शुरू कर दिया है. भारत समेत कई अन्य देशों ने आर्थिक गतिविधियों के लिए ऊर्जा की खपत कम की है. नवीनीकृत ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ा है.

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चिंता की बात यह है कि यूक्रेन युद्ध छिड़ने के बाद कोयले का विरोध करने वाले देशों ने ताप बिजली घरों को दोबारा शुरू कर दिया है. दूसरी चिंता है कि निरंतर दावों के बावजूद कोई अमीर देश जलवायु परिवर्तन से निपटने में गरीब देशों की कोई खास मदद नहीं करने जा रहा है. तीसरी चिंता है कि बहुत कम ऐसे लोग है जो अपनी कार्बन उत्सर्जन वाली जीवन शैली को त्यागना चाहते हैं. आखिरी बात यह है कि वृद्धि के ध्वंसात्मक पहलुओं से तब तक नहीं निपटा जा सकेगा जब तक कि राष्ट्रीय खातों को पुनर्परिभाषित कर इस बात का ध्यान नहीं रखा जाए कि प्राकृतिक संसाधनों को कितना नुकसान पहुंचाया गया है.

लोकप्रियतावाद से मुक्ति का समय

टेलीग्राफ में मुकुल केसवान की सलाह है कि ‘पोपुलिस्ट’ यानी ‘लोकप्रियतावाद’ शब्द को सेवानिवृत्त कर देने का वक्त आ गया है. बीते 20 साल से यह अलग-अलग किस्म के राजनीतिक ओहदेदारों के लिए सेवारत रहा है. इनमें बर्नी सैंडर्स, डोनाल्ड ट्रंप, रेसे तैय्यप एर्दागन, रोड्रिगो ड्यूटेर्टे, लूला डा सिल्वा, जैर बोल्सानेरो, विक्टर ओरबान, जियोर्जिया मेलोनी, मेरिन ले पेन और नरेंद्र मोदी शामिल हैं. इन्हें लोकप्रिय कहा जाता रहा है. लूला सत्ता में आए और एक ऐसे राजनेता के तौर पर आगे बढ़े, जिन्होंने ब्राजील के गरीबों में धन के नये सिरे से वितरण का भरोसा दिलाया. नरेंद्र मोदी एक हिन्दू संगठन के समर्थन से हिन्दुओं के वर्चस्व को स्थापित करने की कोशिश दिखलायी.

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केसवान लिखते हैं कि दुनिया के सभी लोकप्रिय नेताओं ने कानून-व्यवस्था, लोककल्याण, कराधान और विदेशी मालों में लगभग समान रूप से सफलता के दावे किए. दो कार्यकाल के बादवजूद लूला का नारा बरकरार है. इसी तरह मोदी, उनकी पार्टी और सहयोगी संगठन शासन की शक्ति का इस्तेमाल करते हुए हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य की ओर बढ़ने की कोशिशों में जुटे हैं.

चुनावी लोकतंत्र में परंपरागत रूप से पोपुलिस्ट का मतलब भ्रष्ट प्रबुद्ध वर्ग के खिलाफ जनता को खड़ा करना रहा है. आइजनहावर से लेकर बाइडन, नेहरू से मोदी, एटली से सुनक, डी गॉल से मैक्रॉ तक शायद ही कोई नेता हों जिन्होंने लीक से हटकर कुछ कर दिखाने की कोशिश ना की हों. पोपुलिस्ट शब्द हमेशा किसी और के लिए इस्तेमाल होता रहा है. कोई खुद को पोपुलिस्ट नहीं बताया. कभी तमिलनाडु में मिड-डे मिल को भी पोपुलिस्ट बताया गया. इसी अर्थ में महात्मा गांधी नेशनल रूरल इकॉनोमिक गारंटी एक्ट की भी चर्चा हुई. कभी मनरेगा के विरोधी रहे प्रधानमंत्री मोदी तक ने भी इस पर अमल किया.

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पाटीदार-बीजेपी को एक-दूसरे से उम्मीद

आदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि भूपेंद्र पटेल और नरेंद्र मोदी में काफी समानताएं हैं. दोनों के पास मुख्यमंत्री बनते समय कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था. पटेल पहली बार विधायक बने और उन्हें शीर्ष पद के लिए चुन लिया गया. मोदी की ताजपोशी भी बगैर विधायक बने ही हो गयी थी जिन्होंने भूकंप के सार्वजनिक विनाश को संभाला था. भूपेंद्र पटेल ने भी 13 सितंबर को शपथ लेने के तुरंत बाद बाढ़ प्रभावित जिलों की खुद निगरानी की.

जब नरेंद्र मोदी ने गुजरात में कुसी संभाली तो केशुभाई पटेल जैसे पाटीदार नेता उनके खिलाफ में आ गये. भूपेंद्र पटेल पाटीदार समुदाय के पटेल होकर भी आशंकित हैं कि उन्हें अहमदाबाद से परे पाटीदार अपना नेता मानेंगे या नहीं.

गुजरात की राजनीति में पाटीदारों का वही महत्व है जो महाराष्ट्र की राजनीति में मराठाओं का है. शुरुआती दौर में सरदार पटेल के प्रभाव में पाटीदार नेतृत्व कांग्रेस के प्रति वफादार बना रहा.

हालांकि गुजरात के पहले चार मुख्यमंत्री ब्राह्मण हुए. 1973 में चिमन भाई पटेल और बाद में केशुभाई पटेल पाटीदारों के बड़े नेता हुए. नरेंद्र मोदी के उभार के पीछे आनंदीबेन पटेल के प्रभाव को श्रेय दिया जाता है. उनकी जगह नितिन पटेल के बजाए विजय रूपाणी को पद देने से पाटीदारों में गुस्सा देखा गया. भूपेंद्र पटेल पर दिल्ली का प्रभाव स्पष्ट दिखता है. लेकिन, अगर वे गुजरातियों का दिल जीत लेते हैं तो भाजपा की सीटों की संख्या में सुधार होगा और खुद उनकी भी अहमियत बढ़ जाएगी.

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ये गुजरात मैंने बनाया है...यूपी मैंने...

शोभा डे ने डेक्कन क्रोनिकल में लिखा है कि लखनऊ से वह अभी-अभी लौटी हैं और वहां के सुस्वादु व्यंजनों की याद जेहन में बनी हुई है. लखनऊ में बड़े-बड़े मॉल खुले हैं, सड़कें चौड़ी हुई हैं और ऑटो ड्राइवर ने भी उन्हें सस्ती शॉपिंग करने वाली महिला के तौर पर उनकी ओर उपहास भरी नजरों से देखा. वह लिखती हैं कि यूपी के सीएम इस वक्त युद्धमार्ग पर हैं. 3.85 करोड़ मुसलमानों के खिलाफ नहीं, मच्छरों के खिलाफ. डेंगू से संघर्ष चल रहा है. शोभा डे लिखती हैं कि वह चकित रह गयीं जब उन्होंने योगी को यह कहते सुना- “मैंने उत्तर प्रदेश को बनाया है.

चुनाव में जुटे गुजरात में नरेंद्र मोदी ने भी हाल में कहा है- “मैंने यह गुजरात बनाया है.“ उन्होंने आगाह भी किया है कि जो गुजरात की आलोचना करेगा वो मिट जाएंगे. मोदी ने विश्वास जताया है कि भूपेंद्र पटेल उनका रिकॉर्ड तोड़ सकते हैं.
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शोभा डे लिखती हैं कि प्रधानमंत्री के डायलॉग से वह इतना प्रभावित हुईं कि वह अपने इलाके में यह कहते हुए घूमने लगीं- मैंने कफे परेड बनाया है... उन्हें यह भी ख्याल आया कि वे उद्धव ठाकरे को वॉयस मैसेज भेज दें कि वे बोलें- “मैंने महाराष्ट्र बनाया है, मेरे पिता ने इसे बनाया है, मेरा बेटा इस महाराष्ट्र को बनाएगा”. इस बीच जो व्यक्ति इन दिनों देशभर में ‘भारत जोड़ो यात्रा‘ पर निकला है उसे लूजर बताकर खारिज किया जा रहा है. तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक के बाद महाराष्ट्र में यात्रा कर रहे हैं राहुल गांधी.

वे भी प्रधानमंत्री से सीख सकते हैं. मशाल जलाने और पैदल चलने के बजाय कह सकते हैं, “मैंने यह भारत बनाया है...मेरे पिता ने, दादी ने और परदादा ने भारत बनाया है...हम सबने मिलकर यह भारत बनाया है.” इस बीच देश के 50वें मुख्य न्यायाधीश कह रहे हैं “जब मैं व्यक्तिगत गरिमा की बात करता हूं तो समान रूप से मैं सामाजिक एकजुटता की भी बात करता हूं.“ चाहे दल जो हों, हमारे नेता चाहे कोई भी प्रदेश बनाएं लेकिन वे आलोचनाओं को मिटाने में लगे हैं.

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