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अमेरिका की संसद में पेश हुआ एक बिल, पास हुआ तो पाकिस्तान बहुत रोएगा

अफगानिस्तान में सेना की भारी बेइज्जती से अमेरिका आग बबूला है

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पाकिस्तान (Pakistan) फिर से युद्ध के लिए कमर कस रहा है, पर इस बार अमेरिका (America) के साथ। अमेरिका ने आग में घी डालने का काम किया है। वहां 22 रिपब्लिकन सीनेटर्स ( Republican Senators) ने एक बिल पेश किया है, जिसका नाम है, अफगानिस्तान (Afghanistan) काउंटरटेरिरिज्म, ओवरसाइट एंड एकाउंटिबिलिटी एक्ट।

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इस बिल में अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना (US Army) की वापसी का जिक्र तो है ही, साथ ही इसका मकसद “तालिबान (Taliban) और उसके साथियों और उनका साथ देने वाले देशों पर प्रतिबंध लगाना है।” बस, इसी से रावलपिंडी में हाय-तौबा मच गई। चूंकि वह अपने प्यादों को सत्ता की चाबी थमाकर चैन की बंसी बजा रहा था। लेकिन पाकिस्तानी नेताओं को परेशान करने के लिए और भी बहुत सी वजहें होती हैं। एक खबर यह भी है कि कराची स्टॉक एक्सचेंज में इस खबर के बाद गिरावट देखी गई है।

अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की बेइज्जती के चलते कैपिटल हिल गुस्से से आग बबूला है, तो ये बिल आने वाली कई चीजों में से सिर्फ एक हो सकती है.

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इस बिल में क्या है?

इस बिल के दायरे में कई संवेदनशील मसले शामिल हैं। इसे पटल पर रखने वालों में मिट रोमनी भी शामिल हैं जोकि ओबामा के खिलाफ राष्ट्रपति चुनाव में खड़े हुए थे। चूंकि इसे रिपब्लिकन्स ने पटल पर रखा है, इसलिए इसमें इस बात का कोई जिक्र नहीं कि अफगानिस्तान से अमेरिका ने वापसी की ही क्यों। जैसा कि एक सीनेटर ने कहा है, “वह जहाज रवाना हो गया है।”

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हां, इसमें अमेरिकी सेना की वापसी के तरीके और उसके असर पर सवाल जरूर किए गए हैं। इसके अलावा स्टेट डिपार्टमेंट टास्क फोर्स से कहा गया है कि वह अमेरिकी नागरिकों और परमानेंट रेज़िडेंट्स को वहां से निकालने पर ध्यान दे। वहां तालिबान के लौटने के समय करीब 10,000 से 15,000 अमेरिकी मौजूद थे।सिर्फ 6,000 को वहां से निकाला गया है। यानी बहुतों पर मुसीबत मंडरा रही है। इसके अलावा अमेरिका के साथ देने वाले वफादार अफगान भी वहां मौजूद हैं जिन पर खतरे की तलवार लटकी हुई है।

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यह भी याद रखने की जरूरत है कि अफगानिस्तान के गृह मंत्रालय के पास इस बात का पूरा लेखा-जोखा है कि किसने क्या-क्या किया था। और गृह मंत्रालय की कमान सिराजुद्दीन हक्कानी के हाथों में है जोकि 5 लाख अमेरिकी डॉलर का ईनामी आतंकवादी है। यह सभी संबंधित लोगों के लिए बुरा हो सकता है, और बिल में यह बात साफ कही गई है, बिना किसी लाग-लपेट के।

बिल यह भी कहता है कि तालिबान “कोड ऑफ फेडरल रेगुलेशंस के टाइटिल 31 के पार्ट 594 के तहत विशेष रूप से नामित विश्वव्यापी आंतकवादी हैं”, और दूसरे संबंधित कानूनों के तहत भी अंतरराष्ट्रीय स्तर के आतंकवादी हैं। फिर बिल में कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा और दूसरी सभी एजेंसियों में तालिबान प्रतिनिधियों पर पूरी तरह से बैन लगाया जाए, और इसके लिए अमेरिका को अपने रुतबे का इस्तेमाल करना चाहिए।

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बिल में सिफारिश की गई है कि तालिबान जिस तरह मानवीयता को भूलकर हिंसक हरकतें कर रहा है, उस आधार पर उस पर प्रतिबंध लगाए जाएं। बिल के दूसरे खंड में यह मांग की गई है कि अमेरिकी सरकार न सिर्फ उस डिफेंस सामान की लिस्ट दे जो वह जल्दबाजी में अफगानिस्तान छोड़ आई है, बल्कि यह भी बताए कि उस सामान को वापस हासिल करने के लिए वह क्या रणनीति अपनाने वाला है। अमेरिका जो सामान वहां छोड़ आया है, उसमें 75,898 वाहन, 5,99,690 हथियार, 1,62,643 कम्यूनिकेशन इक्विपमेंट्स, 208 एयरक्राफ्ट, खुफिया, निगरानी एवं टोही उपकरणों के 16,191 पीस, कई हजार असॉल्ट राइफलें और कम से कम 20,000 हथगोले शामिल हैं।

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वैसे यह काम काफी मुश्किल है, क्योंकि इनमें से बहुत सारा सामान तो अब तक सीमा पार पहुंच चुका होगा। खास तौर से पाकिस्तान के हथियार बाजार में।

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बिल के एक पूरे खंड में इस बात की भी मांग की गई है कि अमेरिका के पास आतंकवाद का विरोध करने का लक्ष्य होना चाहिए। उसमें आतंकवाद के खतरों का पता लगाने और उसका मुकाबला करने की ओवर द होराइजन कैपेबिलिटी यानी दूरभेदी क्षमता होनी चाहिए। अमेरिका के पास फिलहाल इसकी कमी है, जोकि पिछले दिनों मालूम चला है। उसने इस्लामिक स्टेट के आतंकियों पर हमला किया, लेकिन बदकिस्मती से निशाना बन गया एक अफगान परिवार।

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भारत के लिए दिलचस्प बात

इस खंड में भारत के लिए भी एक दिलचस्प बात है। इसमें राष्ट्रपति से कहा गया है कि वह एक संबंधित कमिटी को बताएं कि इन देशों में रूस और चीन की क्या गतिविधिया हैं, और “चीनी जनवादी गणराज्य (पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) की सीमा से लगे दक्षिण और मध्य एशियाई देशों के साथ सीमा विवाद” जैसे मामलों की भी जानकारी दे।

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यही नहीं इस खंड में यह कहा गया है कि अमेरिका को भारत के साथ कूटनीतिक, आर्थिक और रक्षा सहयोग के क्षेत्रों को भी चिन्हित करना चाहिए ताकि यह जाना जा सके कि इन देशों के सामने क्या चुनौतियां हैं, साथ ही इसने अमेरिका के साथ भारत के सहयोग को कैसे प्रभावित किया है, इसका आकलन भी किया जाए।

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यह भारी-भरकम भाषा रावलपिंडी की नींद उड़ाने के लिए काफी है। लेकिन अभी बहुत कुछ बाकी है।

पाकिस्तान सांसत में?

बिल का एक पूरा खंड पाकिस्तान को ही समर्पित है। इसमें यह अध्ययन करने की मांग की गई है कि पाकिस्तान ने 2001 से किन-किन देशों को क्या मदद दी। खासकर शरण देकर या वित्तीय और खुफिया मदद देकर। इसके अलावा किन किन देशों को लॉजिस्टिक्स और मेडिकल मदद दी गई है- ट्रेनिंग, उपकरण वगैरह दिए गए हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि पाकिस्तान ने किन देशों को सामरिक, ऑपरेशनल या कूटनीतिक निर्देश दिए गए हैं।

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वह निर्देश दे रहा था, और यह बहुत स्पष्ट है। पाकिस्तान ने पूरे ऐहतियात से इस अभियान को अंजाम दिया। दिलचस्प यह है कि यह बिल अमेरिकी सरकार के लिए यह अनिवार्य करेगा कि वह पंजशीर ऑपरेशन में पाकिस्तान के शामिल होने का ब्यौरा दे। इस ऑपरेशन में न सिर्फ नागरिक मारे गए थे बल्कि ऐसा लगता है कि यूएवी फ्लाइट्स के तौर पर विदेशी हवाई मदद दी गई थी। बिल अमेरिकी सरकार के लिए यह बताना अनिवार्य करता है कि उसने इस सहयोग को ‘कम’ करने के लिए क्या किया। हालांकि इसका एक ही जवाब होगा- कुछ नहीं।

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प्रतिबंध लगाने ही होंगे

इससे भी बदतर बात। जिस खंड में प्रतिबंध की बात कही गई है, उसके तहत सरकार को कांग्रेस को बताना होगा कि “किन-किन सरकारों या संगठनों ने तालिबान को सहायता दी।” इसका मतलब यह है कि न सिर्फ पाकिस्तान सरकार बल्कि ओकारा खट्टक में मदरसा हक्कानिया जैसे संगठनों, साथ ही तालिबान की जीत में तालियां बजाने वाले दूसरे चरमपंथी संगठनों और काबुल पहुंचने के लिए अमादा संगठनों का कच्चा चिट्ठा भी खुल जाएगा।

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बिल में तालिबान या दूसरे आतंकवादी समूहों को अर्ध सैनिक या सैनिक सहयोग या खुफिया या लॉजिस्टिक सहयोग देने वालों पर भी प्रतिबंध लगाने की बात कही गई है। दूसरे आतंकवादी समूहों का जिक्र खास तौर से मजेदार है क्योंकि इसमें लश्कर-ए-तैय्यबा और उसके जिगरी और नातेदार भी शामिल हो जाते हैं। यह साफ तौर से पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसियों से संबंधित है। इसमें ड्रग्स की तस्करी और इससे जुड़े प्रावधान हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि तालिबान का समर्थन करने वाली संस्थाओं या देशों को सभी तरह की विदेशी सहायता बंद करने की मांग गई है। अब यह सोचते हुए कि अमेरिका अब भी पाकिस्तान का सबसे बड़ा रहनुमा है और उसे सबसे ज्यादा सहायता देता है, आपके सामने पूरी तस्वीर साफ हो जाएगी।

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वैसे यह बिल सिर्फ रिपब्लिकन सीनेटर्स के मन का गुबार नहीं है।बल्कि उस निराशा का दूसरा रूप है जोकि अमेरिका की वापसी और तालिबान की फतह से पैदा हुई है। जिस तरह पाकिस्तान ने अंगूठा दिखाकर जीत का जश्न मनाया है, उससे अमेरिका का खिन्न होना लाजमी है।

यह गुस्सा किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं, और इसने विकराल रूप अख्तियार कर लिया, जब अमेरिका के सेनानायकों ने कांग्रेस को बताया कि अफगानिस्तान से उनकी वापसी कितनी दुखद रही है। अमेरिकी प्रेस भी लगातार बता रहा है कि किस तरह पाकिस्तान ने आस्तीन का सांप बनकर अमेरिका को जख्मी किया है।

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बेशक, बिल शुरुआती चरण में है। फिर भी इसे पूरी तरह से अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसमें कई जायज़ सवाल किए गए हैं। ऐसी मांग की गई हैं जो न सिर्फ पाकिस्तान, बल्कि अफगानिस्तान के हालात से भी संबंधित हैं। सबसे अहम यह है कि इसमें अमेरिका से अफगानिस्तान में बढ़ते आतंकवाद से खुद को बचाने की गुहार लगाई गई है।

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इसकी गूंज पाकिस्तान में सुनाई देगी और पाकिस्तान हलकों में इस बात की पूरी कोशिश की जाएगी कि यह कमजोर पड़ जाए।लेकिन यह ठंडा नहीं पड़ेगा, चूंकि अमेरिका का सिर पूरी दुनिया के सामने शर्म से झुका जरूर है। उसे बड़े बेआबरू होकर अफगानिस्तान से निकलना पड़ा है। बेशक, तालिबान या उसके आका अफगानिस्तान जैसे देश के लायक नहीं हैं।

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(डॉ. तारा कर्था इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कंफ्लिक्ट स्टडीज़ (आईपीसीएस) की डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं. वह @kartha_tara पर ट्विट करती हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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