बेलगाम मणिपुर
जॉन रीड और ज्योत्सना सिंह ने फिनान्शियल टाइम्स में लिखा है कि उत्तर पूर्व के जातीय पहचान की लड़ाई में उलझे मणिपुर में हिंसा को काबू करने में भारत सरकार विफल रही है. सौ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और 50 हजार से ज्यादा विस्थापित हुए हैं. एक्टिविस्ट मानते हैं कि यह अशांति इस सीमा क्षेत्र को अस्थिर कर दे सकता है. पहले होती रही हिंसा से इस बार की हिंसा इस मायने में अलग है कि इसमें आम लोग शामिल हैं. आम लोगों ने थाने पर हमला करके बड़ी मात्रा में हथियार लूटे हैं. वहीं महिलाओं और बच्चों को जिंदा जला देने की घटनाएं भी घटी हैं.
जॉन रीड और ज्योत्सना सिंह लिखते हैं कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की पहल पर शांति वार्ता के लिए पैनल का गठन किया गया, लेकिन यह प्रक्रिया भी जमीनी स्तर पर असफल हो गयी. म्यामांर के चिन प्रांत में सैकड़ों मणिपुरी शरण लिए हुए हैं.
मणिपुर में पत्रकारों पर प्रतिबंध है और एक महीने से ज्यादा समय हो चुका है, इंटरनेट सेवाएं ठप हैं. ट्रेन हादसे के बाद प्रधानमंत्री के बालासोर जाने, लेकिन मणिपुर पर पूर्ण खामोशी बरतने को जोड़ते हुए एक्टिविस्ट सवाल उठा रहे हैं. प्रदेश में अर्धसैनिक बल बफर जोन बनाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि मैतेई और कुकी समुदाय के बीच शांति स्थापित हो सके.
यह कोशिश अब तक सफल नहीं हो पायी है. हिंसा के पीछे मादक पदार्थ के खिलाफ सरकार के अभियान और आरक्षण पर अदालत की टिप्पणी को वजह बतायी जा रही है लेकिन वास्तव में इसकी वजह अविश्वास है. कुकी समुदाय के लोग मानते हैं कि केंद्र सरकार की शह पर स्थानीय सरकार मैतेई की मदद कर रही है.
भारत में ‘रेवड़ी’ की सियासत
टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि मूल्य सब्सिडी और नकद भुगतान के जरिए वित्तीय हस्तांतरण की पुरानी परखी हुई तरकीब अब नेता फिर आजमा रहे हैं. इसे बोलचाल की भाषा में फ्रीबीज या ‘रेवड़ी’ नाम दिया गया है. डीएमके ने 1967 में एक रुपये में निश्चित मात्रा में चावल देने का वादा करते हुए चुनावी जीत हासिल की थी. एमजी रामचंद्रन ने भी नि: शुल्क मध्यान्ह भोजन का सीमित कार्यक्रम बड़े पैमाने पर लागू किया था. 1983 में एनटी रामाराव ने दो रुपये प्रति किलो चावल देने की घोषणा करते हुए विधानसभा चुनाव में बेहतरीन जीत दर्ज की थी.
नाइनन लिखते हैं कि हाल के सालों में भारतीय जनता पार्टी बड़े वादों को पूरा कर पाने में नाकाम रही है. उदाहरण के लिए किसानों की आय दोगुनी करना या अर्थव्यवस्था को पांच लाख करोड़ डॉलर का बनाना. यही वजह है कि उसने कल्याणकारी पैकेज पर ध्यान केंद्रित किया. जैसे, किसानों को नकद भुगतान नि: शुल्क खाद्यान्न, नि: शुल्क शौचालय, वास के लिए सब्सिडी, नि: शुल्क चिकित्सा बीमा आदि.
कर्नाटक में कांग्रेस ने बेरोजगार डिप्लोमाधारक/स्नातक को 1500/3000 रुपये और हर परिवार की महिला मुखिया को 2000 रुपये प्रतिमाह और नि:शुल्क बिजली और अनाज देने का वादा किया गया और कांग्रेस ने जीत हासिल की.
टीएन नाइनन लिखते हैं कि जब अर्थव्यवस्था पर्याप्त रोजगार नहीं दे पा रही हो और शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र पीछे छूट जा रहे हों तो चुनाव जीतने की राह उपहार और नकदी हस्तांतरण ही हो सकता है. रोजगार, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं का बेहद खराब स्थानापन्न इसे कह सकते हैं. बीते तीन दशक में प्रति व्यक्ति चार गुना होने के बाद भी कर-जीडीपी अनुपात में खास सुधार नहीं हुआ है. राजस्व का 40 फीसदी हिस्सा सरकारी कर्ज निगल रहा है. नीति आयोग या किसी निजी थिंक टैंक को स दिशा में पहल करनी चाहिए.
भारत के लिए आपदा है 658 की पॉलिसी
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 658 की नीति भारत के लिए आपदा की तरह है. इसका मतलब है 6 फीसदी आर्थिक विकास दर, 5 प्रतिशत मुद्रास्फीति और 8 फीसदी बेरोजगारी की दर. मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वर अब 6.5 फीसदी विकास दर की उम्मीद बंधा रहे हैं. दो अंकों में वृद्धि दर की उम्मीद छोड़ दी गयी है. इस वजह से 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर वाली इकॉनोमी का लक्ष्य अब 2027-28 तक खिसक जा सकता है.
चिदंबरम लिखते हैं कि नोटबंदी के बाद से ही भारत की विकास की गति जैसे खो गयी थी. 2017-18, 2018-19 और 2019-20 में विकास दर धीमी हो गयी थी. हजारों औद्योगिक इकाइयां बंद हो गयीं और सैकड़ों-हजारों नौकरियां हमेशा के लिए चली गयीं. नतीजा यह हुआ कि महामारी के दौरान वसूली कमजोर और मामूली रही.
कृषि, वित्तीय और व्यावसायिक सेवाओं को छोड़कर हर क्षेत्र में विकास दर 2022-23 में घटीं. 2023 में खुदरा मुद्रा स्फीति घटकर 4.3 फीसद हो गयी. सीएमआईई ने बताया है कि अप्रैल 2023 में अखिल भारतीय बेरोजगारी की दर 8.11 फीसदी थी, जबकि श्रम भागीदारी दर 42 फीसदी.
एक समय नीति निर्माताओं ने 5 फीसदी विकास दर और 5 फीसदी मुद्रा स्फीति दर स्थिर कर दी थी. इस वजह से लाखों लोग गरीब रह गये और भारत तेजी से चीन और अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई पड़ोसियों से पिछड़ गया. इन दिनों 6 फीसदी की विकास दर, 5 फीसदी महंगाई और 8 फीसद बेरोजगारी दर से संतुष्ट नजर आ रही है सरकार. ये आंकड़े भारत के लिए आपदा की तरह है. इसका मतलब बड़े पैमाने पर गरीबी, बढ़ती बेरोजगारी और बढ़ती असमानता है.
मीडिया ट्रायल के गुनहगार कभी जाएंगे जेल?
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि क्या कभी वे दिन दिखेंगे जब प्रसिद्ध मीडिया हस्तियों पर मानहानि के मुकदमे चलेंगे और उनको भी कुछ दिन जेल में रखा जाएगा सबक सिखाने के लिए? जवाब भी वही देती हैं कि ऐसा कभी नहीं होगा क्योंकि मीडिया मुकदमे चलाता है सरकार की मदद करने के लिए. अति हानिकारक किस्म की पत्रकारिता के खात्मे के लिए एक-दो महान पत्रकार को अंदर भेज देने की वकालत करती हैं लेखिका.
सुशांत सिंह राजपूत की तीसरी पुण्य तिथि पर लेखिका ने रिया चक्रवर्ती की याद दिलायी है जिन्हें मीडिया ट्रायल के कारण जेल जाना पड़ा. पहले सीबीआई ने उस पर हत्या का आरोप लगाया, फिर सुशांत के लिए चरस खरीदने के आरोप में जेल भेजा. अब भी यह मामला न बंद हुआ है और न ही दोष साबित किया जा सका है.
तवलीन सिंह ने आर्यन खान केस की भी याद दिलायी है. शाहरुख से करोड़ों रुपये वसूली की साजिश में एक की अग्रिम जमानत खारिज हो चुकी है, दूसरा जमानत पर है. समीर वानखेड़े के खिलाफ अब भी जांच चल रही है. लेखिका पूछती हैं कि जब छात्रों को कई कई साल जेलों में रखा जाता है बिना कोई अपराध साबित किए तो उन लोगों को बंद करना इतना मुश्किल क्यों है जिन्होंने शाहरूख खान से उनके बेगुनाह बेटे को जेल में डालकर करोड़ो रुपये वसूलने की कोशिश की थी? पत्रकारिता के पुराने दौर को याद करती हुईं लेखिका लिखती हैं कि उस दौर में आतंकवादियों को भी आतंकवादी लिखने से हम परहेज किया करते थे, जब तक कि उनके अपराध किसी न्यायलय में साबित नहीं हो जाते. पत्रकारिता के महत्वपूर्ण उसूलों में सबसे महत्वपूर्ण उसूल है कि किसी को बेगुनाह या दोषी साबित करना हमारा काम नहीं, अदालतों का काम है.
ब्रेन ड्रेन नहीं ब्रेन सर्कुलेशन के प्लेटफॉर्म हैं आईआईटी
पृथ्वीराज चौधरी ने हिन्दुस्तान टाइम्स में ब्रेन ड्रेन को नये नजरिए से देखने की जरूरत बतायी है और एक नया शब्द इजाद किया है ब्रेन सर्कुलेशन. आईआईटी को विदेश में ‘इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ टैलेंट’ का तमगा हासिल है. भविष्य के सीईओ, शिक्षाविद्, पॉलिसी गुरु और एन्ट्रप्रेनर्स आईआईटी में हैं. इना गांगुली, पैट्रिक गौले और स्वयं लेखक ने एक रिसर्च में पाया था कि 2010 के आईआईटी आवेदक वाले बैच से 1000 टॉपरों में 36 फीसदी ने देश छोड़ दिया. टॉप 100 में यह पलायन 62 फीसदी रहा. मगर, यह सिर्फ इतिहास है. मगर, ताजा रिसर्च बताते हैं कि प्रवासी और वापसी करते प्रवासियों ने भारतीय नॉलेज इकॉनोमी को ऊंचाई प्रदान की है.
पृथ्वी राज चौधरी ने अपने ही रिसर्च के हवाले से बताया है कि स्वदेश लौटे 12 प्रवासियों के समूह ने किस तरह हैदराबाद और बेंगलुरू में माइक्रोसॉफ्ट आरएंडडी सेंटर खोलने में मदद की. कोविड की महामारी के बाद नॉलेज वर्करों के पास कहीं भी रहकर काम करने की सुविधा मिली. गूगल, मास्टरकार्ड, अमेरिक एक्सप्रेस जैसी कंपनियों ने वर्क फ्रॉम एनीह्वेयर जैसी सुविधा दी.
इससे प्रवासी भारतीयों को देश से जुड़ने का नया अवसर मिला. आईआईटी के रीयूनियन इवेंट्स की ओर भी लेखक ने ध्यान खींचा है. पश्चिम के एलीट यूनिवर्सिटीज 5,10,15,20, 25 और यहां तक कि 50 साल बाद भी रीयूनियन इवेंट्स कर रहे हैं.
अगर आईआईटी रीयूनियन इवेंट्स की संख्या और बारंबारता में बढ़ोतरी होती है तो इससे वर्तमान अनुसंधानकर्ता, छात्र और स्थानीय उद्यमियों की नॉलेज इंडस्ट्री में पकड़ मजबूत होगी. अल्युमनाई मेंटर, इन्वेस्टर और नॉलेज इंडस्ट्री के रचनात्मक प्रयासों से जुड़ सकेंगे. आईआईटी को ब्रेन ड्रेन के तौर पर अब नहीं देखा जाना चाहिए. इसके बजाए इसे ब्रेन सर्कुलेशन के प्लेटफॉर्म के तौर पर देखा जाना चाहिए.
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