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देश की राजनीति को नया मोड़ देता आया है ‘जाटलैंड’,फिर हलचल के संकेत

आखिर कब-कब और कैसे ‘जाटलैंड’ की धमक देश की ‘सर्वोच्च राजनीति’ में दिखी. पूरा ब्योरा

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के लाखों किसान देश की राजधानी दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर पिछले 75 दिनों से प्रदर्शन कर रहे हैं. यह एक ऐतिहासिक दस्तावेजी तथ्य है कि पिछले कई सालों से दिल्ली देश की राजधानी तो है ही साथ ही ये देश का ‘दिल’ भी है. लेकिन इतना ही महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस दिल की धड़कन को ऊर्जित और प्रभावित करने में जाटलैंड की भूमिका हमेशा से रही है.

अनेक घटनाएं साक्षी हैं कि यहां की राजनीति में जब भी कोई बड़ा परिवर्तन हुआ है उसकी नींव दिल्ली के इर्दगिर्द के लगभग 300-400 किलोमीटर के दायरे में बसे जाटलैंड में रखी जाती है. वर्तमान किसान प्रदर्शन फिर एक ऐसा ही संकेत देता प्रतीत हो रहा है कि यह देश की राजनीति को नया मोड़ दे सकता है. ऐसा विश्वास करने के कई आधार हैं और उसे ही एक-एक कर समझते हैं.

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जाटलैंड समझता है कि असली भारत गांव में बसता है

खेत को मंदिर, किसान को भगवान और अपने बाहुबल को अध्यात्म मानने वाला जाट समुदाय कर्मकांडों के खिलाफ रहा है. शांतिकाल में हल-फावड़ा और युद्ध के समय तलवार-भाले के इस्तेमाल में ये समुदाय निपुण है.

आखिर कब-कब और कैसे ‘जाटलैंड’ की धमक देश की ‘सर्वोच्च राजनीति’ में दिखी. पूरा ब्योरा

सीधा स्वभाव और खांटीपन ऐसा है कि सत्ता प्रतिष्ठान की रीति-नीति के एकदम उलट राय रखने और दमदार तरीके से उसे अभिव्यक्त करने से कभी नहीं हिचका. मुगल, मराठे, अंग्रेज, महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, मोरारजी देसाई, वी.पी. सिंह और अब नरेंद्र मोदी तक जाटों के समर्थन और विरोध का मीठा-खट्टा स्वाद चखाने-चखने का सिलसिला बदस्तूर जारी है. इतिहास गवाह है कि अरबी आक्रांताओं को सिंध में, तैमूर को मेरठ-हरिद्वार के रास्ते में, मुगलों को दिल्ली में, अंग्रेजों को 1857 के संग्राम में और आजाद भारत की सरकारों को जाटों से ही सबसे बड़ी चुनौती मिलती रही है.

आजादी के पहले के तीन दशकों में संयुक्त पंजाब के राजनैतिक क्षितिज पर जाटनेता चौधरी छोटूराम की शख्सियत उभरी, जिसने नीतिगत मतभेद के कारण गांधीजी और कांग्रेस को छोड़कर शुद्ध पंथनिरपेक्ष और किसान हित-चरित्र वाली यूनियनिस्ट पार्टी का गठन किया. साथ ही जीवित रहने तक पंजाब की सत्ता में न तो मोहम्मद अली जिन्ना को और न कांग्रेस को कभी कामयाब नहीं होने दिया.

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उस वक्त किसानों के हित में कई बड़े फैसलों में छोटूराम की अहम भूमिका रही. किसान और मजदूर वर्ग को मुनाफाखोरों, महाजनों और घूसखोरों से बचाने के लिए कृषि उत्पाद मंडी, कर्जमाफी, साहूकार पंजीकरण जैसे कदम उठाए. काम के घंटे तय कराने समेत करीब दो दर्जन कानून पारित कराए. भाखड़ा नांगल बांध को बनवाने में भी उनका योगदान रहा.

गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर ब्रिटिश वायसराय से खुली टक्कर लेना और अपनी बात मनवा भी लेना छोटूराम के जाट तेवर का ही सबूत है. प्रसिद्ध वकील होने के साथ-साथ उन्होंने पत्रकारिता भी की और ‘जाट गजट’ नामक समाचार पत्र निकाला. साल 1945 में उनका देहांत न होता तो देश विभाजन की कथा शायद कुछ और होती. आज भी हरियाणा की राजनीति में उनका नाम लेना आवश्यक अनिवार्यता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2018 में उनकी 64 फीट ऊंची प्रतिमा का अनावरण करने रोहतक आए थे.

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जाटलैंड की सियासत से शीर्ष सत्ता तक का सफर

“भारत एक कृषि प्रधान देश है”, “किसान हमारी अर्थव्वस्था की रीढ़ की हड्डी है” ये वाक्य आजादी के बाद की कई पुस्तकों में लिखे मिलते रहे हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी कहा करते थे कि उन्हें प्रसन्नता तब होगी जब भारत का राष्ट्रपति कोई दलित और प्रधानमंत्री किसान हो. लेकिन इस देश को पहला किसान प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के रूप में साल 1979 में मिला. उनके एक साधारण वकील से लेकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने की कहानी भी किसान राजनीति से शुरू होती है.

नागपुर में साल 1958 के कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में जब देश के सर्वमान्य नेता पंडित नेहरू ने भारत की कृषि के सहकारीकरण का सोवियत माडल अपनाने वाला औपचारिक प्रस्ताव पेश किया. कांग्रेस के अधिसंख्य नेता इससे सहमत नहीं थे, लेकिन विरोध की हिम्मत किसी में नहीं हुई. बीड़ा उठाया चौधरी चरण सिंह ने और खुले अधिवेशन में पूरी दृढ़ता और तर्कपूर्ण तरीके से उसका विरोध किया.
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उनके एक घंटे से अधिक के भाषण के बाद नेहरू को अपना प्रस्ताव वापस लेना पड़ा. उन्होंने ही 1967 में पहली बार देश के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को अपदस्थ किया और दो बार मुख्यमंत्री बने, और दो बार अपने मुख्यमंत्री बनाये-पहले त्रिभुवन नारायण सिंह और दूसरे रामनरेश यादव. बाद में केंद्र की जनता पार्टी सरकार में उनकी जो भूमिका रही वह तो सर्वविदित है. 1979 में वे प्रधानमंत्री बने.

आज भी मुलायम सिंह यादव, चौधरी अजित सिंह आदि उन्हीं की विरासत हैं. पंडित गोविंदवल्लभ पंत और डा. संपूर्णानंद के मंत्रिमंडलों में राजस्व और कृषि विभागों के मंत्री, मुख्यमंत्री, केंद्र में गृह और वित्त मंत्री आदि पदों पर रहते हुए भूमि सिधारों और किसान कल्याण के काम इतिहास में दर्ज हैं.

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1959 में नागपुर के सालाना सेशन में चौधरी चरण सिंह ने सहकारी खेती की सिफारिश के खिलाफ लंबी स्पीच दी
(फोटो : www.chaudharycharansingh.org)

सभी जातियों और धर्मों के किसानों को एक मंच पर लाकर खड़ा करना, तथाकथित पिछड़ी जातियों को सत्ता में उनकी संख्या के अनुपात में मंत्री पद देना, मंडल कमीशन की नियुक्ति से भारत में सोशल इंजीनियरिंग को न्यायपूर्ण आयाम देना उन्हीं का काम है.

राजस्थान में राजा-रजवाड़ों-जागीरदारों के शोषण के विरुद्ध क्रांति

तथाकथित खानदानी शासकों और शोषण उत्पीड़न के विरुद्ध भी जाटों ने ही बिगुल बजाया. 1934 में जाटसभा और आर्यसमाज के संयुक्त तत्वाधान में हुए सीकर आंदोलन और महायज्ञ से इसका सूत्रपात हुआ. इसमें करीब एक लाख लोग शामिल हुए. महाराजा सीकर को खूनखराबा टालने के लिये अंग्रेज राज की शरण लेकर जाटों से भूमि अधिकार और शिक्षा का अधिकार संबंधी समझौता करना पड़ा था.

मेरे पिता रघुवीर सिंह शास्त्री उस समय केवल 17 वर्ष के थे. उन्होंने अपने गुरु जगदेव सिंह सिद्धांती के साथ यज्ञ में सम्मिलित होकर तीन दिन तक सनातनी ब्राह्मणों से जातिप्रथा और मूर्तिपूजा जैसे विषयों पर संस्कृत में शास्त्रार्थ किया था. फिर किसानों को भूमि अधिकार दिये जाने का आंदोलन पूरे राजस्थान में फैला. उसके प्रणेता और अग्रदूत रहे जोधपुर के पुलिस डीआईजी बलदेवराम मिर्धा और उनके तत्कालीन सहयोगी मास्टर भजनलाल अजमेर, चौधरी मूलचंद व चौधरी शिवकरण नागौर, मोतीराम सारण श्रीगंगानगर.

इसी कड़ी में सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए चौधरी कुंभाराम आर्य जिन्होंने कांग्रेस की सरकारों में रहकर कम से कम पांच मुख्यमंत्रियों – हीरालाल शास्त्री, टीकाराम पालीवाल, जयनारायण व्यास, दामोदर व्यास और मोहनलाल सुखाड़िया -- को बनाने और हटाने में अग्रणी भूमिका अदा की. एक समय चौधरी कुंभाराम को राजस्थान की राजनीति का चलता-फिरता पावर हाउस कहा जाता था और दलदल या रेत में फंसी जीपकार के फोर-बाई-फोर गीयर को कुंभाराम गीयर कहना एक मुहावरा बन गया था.

साल 1967 में कांग्रेस सरकार को अपदस्थ करने का उनका जोरदार प्रयास डा. संपूर्णानंद की गवर्नरी चाल से नाकाम कर दिया गया था, अन्यथा चौधरी चरण सिंह से भी पहले उत्तर भारत में यह काम करने वाले वो होते. उन्हीं की परंपरा में बाद में हंसराज आर्य, नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, दौलतराम सारण, परसराम मदेरणा, शीशराम ओला आदि हुए.

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पंजाब की राजनीति में जाटों की धमक

देश विभाजन से पहले संयुक्त पंजाब में पाकिस्तान वाला पंजाब, हमारा वर्तमान पंजाब, हरियाणा और हिमाचल सम्मिलित था. इस क्षेत्र में भी जाटों का अहम स्थान था. चौधरी छोटूराम के अलावा चौधरी शाहबुद्दीन असेंबली के स्पीकर थे, खिजर हयात खां मलिक टिवाणा मंत्री, बाद में प्रीमियर रहे. सरदार सुंदर सिंह मजीठिया, सरदार सुरजीत सिंह मजीठिया, सरदार बलदेव सिंह, सरदार स्वर्ण सिंह सहित कई सिख जाट मंत्रिमंडल के मुख्य सदस्य रहे.

विभाजन के बाद पहले तीन मुख्यमंत्रियों, डा. वृषभान, डा. गोपीचंद भार्गव और लाला भीमसेन सच्चर के बाद सरदार प्रताप सिंह कैरों से लेकर आज तक जितने भी मुख्यमंत्री हुए, एकाध को छोड़कर ज्यादातर जाट ही बने.

यह भी उल्लेखनीय है कि पंजाब का जाट सिख भी गुरुद्वारा का सम्मान तो करता था परंतु रोजाना उसमें मत्था टेकना और उनके प्रबंध में सक्रिय नहीं रहता था. जब उसे राजनीति में गुरुद्वारा की भूमिका का अहसास हुआ तब उसने शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी पर अपना अधिपत्य हासिल कर लिया. आज उसमें भी जाट का बहुमत है.

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हरियाणा की राजनीति में जाट अग्रणी

वर्तमान हरियाणा प्रदेश 1 नवंबर 1966 को पंजाब से अलग होकर नया प्रांत बना. प्रताप सिंह कैरों की सरकार में पंजाबी गुरुमुखी की अनिवार्य शिक्षा के विरुद्ध हुए हिंदी आंदोलन से हरियाणा के निर्माण की नींव रखी गई. उस आंदोलन के संचालन की डोर पंजाब और हरियाणा के आर्यसमाज संगठन के हाथ में थी. हरियाणा के प्रमुख आर्य समाजी नेता थे मेरे पिता के गुरु जगदेव सिंह सिद्धांती, स्वामी ओमानंद सरस्वती, प्रोफेसर शेरसिंह और मेरे पिता. ये चारों जाट थे. उस आंदोलन में यद्यपि हरियाणा की सब जातियों और समुदायों ने बराबर की भागीदारी की, परंतु अग्रिम पंक्ति में जाट था.

उस वक्त नेताओं में अहम भूमिका निभा रहे थे प्रोफेसर शेरसिंह. शेरसिंह 1953 के कैरों मंत्रिमंडल में उपमुख्यमंत्री और सिंचाई बिजली मंत्री थे. उन्होंने गुरुमुखी थोपे जाने के विरोध में त्यागपत्र देकर आंदोलन का सूत्रपात किया था.

बाद में वे केंद्र सरकार में शिक्षा, संचार, रक्षा उत्पादन, कृषि मंत्रालयों में राज्य मंत्री और केंद्रीय योजना आयोग के सदस्य रहे. हरियाणा के अन्य प्रसिद्ध राजनेता थे चौधरी छोटूराम के भतीजे चौधरी श्रीचंद जो विधान सभा के स्पीकर रहे और चौधरी निहाल सिंह.

चौधरी देवीलाल, चौधरी बंसीलाल, चौधरी सूरजमल, चौधरी लहरी सिंह, चौधरी युद्धवीर सिंह, चौधरी रिजक राम, चौधरी बदलू सिंह, चौधरी शमशेर सिंह सुरजेवाला ने अहम भूमिका निभाई. सबसे अधिक लंबे समय तक पंजाब, हरियाणा विधान सभा, लोकसभा, राज्यसभा, विधान परिषद्, संविधान सभा, अंतरिम पार्लियामेंट आदि आठ सदनों के सदस्य और मंत्री रहने वाले थे चौधरी रणवीर सिंह. वे हरियाणा के दो बार मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा के पिता थे.

चौधरी छोटूराम के नाती चौधरी बीरेंद्र सिंह भी हरियाणा और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं. हाल ही में उन्होंने केंद्र के मंत्रिपद से त्यागपत्र दिया है. हरियाणा के विकास में सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा चौधरी बंसीलाल का, जो बाद में केंद्र में रेल और रक्षामंत्री और दोबारा हरियाणा विकास पार्टी बनाकर मुख्यमंत्री बने.

चौधरी बंसीलाल के अलावा एक और व्यक्तित्व की चर्चा के बिना हरियाणा और देश की राजनीति में जाटों के योगदान की चर्चा अधूरी है. वह हैं चौधरी देवीलाल, जिन्होंने पंजाब के धाकड़ मुख्यमंत्री पंडित नेहरू के चहेते प्रताप सिंह कैरों से टक्कर ली. उनके विरोध के बावजूद पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने. दो बार हरियाणा के मुख्यमंत्री बने. दो बार देश के उपप्रधानमंत्री और कृषि मंत्री बने. चौधरी चरण सिंह के सहयोगी भी रहे और विरोधी भी रहे.

आखिर कब-कब और कैसे ‘जाटलैंड’ की धमक देश की ‘सर्वोच्च राजनीति’ में दिखी. पूरा ब्योरा

किसान कर्ज माफी, वृद्धावस्था पेंशन, सामुदायिक कार्यों के लिये मैचिंग ग्रांट, कृषि जिंसों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में खासी बढ़ोतरी, नहरों सड़कों पर खेतों के किनारे लगे सरकारी पेड़ों में किसान की साझेदारी जैसे अनेक किसान हितैषी कार्य उनकी देन हैं.

केंद्र की राजनीति में उनका सबसे बड़ा दखल रहा जनता दल का निर्माण, वी.पी. सिंह को प्रधानमंत्री बनाना और फिर हटाकर चंद्रशेखर को बनाना. ओमप्रकाश चौटाला उनके बड़े पुत्र और अजय-अभय चौटाला पौत्र और वर्तमान उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला प्रपौत्र हैं.

जाट की क्रांति प्रगतिशीलता

जैसा कि पहले भी कहा गया है जाट क्रांतिशील विचारों का समुदाय है. यही कारण है कि भारत के इतिहास में जितने भी बड़े युद्ध और सुधारवादी अभियान या आंदोलन हुए उनमें जाट सम्मिलित हुआ. महाभारत जहां घटित हुआ वह कुरु-जांगल प्रदेश जाटों की भूमि है.

धार्मिक सुधारों में गोरखनाथ संप्रदाय, सिख धर्म, विश्नोई धर्म, इस्लाम, दादू पंथ, कबीर पंथ और फिर 19वीं सदी में आर्य समाज, इन सबकी क्रांत विचारधारा उसे अपनी जन्मजात मानसिकता के अनुरूप लगी. अत: उसे स्वीकार कर उनमें जाट बड़ी संख्या में स्वेच्छा से उत्साहपूर्वक सम्मिलित हुए, जबकि इन सबके संस्थापक प्रणेता गुरु गोरखनाथ, गुरु नानकदेव जी, गुरु जम्भेश्वर जी, मोहम्मद साहब, संत दादू, संत कबीर और स्वामी दयानंद सरस्वती में से कोई भी जाट नहीं था. न इनमें से किसी ने जाट को दीक्षित करने का विधिवत प्रयास किया.

आर्यसमाज और खाप पंचायतों के माध्यम से ग्रामीण आधुनिक प्रगति को आगे लाकर इस समुदाय ने कर्मशीलता और प्रगतिशीलता को दिखाया है.

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जाटों का बीजेपी की ओर रुझान

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों का बीजेपी के प्रति आकर्षित होने का सिलसिला शुरु हुआ 1996 के चुनावों से. उस दौरान डा. रणवीर सिंह और नरेश बालियान को बीजेपी ने राज्यसभा सदस्य बनाया था. 1998 के चुनाव में एक अप्रत्याशित सी घटना हुई. मैं बीजेपी के टिकट पर बागपत से चौधरी अजित सिंह के विरुद्ध उनकी परंपरागत सीट बागपत से चुनाव जीत गया. और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी जी के मंत्रिमंडल में कृषि राज्यमंत्री बना. वह सरकार मात्र 13 माह चली.

अपने कार्यकाल में मैंने किसान क्रेडिट कार्ड, कृषि बीमा योजना, चीनी मिलों की लाइसेंस मुक्ति, गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 460 रुपया प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 550 रुपये करना, कृषि विज्ञान केंद्रों को भारत के प्रत्येक जिले में स्थापित करना, मेरठ में 1955 से प्रतीक्षित कृषि विश्वविद्यालय स्थापित कराने आदि कई ऐतिहासिक निर्णय वाजपेयी जी के आशीर्वाद से कराये. परंतु 1999 के सितम्बर में हुए चुनाव में मैं भारी मत से अजित सिंह से हार गया.

ऐसा लगा कि जाट को अजित सिंह की हार पची नहीं. तब एक ओर तो मुझे केंद्रीय योजना आयोग और बाद में 12वें वित्त आयोग तथा 2004 में राष्ट्रीय किसान आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. इस अंतिम पद से मेरे त्यागपत्र देने पर यू.पी.ए. सरकार ने किसान आयोग का अध्यक्ष डा. स्वामीनाथन को बनाया.
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दूसरी ओर वर्ष 2000 में अजित सिंह को केंद्र में सहयोगी दल के नेता की हैसियत से मंत्री बना दिया गया. पहले वे वी.पी. सिंह, नरसिंह राव, देवगौड़ा और गुजराल मंत्रिमंडल में केंद्रीय मंत्री रह चुके थे. इस घटना के बाद संभवत: जाटों का बीजेपी से विद्वेष कम होने लगा. 2013 की पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सांप्रदायिक घटनाओं और लोकदल की घटती शक्ति से जाटों विशेषकर युवकों में नयी राजनैतिक पहचान तलाशने की जिज्ञासा हुई. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में जाट बीजेपी में दाखिल हो गया.

बीजेपी से मोहभंग का संकेत है वर्तमान किसान आंदोलन

विगत 75 दिनों से राजधानी के चारों ओर टिकरी, सिंघु, गाजीपुर, पलवल, जयसिंहपुर खेड़ा आदि सीमास्थलों पर चल रहा किसान आंदोलन शुरू हुआ पंजाब से. यह सही है कि उसमें पंजाब की सभी किसान जातियां शामिल हैं, परंतु सर्वाधिक संख्या जाटों की है. उसका दूसरा सहयोगी बना हरियाणा का जाट. तीसरा अंश आया पश्चिमी उत्तर प्रदेश से, वह भी जाट. शुरुआत में उसकी संख्या अपेक्षाकृत कम थी.

लेकिन 26 और 28 जनवरी की घटनाओं के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अकस्मात एक उबाल सा आया और बिना किसी संगठित प्रयास के गाजीपुर बार्डर की संख्या टिकरी और सिंघु के समकक्ष हो गयी. राकेश टिकैत का एक नया अवतार देखने को मिला. कुछ ही मिनटों में उन्हें अपने पिता स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत की पदवी मिल गयी, जिन्होंने 1980 के दशक में किसान आंदोलन को एक सर्वथा नया आयाम दिया था और अपने खांटी जाट स्वभाव के बल पर राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय जगत में ख्याति प्राप्त की थी.
आखिर कब-कब और कैसे ‘जाटलैंड’ की धमक देश की ‘सर्वोच्च राजनीति’ में दिखी. पूरा ब्योरा
(फोटो: PTI/Altered by Quint)

अब लक्षण दिखाई देने लगे हैं कि जो जाट 1998 से 2019 के बीच अन्य राजनैतिक दलों से निराश होकर बीजेपी की ओर आकर्षित हुआ था और अपने सर्वमान्य नेता चौधरी चरण सिंह के पंथनिरपेक्ष, जातिनिरपेक्ष किसान राजनैतिक सामाजिक मॉडल को भूलकर हिंदू राष्ट्रवादिता का सक्रिय समर्थक हो गया था, फिरअपनी भूमिका में परिवर्तन करता दिख रहा है. आगामी चुनाव तक क्या समीकरण बनेंगे, उनके क्या नतीजे होंगे यह तो भविष्य ही बतायेगा. परंतु जाटलैंड ने एक बार फिर वह धमक दे दी है जिससे केंद्र की सत्ता और भावी राजनीति में खलल और हलचल के संकेत तो मिलने शुरू हो गए हैं.

((सोमपाल शास्त्री, केंद्रीय कृषि मंत्री और योजना आयोग के सदस्य रह चुके हैं.))

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