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‘कबीर सिंह’ जहर है या प्यार है तेरा ‘चुम्मा’?

‘कबीर सिंह’ में एक नहीं, हजार गलतिया हैं. ये पूरी फिल्म जैसे चीख-चीख कर टॉक्सिक मस्कुलिनिटी को ग्लोरिफाई कर रही है.

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कबीर सिंह फिल्म शुरू होने से पहले इसकी चेतावनी तो देती है कि सिगरेट और शराब पीना सेहत के लिए हानिकारक है, लेकिन ये नहीं बताती कि फिल्म की टॉक्सिक मस्कुलिनिटी दिमाग और सेहत के लिए कितनी खतरनाक है.
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कबीर सिंह या फिर कहें अर्जुन रेड्डी जैसे किरदार, एक घटिया पुरुषवादी सोच का खतरनाक नतीजा हैं. एक आगे बढ़ते समाज में ये रिग्रेसिव किरदार गलत उदाहरण सेट कर रहे हैं.

कबीर सिंह जैसे मिसॉजिनिस्ट और सेक्सिस्ट किरदार की आज के समय में क्या जरूरत है?

‘कबीर सिंह’ में एक नहीं, हजार गलतियां हैं. ये पूरी फिल्म जैसे चीख-चीख कर टॉक्सिक मस्कुलिनिटी का महिमामंडन कर रही है. फिल्म की शुरुआत में ही एक सीन है, जिसमें कबीर एक लड़की के घर जाता है. दोनों आपसी सहमति से सेक्स करने जा रहे होते हैं, लेकिन फिर लड़की मना कर देती है. वो ना तो सुनता है, लेकिन इसका उस पर कोई असर नहीं होता.

जैसे बात उसके इगो पर लग गई हो. कबीर चाकू उठाता है और लड़की से अपने कपड़े उतारने को कहता है. चाकू की नोक पर ये रेप की कोशिश नहीं तो और क्या है? इस सीन का घिनौनापन क्या कम था कि इसपर थियेटर में तालियां बज पड़ीं. जहां मेरा खून खौल गया ये सीन देखकर, वहां ऑडियंस इस पर तालियां पीट रही थी.

एक सीन और है, जिसमें कबीर अपने घर में काम करने वाली मेड के पीछे एक साइको किलर की तरह भागता है, क्योंकि उसने गिलास तोड़ दिया था. इस सीन के साथ जो म्यूजिक था उससे साफ है कि इसे कॉमेडी सीन के तौर पर दिखाया गया. फिल्ममेकर की मंशा भी ऑडियंस तक पहुंची क्योंकि वो खिलखिलाकर हंस पड़ी, जैसे किसी कॉमेडियन ने कोई शानदार जोक मारा हो.

ऐसे सीन को कॉमेडी बना देना और ऑडियंस का उसपर हंसना दिखाता है कि फिल्म को कितनी इंसेंसिटिविटी के साथ बनाया गया है. कैसे फिल्म में महिलाओं के साथ इस बर्ताव को ‘आम’ बता दिया है!
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कबीर के कुछ सीन, जो मेरी नजर में शर्मनाक हैं:

  • सीन 1- कबीर एक लड़की को मोटी कहकर फैट शेम करता है.
  • सीन 2- कबीर प्रीति (फिल्म की लीड कियारा आडवाणी) से अपनी चुन्नी ठीक करने को कहता है.
  • सीन 3- कबीर कहता है कि प्रीति उसके बगैर कुछ नहीं है, उसकी पहचान सिर्फ कबीर सिंह की 'बंदी' के रूप में है.
  • सीन 4- कबीर इस बात पर फक्र करता है कि प्रीति कितनी 'प्योर' यानी पाक है.

‘यू’ और कबीर सिंह एक ही हैं- देखने का नजरिया अलग

कहने को डायरेक्टर संदीप वांगा ने एक एपिक लव स्टोरी बनाई है, लेकिन जनाब ये मोहब्बत सिर्फ मेल किरदार की नजर में है. कबीर पहले ही दिन प्रीति को देखकर सभी से कह देता है कि वो उस लड़की से प्यार करता है. वो लड़की जिससे वो अभी तक मिला भी नहीं है, जिससे उसने अभी तक बात भी नहीं की है. वो किसी टेरिटरी की तरह उसे मार्क कर देता है और पूरे कॉलेज में हल्ला मचवा देता है कि 'ये मेरी बंदी है'. ये मोहब्बत नहीं, ऑब्सेशन है और इस ऑब्सेशन को फिल्म में रोमांस कहा गया है.

नेटफ्लिक्स पर एक शो है, 'यू'. ये एक ऐसे स्टॉकर की कहानी है जो एक लड़की से इतना ऑब्सेस हो जाता है कि उसका पीछा करता है और जो उसके रास्ते में आता है उसे मार डालता है. लड़के की नजर में ये प्यार था, लेकिन फिल्ममेकर्स ने इसे जन्मों-जन्मों के साथ वाली मोहब्बत नहीं दिखाया. उन्होंने वही दिखाया, जो वो था- एक स्टॉकर.

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अब नहीं ‘तेरे नाम’

16 साल में नवजात जवान हो जाते हैं, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री के कुछ लोग आगे बढ़ना ही नहीं चाहते. 16 साल पहले एक फिल्म आई थी ‘तेरे नाम’. फिल्म का लीड राधे एक लड़की को रोज छेड़ता है, वो रोती है, चिढ़ती है लेकिन फाइनली उसकी बाहों में आ जाती है. ताज्जुब ये है कि ‘राधे’ का चेला ‘कबीर सिंह’ 16 साल बाद भी यही कर रहा है. जमाना बदल रहा है, देश बदल रहा है लेकिन राधे, कबीर के अवतार में वहीं खड़ा है. सर जी, ‘तेरे नाम’ का दौर निकल गया.

‘कबीर सिंह’, ‘तेरे नाम’ और ‘काटरू वेलियीदाई’ जैसी फिल्मों की यही दिक्कत है कि ये मोहब्बत के नाम पर टॉक्सिक रिलेशनशिप परोस रही है और जिसे ऑडियंस पसंद भी कर रही है.

बॉलीवुड ने तमाम ऐसी फिल्में बनाई हैं, जिनमें लड़की कभी इन लड़कों के खिलाफ आवाज नहीं उठाती. मुझे सबसे ज्यादा दिक्कत इसी बात से है कि वो क्यों आवाज नहीं उठाती? क्यों वो एक ऐसे रिश्ते को प्यार समझ बैठती है, जो प्यार हो या न हो, जबरन अधिकार पक्के तौर पर है.

और जिन लोगों का कहना है कि फिल्म में नारीवाद न घुसाया जाए... इसमें नारीवाद की बात ही कहां से आई. एक रिलेशनशिप में अपने पार्टनर से सम्मान की उम्मीद क्या गलत है? क्या किसी भी पुरुष या महिला को पार्टनर से सम्मान नहीं मिलना चाहिए?

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इस घटिया पुरुषवादी सोच को रोमांस का चोला ओढ़ाकर ऑडियंस को दिखाना और उसे ग्लोरिफाई करना एक बड़ी समस्या है. ये समाज के लिए गलत उदाहरण पेश कर रहे हैं. तीन घंटे की इस फिल्म में मुझे जहां अधिकतर सीन पर गुस्सा आया, वहीं थियेटर में मेरी लाइन में बैठे तीनों मर्द अपना गला फाड़कर हंस रहे थे. कबीर सिंह इन तमाम मर्दों का मन बढ़ा रहा है जो लड़की को अपनी प्रॉपर्टी समझते हैं.

सोशल मीडिया पर ऐसे कई ट्वीट और वीडियो हैं, जो कबीर सिंह के बिहेवियर को जस्टिफाई कर रहे हैं. यूट्यूब पर Pratik Borade नाम के एक व्यक्ति ने फिल्म का रिव्यू डाला है, जिसमें उन्होंने फिल्म के हर एक गलत सीन को जस्टिफाई करने की कोशिश की है. उनका मानना है कि इस फिल्म से फेमिनिस्ट और लिबरल्स को बेवजह दिक्कत है.

फिल्म कंपैनियन की सुचारिता त्यागी ने जब फिल्म की आलोचना की तो एक यूजर ने लिखा, 'चाकू की नोंक पर रेप नहीं कर रहा है वो बोल रही है, पर ये नहीं बोल रही कि वो लड़की जिसकी सगाई हो गई थी, फिर भी उसने कबीर को अपने घर बुलाया. लड़कियां कुछ भी करें तो सही, पर लड़कों को एकदम राजा हरिश्चंद्र बनकर रहना होगा.'

‘कबीर सिंह’ में एक नहीं, हजार गलतिया हैं. ये पूरी फिल्म जैसे चीख-चीख कर टॉक्सिक मस्कुलिनिटी को ग्लोरिफाई कर रही है.
ट्विटर पर कई यूजर्स ने ‘कबीर सिंह’ को एक अच्छा हीरो बताते हुए फिल्म का बचाव किया है
(फोटो: स्क्रीनशॉट)

फिल्मी किरदारों से राजा हरिश्चंद्र बनने की उम्मीद कोई नहीं कर रहा है. आप सेल्फ डिस्ट्रक्टिव कैरेक्टर पर फिल्म बना सकते हैं, लेकिन उस किरदार को ग्लोरिफाई मत कीजिए. उसके गुस्से को गलती, औरतों के खिलाफ हिंसा को कॉमेडी और कंट्रोलिंग बिहेवियर को रोमांस मत कहिए.

2017 में आई हिट फिल्म 'पिंक' में कीर्ति कुल्हारी का एक डायलॉग है. कोर्ट में वकील के सवालों से परेशान होकर कीर्ति कहती है कि उन्होंने सेक्स के लिए पैसे लिए थे, लेकिन फिर उनका मन बदल गया. उसने लड़के को बार-बार ना बोला उसके बावजूद लड़का उसे छूता रहा. 'वो सही था या ये?'

चिल्ला-चिल्ला के महिलाएं कंसेंट समझाना चाह रही हैं, लेकिन मजाल है जो मर्दों को समझ आ जाए. समझ आ जाता तो शायद हम सभी कबीर सिंह और अर्जुन रेड्डी जैसे किरदारों से बच जाते.

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