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संडे व्यू: छंट चुकी है राजनीति की धुंध, बड़े सुधारों की जरूरत

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छंट चुकी है राजनीति की धुंध

इस सप्ताह रेटिंग एजेंसी मूडीज ने 14 साल बाद पहली बार भारत की रेटिंग बढ़ा दी. नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद इकनॉमी के जो हालात हैं, उसमें इस रेटिंग अपग्रेडेशन पर सवाल उठाए जा रहे हैं, लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वप्न दासगुप्ता लिखते हैं कि 18 दिसंबर यानी हिमाचल और गुजरात चुनाव के नतीजे आने से पहले तक यह बहस चल सकती है कि मूडीज का फैसला सही है या फिर देश के मशहूर अर्थशास्त्रियों के अर्थव्यवस्था के लेकर निगेटिव व्यूज.

हालांकि यह सच है कि चुनावी जीत से ही यह साबित नहीं हो जाता कि अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार के कदम सही ही हैं. फिर भी यह नरेंद्र मोदी सरकार की लोकप्रियता तो तय करेगा ही.

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दासगुप्ता लिखते हैं, मूडीज के इस रेटिंग अपग्रेडेशन से देश में चल रही दो समांतर बहसों के संकेत मिलते हैं. एक धारा मोदी को एक ऐसे नेता के तौर पर देखती है, तो इकनॉमी की हालत ठीक करने और इसमें चुपचाप सुधार से परे है. जबकि दूसरी धारा उन्हें एक एक साहसी नेता के तौर पर देखती है, जो ‘चलता है’ की प्रवृति की वजह से बनी भारत की परंपरागत छवि को तोड़ना चाहता है. बहरहाल, आप चाहे किसी भी नजरिये के पैरोकार हों लेकिन भारत ने भविष्य के विकास के लिए अपनी प्राथमिकता साफ कर दी है. राजनीति की धुंध अब छंट चुकी है.

और बड़े सुधारों की जरूरत

टाइम्स ऑफ इंडिया के सदाबहार स्तंभकार स्वामीनाथन एस. अंकलसरैया लिखते हैं, मूडीज की ओर से रेटिंग बढ़ाना छोटा मामला है. वोटरों को लिए यह कोई मायन नहीं रखता. बड़ी कंपनियों के लिए इसकी कोई खास अहमियत नहीं है. चूंकि मार्केट ने रेटिंग अपग्रेडेशन का अंदाजा लगा लिया था, इसलिए कंपनियों को इंटरनेशनल मार्केट से पहले से ही सस्ते में कर्ज मिल रहा था. लेकिन मूडीज रेटिंग से भारत में लंबे समय तक निवेश करने वालों को राहत मिली है. भारत को इसी चीज की जरूरत थी.

स्वामीनाथन लिखते हैं कि नोटबंदी और जीएसटी के बाद इकनॉमी की बुरी खबरों के बीच भी मूडीज की मुस्कुराहट का राज क्या है. क्योंकि रेटिंग एजेंसियां नोटबंदी और जीएसटी जैसे कभी-कभार उठाए गए कदमों को ज्यादा तवज्जो नहीं देती. वह यह देखती है कि कोई देश अपने कर्जे चुका सकता है या नहीं. और इस मामले में भारत की स्थति ठीक है.

स्वामी कहते हैं, मूडीज का यह कहना सही है कि भारत मीडियम और फिर लंबे समय तक अपने कर्जे को लेकर सहज स्थिति में होगा. लेकिन ऊंची विकास दर वाली टाइगर इकनॉमी का दर्जा हासिल कर सकेगा, इसमें शक है. इसके लिए और बड़े आर्थिक सुधारों की जरूरत है.

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गुजरात : आर्थिक विकास सिर्फ बीजेपी की देन नहीं

दैनिक जनसत्ता में पी चिदंबरम में विकास के गुजरात मॉडल पर सवाल उठाया है, जहां चुनाव होने हैं. पीसी लिखते हैं, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर, नरेंद्र मोदी का दावा था कि वह 2014 में, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ अपने इस नारे के साथ, विकास को राजनीतिक बहस के केंद्र में ले आए. बढ़-चढ़ कर किए गए उनके वायदे भी ध्यान खींचते थे: ‘मैं हर साल दो करोड़ नए रोजगार पैदा करूंगा’, ‘देश से बाहर जमा किए गए काले धन को मैं वापस लाऊंगा और हर भारतीय के खाते में पंद्रह लाख रु. जमा किए जाएंगे’, वगैरह. जाहिर है, इस तरह का कोई भी शेखी बघारने वाला वादा पूरा नहीं किया जा सकता था. लिहाजा, बयालीस महीनों बाद चहुंओर निराशा नजर आती है. निराशा का भाव गुजरात में भी है, जहां दिसंबर में चुनाव होने हैं.

गुजरात में 1995 में बीजेपी से पहले कांग्रेस के शासन में भी विकास दर राष्ट्रीय औसत से अधिक थी और गुजरात ने उस बढ़त को कायम रखा है. अमूल, बंदरगाह, ऊर्जावान कपड़ा उद्योग, केमिकल और पेट्रोकेमिकल उद्योग, ये सब 1995 से पहले से हैं. इसका अधिकांश श्रेय गुजरात की जनता को जाता है.

हालांकि गुजरात ने औद्योगिक रूप से काफी प्रगति की है, पर मानव विकास के कई अहम क्षेत्रों में पिछले बाइस सालों में यह वास्तव में पीछे गया है. सबसे स्तब्धकारी आंकड़े बच्चों से संबंधित हैं. यह सामाजिक क्षेत्र की उपेक्षा और गरीबों के प्रति प्रकट तिरस्कार के कारण हुआ.

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विदेशी मीडिया का पूर्वाग्रह

दैनिक जनसत्ता में तवलीन सिंह ने न्यूयॉर्क टाइम्स में साड़ी को कथित तौर पर हिंदुत्व की विचारधारा से जोड़ने वाले लेखक की अज्ञानता पर सवाल उठाते हुए टिप्पणी की है. वह लिखती हैं- सच तो यह है कि भारत की राजनीतिक तब्दीलियों के बारे में जब भी इस प्रसिद्ध अखबार में कुछ छपता है, तो अक्सर उसमें पूर्वाग्रह और बकवास होती है. निजी तौर पर मैंने पाया है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ये चीजें ज्यादा देखने को मिलती हैं. मोदी से नफरत न्यूयार्क टाइम्स के पत्रकारों को उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले से थी. याद है मुझे कि 2014 के चुनाव अभियान के शुरू में जब मोदी बनारस गए थे नामांकन पत्र भरने, तो वहां मुझे मिले थे न्यूयार्क टाइम्स के कॉरेस्पांडेंट. उसने मुझे बताया कि वह हैरान हुआ बनारस में उस दिन जन सैलाब को देख कर, क्योंकि उसकी नजरों में मोदी राक्षस था.

कुछ वर्षों के लिए मैंने लंदन के संडे टाइम्स के लिए कॉरेस्पांडेंट का काम किया था अस्सी-नब्बे के दशक में. उस दौरान मैंने देखा कि उनको आधुनिक भारत की समस्याओं पर लेख नहीं चाहिए थे, उनको इस किस्म के लेख ज्यादा पसंद थे, जो भारत की दकियानूसी और पिछड़ापन दर्शाते थे.

आज भारतीय पत्रकार खूब पैसे कमाते हैं भारत में, और अगर खुशकिस्मती से थोड़ा-बहुत काम टीवी पर मिल जाए तो नसीब खुल जाती है. हाल बल्कि यह है आज कि विदेशों में रहने वाले भारतीय पत्रकार भी भारतीय अखबारों में लिखने की कोशिश करते हैं और भारतीय टीवी पर काम ढूंढ़ते फिरते हैं. सो, आज विदेशों में रह कर विदेशी अखबारों में भारत के बारे में बकवास लिखने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए उनको.

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इंदिरा और मोदी की यह समानता

मशहूर इतिहासकार और पब्लिक इंटेलक्चुअल रामचंद्र गुहा ने इंदिरा गांधी की जन्मशती पर उनकी तारीफ करने वाला लेख लिखने के बजाय, उस अप्रिय विरासत को याद किया जो वह अपने पीछे छोड़ गई थीं. अमर उजाला में लिखे लेख में गुहा ने इंदिरा के सचिव और उनके रिश्तेदार रहे पीएन हक्सर के बीच पत्र व्यवहार का हवाला देते हुए कहा है कि सिर्फ नेहरू और शास्त्री के समय में अच्छे, खराब या तटस्थ, चाहे जैसे भी हों, शीर्ष अधिकारियों और जजों की नियुक्तियां प्रधानमंत्री से निरपेक्ष रह कर कर की जाती थी और वे इसी तरह काम भी करते थे. संस्था की स्वायत्तता को अक्षुण्ण रखा गया था. इंदिरा गांधी के आगमन के बाद यह बदल गया था.

अब राजनीति और व्यक्तित्व ने कार्यपालिका और नगरपालिका के कम को बाधित करना शुरू कर दिया. सार्वजनिक संस्थानों की स्वायत्तता एक बार जीर्ण-शीर्ण होने के बाद दोबारा दुरुस्त नहीं की जा सकी.

लगता है गुहा ने नरेंद्र मोदी के कामकाज की शैली बताने के लिए ही इंदिरा गांधी का प्रसंग उठाया था. लिहाजा वह लिखते हैं, नरेंद्र मोदी की सरकार को अभी चार वर्ष भी नहीं हुए हैं लेकिन सार्वजनिक संस्थानों पर नियंत्रण, संचालन और उनके विध्वंस के मामले में इसने इंदिरा गांधी की सरकार जैसे काम कर लिए हैं. इसने नौकरशाही को अपने अधीन कर लिया है, रिजर्व बैंक और चुनाव आयोग की स्वायत्तता को कमजोर किया है और अब उसकी नजर न्यायपालिका और सशस्त्र बलों पर है.

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समाज को बरगलाना छोड़ें संत और साध्वियां

हिन्दुस्तान टाइम्स में ललिता पणिकर ने होमोसेक्सुअलिटी पर बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर की टिप्पणी की खिंचाई की है. वह लिखती हैं- मुझे इस बात पर आश्चर्य होता है कि आखिर ये संत और साध्वियां लोगों पर अपने विशाल प्रभाव का इस्तेमाल समाज में मौजूद पूर्वाग्रहों से लड़ने में क्यों नहीं करते. ऐसा न भी करें तो उनसे कम से कम प्रामाणिक जानकारी की अपेक्षा की ही जाती है.

रामदेव के मुताबिक आयुर्वेद में समलैंगिकता का इलाज है. यह यौन विकृति और नैतिक पतन है. एक अतिवादी दक्षिणपंथी धर्म प्रचारक अगर कहता है कि समलैंगिकता अप्राकृतिक है और हमारे सामाजिक ताने-बाने को खत्म कर देगा तो उससे यही उम्मीद की जा सकती है. जबकि हमें उन बाबाओं के बारे में भी पता है जो यौन अपराधी हैं और यहां तक कि बाल यौन शोषण के अपराधी तक. लेकिन अपने अनुयायियों के सामने वे कड़े नैतिक मानदंडों की पैरोकारी करते हैं.

समलैंगिकता भारत में प्राचीन काल से रही है और यहां तक कि गे सेक्स से जुड़ी तस्वीरें भी मंदिरों में उकेरी हुई हैं. कोर्ट का शुक्रिया कि एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों पर अब खुले में चर्चा हो रही है. एक जमाने में मनोवैज्ञानिक भी मानते थे कि होमोसेक्सुअलिटी का इलाज हो सकता है लेकिन अब उन्होंने यह समझते हुए अपना मत बदल लिया है कि यह सिर्फ वक्त और धन की बर्बादी होगी.

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हर ओर गुजरात ही गुजरात

और अब कुमी कपूर की तीखी नजर. इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में वह लिखती हैं, गुजरात सरकार के अतिरिक्त सचिव अनिल मुकीम का जल्द ही केंद्र में ट्रांसफर होने वाला है. मुकीम गुजरात कैडर के उन वरिष्ठ नौकरशाहों में नया चेहरा होंगे, जिन्हें दिल्ली में ताकतवर पदों से नवाजा गया है. इससे पहले गुजरात कैडर के जिन अफसरों को केंद्र में लाया गया है उनमें पीएम के अतिरिक्त प्रमुक सचिव पी के मिश्रा, वित्त सचिव हसमुख अढिया, मुख्य चुनाव आयुक्त ए के जोती, सीबीआई स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना, वाणिज्य सचिव रीता तेवतिया, जल संसाधन सचिव अमरजीत सिंह, पीएम के प्राइवेट सेक्रेट्री राजीव टोपनो, पीएम के ओएसडी संजय भवसार, सीबीआई के संयुक्त निदेशक ए के शर्मा, राष्ट्रपति के संयुक्त सचिव भरत लाल और हाइड्रोकार्बन के डायरेक्टर जनरल अतनु चक्रवर्ती शामिल हैं.

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