तमिनलनाडु को इन दिनों तूफान का भय सता रहा है. दक्षिण के इस राज्य में इसे राजनीति के रूपक के तौर पर भी ले सकते हैं जिसने अलग-अलग रूप और आकार वाले कई तरह के तूफानों को झेला है. मुख्यमंत्री जे जयललिता की मौत से कुछ महीने पहले इस प्रदेश ने वह जबरदस्त बाढ़ भी देखी है जिस दौरान 2015 में राजधानी चेन्नई पानी में तैर रही थी. 2016 में उनके निधन ने एक राजनीतिक शून्य बनाया है जिसने नाटकीय रूप से राज्य के राजनीतिक समीकरण को बदला है.
कहां-कैसे की दुविधा के बीच लंबे समय से टाल-मटोल के बाद फिल्म स्टार रजनीकांत की बहुप्रतीक्षित राजनीतिक लांचिंग हो गयी है और वास्तव में राजनीति में उनका प्रवेश असरदार रहता है या नहीं, इसी पर राज्य में राजनीतिक तूफान का अपडेट निर्भर करने वाला है.
लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है : तमिलनाडु की राजनीति में उनका प्रभाव महत्वपूर्ण हो सकता है लेकिन राजनीतिक समूहों के रूप में स्थापित होने का यह महज शोर भर होगा या फिर इससे अधिक वे ऐसा विकल्प बनेंगे जो विशाल मरीना बीच से सटे औपनिवेशिक युग में सत्ता का केंद्र रहे फोर्ट सेंट जॉर्ज पर काबिज होंगे, यह भी अहम है.
जयललिता के बाद का तमिलनाडु: कैसे जाति/समुदाय आधारित पार्टियां और फिल्म स्टार जगह के लिए धक्का-मुक्की कर रहे
जयललिता के निधन के बाद से कावेरी में बहुत सारा पानी बह चुका है. और तकरीबन एक-दूसरे से मिलते-जुलते हरेक राजनीतिक एपिसोड ने जितने जवाब दिए हैं उससे अधिक सवालों को जन्म दिया है.
सबसे पहले, पूर्व फिल्मी नायिका की कट्टर प्रतिद्वंद्वी डीएमके नेता मुथुवेल करुणानिधि 2018 में गुजर गये. इससे राजनीतिक शून्य और भी गहरा हो गया. उनके बेटे एमके स्टालिन को उनके समर्थकों ने स्वाभाविक तौर पर उनके विकल्प के तौर पर देखा जो सत्ताधारी एआईएडीएमके को सत्ता से उखाड़ फेंके. जमीनी स्तर पर अभियानों के साथ स्टालिन कठिन मेहनत करते रहे हैं चाहे वह किसानों का मुद्दा हो या मानवाधिकारों का या फिर तमिल गौरव की बात हो या कॉलेज में दाखिले का सवाल. लेकिन वे अपने करिश्माई पिता और उनके जादुई भाषण क्षमता का विकल्प नहीं बन सके हैं.
दूर से यह बात नहीं दिखती, लेकिन तमिलनाडु में कई जाति और समुदाय आधारित पार्टियां हैं जो एक-दूसरे को धक्का देते हुए आगे बढ़ने की कोशिश करती रहती हैं. साथ ही, फिल्मी सितारे सामाजिक मूल्यों के साथ अपनी करिश्मा को जोड़ते हुए अपनी जगह बनाते हैं.
कम्युनिस्ट समूहों के अलावा सक्रिय दलों में शामिल हैं दलित केंद्रित वीसीके, वन्नियार जाति आधारित पीएमके, वाइको की अगुआई वाली एमडीएमके, स्टंट हीरो विजयकांत की डीएमडीके और थोड़े समय के लिए फिल्म में हीरो रहे सीमन के नेतृत्व वाली भाषाई रूप से नस्लीय “नाम थामिझ़ार” (हम तमिल) पार्टी. कई के नामों के साथ द्रविड़ टैग लगा हुआ है और आम तौर पर इन सबका मतलब होता है जाति और तमिल गौरव का कॉकटेल.
इन सब में आगे रहने के लिए कमल हसन ने मक्कल निधि मैय्यम (जन न्याय केंद्र) बनायी और बेहतर वादे के साथ राजनीति में उतरे ताकि स्वच्छ सरकार दे सकें.
रजनी का तमिलनाडु राजनीति में सब बदल देने की इच्छा किस बात पर आधारित है?
रजनीकांत की एकला चलो रे पार्टी, जिसका नाम अभी तय नहीं हुआ है, भी शोरगुल के इस ब्रह्माण्ड में भीड़ का हिस्सा बन चुकी है. उनके साथ उनका करिश्मा, प्रभावशाली पर्देवाला व्यक्तित्व और विशाल प्रशंसकों का आधार है. लेकिन जब उन्होंने अपनी पार्टी ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ के एलान के साथ शुरू की तो उनके धमाकेदार एलान “माथुवोम, एल्लाथाईयुम माथुवोम” (हम बदलाव लाएंगे. हम सबकुछ बदल देंगे.) में कई कमियां रहीं, जिन्हें दुरुस्त करने की जरूरत है.
कहा जाता है कि उनके प्रशंसकों में 5 साल से लेकर 80 साल तक के लोग हैं लेकिन अगर स्वर्गीय अभिनेता शिवाजी गणेशन की राजनीति में प्रवेश और बाहर होने के विध्वंसकारी उदाहरण के संकेत को समझें तो यह जरूरी नहीं है कि फिल्म के प्रशंसक वोट देने में भी उदारता दिखलाएं.
पूर्व मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन की तरह रजिनी की पर्दे पर दूसरों की मदद वाली भूमिकाएं और पर्दे से बाहर परोपकार के कामों से एक सामाजिक आह्वान पैदा होता है. बहरहाल पटकथा लेखक करुणानिधि और एमजीआर की तरह लंबे समय से जमीनी स्तर पर उनकी द्रविड़ विचारधारा से जुड़ाव और राजनीतिक सक्रियता नहीं है.
इसलिए तमिलनाडु की राजनीति में सबकुछ बदल देने की रजनी की चाहत बड़ी तादाद में युवा वोटरों, उनमें शिक्षा का स्तर और संकीर्ण भ्रष्ट द्रविड़ पार्टियों के लिए उनके मोहभंग पर निर्भर करता है.
यह एक ऐसा राज्य है जहां संभावनाएं भरपूर हैं लेकिन उसकी परख नहीं हुई है.
क्या रजनीकांत DMK के कुछ वोट काट सकेंगे?
तमिलनाडु में साक्षरता का स्तर 80 फीसदी पार कर चुका है और युवा वोटरों में यह 100 फीसदी के स्तर पर है. हुंडई से लेकर विश्वबैंक तक हर कोई नौकरी लेकर खड़ा है क्योंकि यह राज्य प्रमुख आईटी सेंटर बन चुका है जो श्रम आधारित नौकरियों के लिए अक्सर नेपाल और ओडिशा से आए प्रवासी लोगों पर निर्भर करता है. जगह-जगह खुले इंजीनियरिंग कॉलेज इस बात के संकेत हैं कि इस राज्य में आर्थिक समृद्धि है जो औद्योगीकरण के कारण मशहूर है.
करुणानिधि और जयललिता ने जो राजनीतिक शून्य पैदा किया उसे भरने की कोशिश में बीजेपी ने रजनी को खूब लुभाया गया था लेकिन गृहमंत्री अमित शाह के नेतृत्व में हिन्दुत्ववादी पार्टी ने अपना संबंध एआईएडीएमके के साथ जारी रखा जिसका नेतृत्व ईपीएस और ओपीएस-दो असहज स्याम- करते रहे हैं. मुख्यमंत्री एडप्पाडी के पलानीस्वामी और उनके डिप्टी ओपी पन्नीरसेल्वम बहुत सहज नहीं हैं लेकिन इनके दरम्यान सुविधा का गठजोड़ है और बीजेपी हमेशा से इन्हें आकर्षित करती रही है.
कई लोग हैं जो सोचते हैं कि रजनी बीजेपी का प्लान बी हैं और वे डीएमके के कुछ आधार वोटों को खींच ले जाएंगे जिससे बीजेपी को फायदा होगा. लेकिन यह आसान नहीं होगा.
डीएमके का कार्यकर्ता-आधारित प्रतिबद्ध वोट बैंक बहुत मजबूत है. इस बात की संभावना अधिक है कि वे फ्लोटिंग वोट पर कब्जा जमाएं जिससे डीएमके और बीजेपी दोनों को नुकसान होगा. अगर इससे वास्तव में मुकाबला कड़ा होता है तो 2021 के विधानसभा चुनाव में हम त्रिशंकु विधानसभा देख रहे हैं या कम से कम इसे चुनाव पूर्व बेचैन मोल-भाव जरूर कह सकते हैं.
अगर रजनी को सहयोगी मिलते हैं तो DMK & AIADMK के लिए होगी मुश्किल
रजनी जोर देते हैं कि उनकी पार्टी सभी 234 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी. यह देखते हुए कि विशाल और विजय से लेकर अजिथ कुमार और विजय सेथुपथि तक लोकप्रिय युवा फिल्मी सितारे राजनीति के मैदान में हैं, यह संभव है कि रजनी की ऑन स्क्रीन अपील के नतीजे उम्मीद के मुताबिक न हो.
इसके अलावा जैसा कि वे खुद कहते हैं कि वे प्यार पर आधारित राजनीति के आध्यात्मिक स्वरूप की तैयारी में जुटे हैं. रजनीकांत की पार्टी के पर्यवेक्षक हैं वरिष्ठ गांधीवादी तमिलारुवी मनियन. किडनी ट्रांसप्लांट के बाद खुद रजनी की सेहत को लेकर सवाल उठ रहे हैं. पर्दे पर उनके स्टंट और स्टाइल जो मेमे, हास्य और उनकी सराहना बनकर चर्चा में रहते हैं उस पर भी संदेह उठने की एक अन्य वजह है उनकी उम्र (इस महीने वे 70 साल के हो जाएंगे).
क्या तमिलनाडु के मतदाता 21वीं सदी में गांधीवाद के एक अलग स्वरूप के लिए दशकों की द्रविड़ विचारधारा पर आधारित राजनीति पर पानी फेर देंगे जिसका आधार जातिगत मोलभाव और संकीर्ण लोकलुभावनी राजनीति रही है? ऐसा लगता नहीं है. हम तमिलनाडु में आदर्शवाद के लिए युवाओं के आदर्श को नजरअंदाज कर रहे हैं.
बहरहाल अगर वे सहयोगियों को खोजने के लिए 234 सीटों पर चुनाव लड़ने के अपने वादे से पीछे हटते हैं तो डीएमके और एआईडीएमके की मुश्किलें बढ़ जाएंगी.
तमिलनाडु की 'भीड़भाड़' वाली राजनीति
यह स्पष्ट है कि तमिलनाडु की राजनीतिक भीड़ में अब मैं भी-मैं भी का शोर और बहूत कुछ इस पर निर्भर करने वाला है कि गठबंधन का स्वरूप कैसा रहता है. भ्रष्टाचार के मामलों में वीके शशिकला ‘अम्मा’डीएमके (लंबे समय तक जयललिता की विश्वासपात्र रहीं) की महत्वपूर्ण रिहाई भी अब केवल राज्य की राजनीतिक अराजक रंगों में महज एक और रंग ही जोड़ सकेंगी.
राजनीति को फिल्म से जोड़ने के लिए मशहूर रहे इस राज्य में आने वाले समय में मनोरंजन निश्चित हो गया लगता है.
अप्रत्याशित रोमांस देखने को मिल सकते हैं और उम्मीदों के अनुरूप संघर्ष के दृश्य भी देखने को मिलेंगे. पॉपकॉर्न के साथ तैयार रहें.
(लेखक वरिष्ठ जर्नलिस्ट हैं, रॉयटर्स, द इकनॉमिक्स टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए इकनॉमिक्स और पॉलिटिक्स को कवर कर चुके हैं. उनका टि्वटर हैंडल @madversity है. यह एक ओपनियन लेख है. ये लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)