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भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में याद रखा जाएगा 2020 का अगस्त महीना

प्रशांत भूषण अवमानना केस, कश्मीर, दिल्ली दंगों पर किताब, तबलीगी जमात....कुछ नया हो रहा है

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कहते हैं कि राजनीति में एक हफ्ता बहुत लंबा समय होता है. अगस्त 2020 का तीसरा हफ्ता ऐसा ही समय था. यह हफ्ता बहुत लंबा और भारी था, यह जरूर है कि देश को इसका काफी लंबे समय से इंतजार था.

विचारों में भिन्नता या नाइत्तिफाकी एक स्वस्थ समाज, एक जीवंत जनतंत्र की आयु लंबी करती है. एक साल पहले तक इसने मानो चुप्पी साध ली थी. जैसे 1.3 अरब भारतीयों ने मुंह पर ताले लगा लिए हों. बेशक, आलोचक, एक्टिविस्ट्स, छात्र नेता और तेजतर्रार पत्रकार कभी चुप नहीं बैठे, और न ही सत्ताधारियों के समर्थक, चाटुकार, और आज की भाषा में ट्रोल्स. उनके बीच मुकाबला जारी रहा- तीखा और उग्र.

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प्रशांत भूषण अवमानना केस, कश्मीर, दिल्ली दंगों पर किताब, तबलीगी जमात....कुछ नया हो रहा है
लेकिन मैं मुख्यधारा की असहमतियों की बात कर रहा हूं- उस सामान्य विरोध प्रदर्शन और लोकतांत्रिक संस्थाओं की प्रतिक्रियाओं की जिनका यह दायित्व है कि वे विरोधियों का भी संरक्षण करें. मई 2019 में बीजेपी की प्रचंड जीत और उस पर जनता के दोबारा भरोसा जताने के बाद तो जैसे सब मूक हो गए.

यह जीत अभी गले भी नहीं उतरी थी कि सरकार ने जम्मू कश्मीर में ‘संवैधानिक’ तख्ता पलट दिया. बीजेपी को तब सत्ता संभाले सत्तर दिन भी नहीं हुए थे.

2019 में अगस्त की पांच तारीख

मुझे फिर गलत मत समझें. मैं यहां अनुच्छेद 370 को हटाने और एक संघर्षरत राज्य को दो टुकड़ों में बांटने के राजनैतिक लाभ पर बहस नहीं कर रहा. यह राजनैतिक रूप से मुनासिब या पूरी तरह से अनुचित हो सकता है, लेकिन मैं इस पर कोई चर्चा नहीं छेड़ना चाहता. मेरा मकसद यह है कि कैसे उस दिन मुख्यधारा की असहमतियों ने चुप्पी साध ली- 2019 का पांच अगस्त, वही दिन था. यह कदम सही था या गलत, साहसी या दुस्साहसी, इतना बेबाक था कि इसके साथ असहमति जताना कहीं जरूरी भी था:

  • बिना किसी नोटिस के संसद को संविधान में संशोधन करने की क्या जल्दी थी?
  • एक गवर्नर जिसे केंद्र नियुक्त करता है, किसी निर्वाचित विधानसभा के अधिकारों का हनन करके, एक ऐसे राजनैतिक आदेश को कैसे लागू कर सकता है जिसका विधानसभा विरोध कर सकती थी.
  • क्या यह अप्रत्याशित कदम संविधान विरोधी और उसका उल्लंघन करता था.
  • क्या कानून इस बात की इजाजत देता है कि दर्जनों नेताओं को कैद में रखा जाए और लाखों लोगों को महीनों तक कनेक्टिविटी और उनकी जीविका के अधिकार से महरूम रखा जाए.
प्रशांत भूषण अवमानना केस, कश्मीर, दिल्ली दंगों पर किताब, तबलीगी जमात....कुछ नया हो रहा है
ये मुद्दे इतने विवादास्पद थे कि हर लोकतांत्रिक संस्था- ज्यूडीशियरी, प्रेस या विपक्षी दलों को इसका विरोध करना चाहिए था. लेकिन इसका उलट हुआ- एक चुप्पी छा गई. विरोध के एकाध दबे घुटे स्वर सुनाई दिए लेकिन मौन के इस कानफोड़ू सन्नाटे ने मुख्यधारा की असहमतियों को मानो बहरा कर दिया. सरकार के इस कदम पर फैसला देने के लिए न्यायपालिका एक संवैधानिक पीठ का गठन कर सकती थी, लेकिन उसने इस मामले को लंबित करने की कोशिश की, तब तक, जब तक कि यह मामला ठंडा न पड़ जाए.
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इसके बाद पिछले एक साल में हमें सीएए विरोध प्रदर्शनों में सिर्फ स्टूडेंट्स और एक्टिविस्ट्स नजर आए- मुख्यधारा की लोकतांत्रिक संस्थाओं ने यहां भी मुंह पर ताला लगा लिया. बाकी देश भी मूक भी बना रहा. फिर मार्च के बाद से कोविड-19 के चलते यह शांति और प्राण घातक हो गई... लेकिन अगस्त 2020 के तीसरे हफ्ते में मुख्यधारा में असहमति के स्वर सुनाई दिए और मृत शरीर ने एक बार फिर सांसें भरनी शुरू कर दीं.

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महात्मा गांधी के शब्दों ने एक बार फिर देश की नींद से जगाया

यह थोड़ा दिलचस्प है कि मोदी सरकार ने जिस शीर्ष कानूनी अधिकारी की नियुक्ति की थी, उसी ने असहमति का झंडा बुलंद किया. अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने खुली अदालत में कहा कि वह सीनियर वकील प्रशांत भूषण के सिर्फ दो ट्विट्स के चलते उन्हें अदालत की अवमानना का दोषी ठहराने के खिलाफ हैं. उनके इस बयान के बाद लगा कि जैसे देश ने दोबारा सांस लेनी शुरू की है. इसके बाद प्रशांत भूषण ने अपने बचाव में महात्मा गांधी के शब्दों को दोहराया- ‘मैं रहम नहीं चाहता. मैं उदारता की अपील भी नहीं करता. मैं यहां किसी भी सजा को स्वीकार करने के लिए आया हूं जो मुझे उस बात के लिए दी जाएगी, जिसे कोर्ट ने अपराध माना है, जबकि वह मेरी नजर में गलती नहीं, बल्कि नागरिकों के प्रति मेरा सर्वोच्च कर्तव्य है.' प्रशांत भूषण के इन शब्दों ने गांधी की उस सविनय अवज्ञा की यादें ताजा कर दी थीं जो उन्होंने 75 साल पहले ब्रिटिश हुकूमत की असहमति में जताई थी.

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इस तरह असहमतियों का दौर चल पड़ा. कश्मीर में राजनैतिक गलियारों की नींद टूटी और विपक्षी दलों का एकमत नजर आया. अब तक उन पर अपने ही साथियों से उलझने के आरोप थे. फारुख अब्दुल्ला की अगुवाई में जैसे दुश्मन भी दोस्त बन गए- पीडीपी, कांग्रेस, पीपुल्स कांफ्रेंस, सीपीएम और आवामी नेशनल कांफ्रेंस साथ आ गए और सभी ने अनुच्छेजद 370 को बहाल करने की मांग की. साथ ही यह ऐलान भी किया कि ‘4 अगस्त, 2019 को जम्मू और कश्मीर की जो स्थिति थी, उसे बहाल करने के पाक इरादे के साथ राजनैतिक गतिविधियां चलाई जाएंगी’, और इस तरह घाटी में लोकतंत्र स्थापित होगा.

जस्टिस टीवी नलावडे और जस्टिस एमजी सेवलिकर ने मुंबई हाई कोर्ट की औरंगाबाद बेंच की तरफ से कानूनी हथियार का इस्तेमाल किया.

उन्होंने छह भारतीय और ईरान, आयवरी कोस्ट, घाना, तंजानिया, जिबूती, बेनिन और इंडोनेशिया के 29 लोगों के खिलाफ दायर की गई एफआईआर को खारिज कर दिया. इन लोगों के लिए कहा गया था कि इन्होंने दिल्ली में तबलीगी जमात की कांफ्रेंस में हिस्सा लेकर भारत में कोविड-19 के संक्रमण को तेजी से फैलाया है. यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि इस पूरे मसले को सांप्रदायिक चश्मे से देखा गया. उन पर ‘जान बूझकर और आपराधिक रूप से संक्रमण फैलाने’ का आरोप लगाया गया था. लेकिन अदालत ने इसे द्वेष से भरा प्रोपेगैंडा माना और कहा कि आरोपियों को ’बलि का बकरा’ बनाया गया है. यह भी असहमति का ही एक स्वर था.

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असहमतियों ने ताज उछाले और तख्त गिराए हैं

उम्मीद से एकदम उलट था, कांग्रेस पार्टी का अंदरूनी विरोध. कांग्रेस भारत का मुख्य राजनैतिक दल है लेकिन वहां विरोध या असहमतियों पर कभी कान नहीं दिया जाता. ऐसे में 23 राजनीतिक दिग्गजों ने क्षेत्र और उम्र की सीमाओं से परे जाकर गांधी परिवार से कह दिया- या तो नेतृत्व संभालें या नेतृत्व छोड़ दें. कांग्रेस की परंपरा के अनुसार, यह बड़ा बवंडर था. ‘विद्रोहियों’ को वफादारी के सवाल पर घसीटा गया लेकिन सच्चाई तो यह है कि यह मत भिन्नता और असहमतियों का संकेत था.

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इसी तरह ब्लूम्सबरी जैसे मल्टीनेशनल ने एक और विरोध दर्ज किया. आम तौर पर कॉरपोरेट वर्ल्ड घरेलू राजनीति से दूर रहने की कोशिश करता है लेकिन ब्लूम्सबरी ने ऐसा नहीं किया. उसने दिल्ली दंगों पर एक किताब को छापने से मना कर दिया क्योंकि कपिल मिश्रा जैसे अल्ट्रा राइट विंग नेता उसके पिन अप ब्वॉय थे. वह किताब के लिए आयोजित एक ऑनलाइन कार्यक्रम में मेहमान थे. लेखकों ने किताब किसी स्थानीय पब्लिशर को छापने को दे दी. अब यह किताब बेस्टसेलर साबित हो या दुकानों में धूल खाए, असम्मति ने अपनी जगह बना ली. इस दौरान किसी को प्रतिबंधित नहीं किया गया- न तो विदेशी पब्लिशर को, न ही लेखकों और न ही उस नेता को.

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आखिरकार असहमतियों के बीजों में एक बार फिर अंकुर फूटने लगे. हमें इस अरदास के साथ अपनी बात खत्म करनी चाहिए-

“हे स्वर्ग में वास करने वाले हमारे पिता,

आज हमें हमारा रोज का अगस्त दे दो

और यह सिर्फ अकेलेपन का घूंट न हो,

चुप्पी की शीत के बाद.”

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