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दुर्गा पूजा और महात्मा: गांधी के साथ हिंदू महासभा के प्रयोगों का क्या मतलब है?

महिषासुर कई दलित और आदिवासी जनजातियों के लिए दानव-वध करने वाली देवी, आर्य ब्राह्मणवादी नैरेटिव के विरोध का प्रतीक है

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एक कमरे में महात्मा गांधी की तस्वीर पर पिस्टल से फायरिंग करने से लेकर कोलकाता हिंदू महासभा के एक सार्वजनिक पूजा पंडाल में देवी दुर्गा द्वारा गांधी वध को दर्शाने तक की घटना एक स्वाभाविक प्रगति है. हिंदू महासभा की जो स्थिति है उसको देखते हुए, महासभा के लिए शायद ही इसमें कुछ नया हो. इस तरह की ध्यान आकर्षित करने वाली घटनाएं महासभा को लोगों को बीच बने रहने के लिए ऑक्सीजन का काम करती हैं. नहीं तो, यह संगठन अपने अतीत की एक धुंधली छाया सा रह गया है, जिसने अपनी सभी प्रासंगिकता, नेतृत्व, कैडर या संरचना को खो दिया है.

यह छोटे, बिखरे हुए, खाली और गर्म मिजाज वाले लोगों में बचा हुआ है जिनकी किसी भी क्षेत्र में कोई पकड़ नहीं है. ये सिर्फ कुछ मिनटों के लिए कभी कभार टीवी डिबेट्स में और कुछ इंच की जगह पर अखबारों में और अब ऑनलाइन न्यूज पोर्टलों में बमुश्किल दिखते हैं. इसके पास भारत या हिंदुओं को कोई सुसंगत, स्पष्ट विजन, विचारधारा, संगठन, भविष्य के लिए ब्लूप्रिंट या का रोडमैप प्रदान करने के लिए कुछ भी नहीं है.

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कोलकाता पंडाल जैसी कंट्रोवर्सी हिंदू महासभा की बेकरारी को दर्शाती है, इस तरह के विवाद जनता और मीडिया का ध्यान खींचने का प्रयास हैं. उन्हें कितनी गंभीरता से लिया जाना चाहिए यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है.

दिलचस्प बात ये है कि सावरकर की हिंदू महासभा और पुराने जमाने के मदन मोहन मालवीय खुद को इस तरह की सामाजिक-राजनीतिक कमी में पाते थे. लगभग एक सदी पहले यह दक्षिणपंथी हिंदू की ताकत थी, जिसका नेतृत्व में देश के अलग-अलग हिस्सों में कुछ साहसी लोग कर रहे थे.

हैरान करने वाली बात ये है कि इसकी गंभीर स्थिति एक ऐसे भारत में बनी हुई है जहां कई दशकों से एक ऐसे शासन द्वारा जोरदार हिंदू आक्रामकता बढ़ रही है जिसके शक्तिशाली सदस्यों ने हाल ही में, मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति अपनी खुली नफरत को छिपाने का प्रयास करना बंद कर दिया.

हिंदू सभा के ध्रुवीकरण वाले अनुष्ठान

यह केवल नाथूराम गोडसे और बहुत सीमित अर्थों में सावरकर की लोकप्रियता या कुख्याति को दर्शाने के लिए किया जाता है. अब चूंकि गोडसे हर गांधी जयंती के इर्द-गिर्द सोशल मीडिया का ट्रेंडिंग कैरेक्टर बन जाता है, ऐसे में महासभा की नींद खुलती है और उसे इस बात का दवाब महसूस होता है कि वह कुछ ऐसी मूर्खतापूर्ण हरकतें करे जिससे लोगों को उसकी मौजूदगी का पता चल सके.

यह मूक अभिनय एक वार्षिक अनुष्ठान है. जो एक बुलबुले की तरह अर्थहीन और क्षणभंगुर (थोड़े समय के लिए) है. यह कुछ खाली दिमाग वाले, नफरत से भरे कम पढ़े-लिखे हिंदू युवाओं को आक‌‌र्षित करता है क्योंकि यह उन्हें मूल्य और प्रतिष्ठा की भावना देता है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया. आरएसएस ने कभी भी महासभा के साथ मंच साझा नहीं किया और हिंदू चेतना पर एकमात्र दावा करने की अनुमति नहीं दी. आजादी के कुछ वर्षों बाद तक या जब तक सावरकर जिंदा थे, महासभा की थोड़ी बहुत प्रासंगिकता और यादें बची हुई थीं, वह खो गई क्योंकि आरएसएस के बाजीगर ने दिल्ली या राज्यों में किसी भी पार्टी की सरकार हाेने के बावजूद लगातार अपना विकास जारी रखा.

हिंदू महासभा पर भारी पड़ा आरएसएस

संगठन और संगठनात्मक विकास के अनूठे मॉडल में संघ ने महारत हासिल की है. आरएसएस ने धर्मनिर्पेक्ष विरोधों, रोक (बाधाओं) और प्रतिबंधित करने के प्रयासों के बावजूद अपने निरंतर, निश्चित विकास को सुनिश्चित किया है. कुछ समय के लिए सहयोगी रही हिंदू महासभा के लिए आरएसएस में कोई जगह नहीं है. सावरकर के जाने के बाद हिंदू महासभा ने अपनी ताकत को खो दिया था.

अगर आप कहीं भी किसी से भी पूछेंगे कि महासभा का नेता कौन है? तो आप लोगों को उत्तर विहीन पाएंगे. महासभा के पास कहीं भी जो कुछ भी छोटा-मोटा आधार था, वह उससे कहीं अधिक शक्तिशाली, उद्देश्यपूर्ण और संगठित संगठन संघ (RSS) द्वारा आसानी से हड़प लिया गया, जिसकी वजह से महासभा ध्यान आकर्षित करने के लिए बेकरार है और तरह-तरह के प्रयास करती रहती है.

इसलिए उस नाटकीय दृश्य को लेकर कुछ करने की जरूरत नहीं है, जिसमें महासभा दुर्गा द्वारा एक गिरे हुए महात्मा के सीने में त्रिशूल घोंपा जा रहा है. कुछ ही दिनों में जैसे ही पूजा का मौसम समाप्त हो जाएगा यह स्मृति फीकी पड़ जाएगी. लोग इसके बारे में भूल जाएंगे.

कुछ साल पहले, महिषासुरमर्दिनी (क्रूरता से भरी शक्ति की देवी जो 'आधे जानवर आधे आदमी' राक्षस महिषासुर का वध करती है) को एक नया स्वरूप प्रदान करते हुए उन्हें आदिवासी लोगों (जो अब समाज के हाशिये पर हैं और अपना महत्व खो चुके हैं) पर आर्य वर्चस्व के प्रतीक के तौर पर स्थापित किया गया.

कुछ वामपंथी, आदिवासी और अम्बेडकरवादी दलित समूहों ने इसे एक हथियार के रूप में अपनाया था ताकि वे लोकप्रिय चेतना के प्रमुख हिंदू पौराणिक स्वरूपों को चुनौती दे सकें.

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'जाति वर्चस्व से पारंपरिक शैतानों को बनाया जाता है'

हालांकि, पारंपरिक "दुर्गा-महिषासुर" हिंदू कथा से जुड़ी हुई पिछले दशक में जो विवाद और नैरेटिव निकलकर सामने आए हैं उसकी अनदेखी करना मूर्खता होगी. 2016-17 के आसपास कई दलित और आदिवासी समूह उभरकर सामने आए, जिन्होंने "महिषासुर" को अपनी पहचान के प्रतीक के रूप में अपनाया और दुष्ट राक्षस को मारने वाली शुद्ध आर्य देवी के प्रमुख पारंपरिक 'ब्राह्मणवादी' नैरेटिव को चुनौती दी.

दिल्ली में जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) पारंपरिक किंवदंती को उलटते हुए समानांतर नाटकों और प्रदर्शनों का भी आयोजन किया. पश्चिम बंगाल में 4000 आदिवासियों का एक छोटा सा समूह था जो महिषासुर को अपने देवता के रूप में देखता था. कुछ समूहों ने दक्षिण में भी इसी तरह के विषयों को समेटने की कोशिश की है, जिसमें उनके द्वारा ईश्वरीय आर्य राम द्वारा राक्षस रावण को मारने के प्रचलित नैरेटिव को चुनौती दी गई है. रावण को बुराई के सबसे बड़े अवतार के रूप में चित्रित किया गया है, इस नैरेटिव को चुनौती देते हुए दक्षिण के समूहों ने जो काम किया है उसमें रावण को सामुदायिक पहचान के एक मार्कर के रूप में शामिल किया गया है.

इन सभी वर्जन की नींव उत्तर की पेरियार-अंबेडकर नैरेटिव (मनुवादी आर्य बनाम दक्षिणी या आदिवासी आबादी) है.

त्योहार में सांप्रदायिक आग को हवा देना

ऐसा लगता है कि पिछले कुछ वर्षों में सावरकर वाले हिंदुत्व नैरेटिव के उदय में वे आंदोलन और उत्तेजनाएं खत्म हो गई हैं. लेकिन दोषयुक्त लाइनें अभी भी मौजूद हैं, वे अभी समाप्त नहीं हुई हैं.

हिंदू महासभा द्वारा दुर्गा-महिषासुर कथा का यह जो नया वर्जन प्रस्तुत किया गया है उससे बीजेपी सरकार या संघ परिवार के विभिन्न सदस्यों को किसी तरह से कोई समस्या नहीं है. यह और कुछ नहीं बल्कि गांधी-विरोधी (एंटी गांधी), नेहरू-विरोधी (एंटी नेहरू) नैरेटिव की चरम अभिव्यक्ति है, जिसे लगभग आधिकारिक तौर पर चलाया जा रहा है.

हो सकता है हिंदू महासभा हिंदू दक्षिणपंथ का छोटा सा फ्रिंज हो, लेकिन यह अशिक्षित और संघर्ष करने वालों की बढ़ती संख्या से मिलता-जुलता है, जो मुसलमानों के लिए बाकायदा नफरत से भरे हुए हैं और जो उनके विचार में उनका समर्थन करते हैं. हो सकता है यह अपार बहुरंगी भीड़ को अपने गुस्से और जहर को और भी रचनात्मक, विभाजनकारी और विनाशकारी तरीकों को अपनाने के लिए प्रेरित करे. उन पर नजर रखने की जरूरत है.

(लेखक सम्यक फाउंडेशन के पत्रकार और ट्रस्टी हैं. वह @rahuldev2 से ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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