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वैक्सीन, गैर बराबरी और आर्थिक संरक्षणवाद: राजन और राघव का संवाद

'कोविड पर चौड़ी सड़क बनाने की बजाय सभी देश अपनी-अपनी खाइयां बना रहे''

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मैं सबसे पहले गवर्नर रघुराम राजन (Raghuram Rajan) से मुंबई में आरबीआई के मुख्यालय में मिला था. यह 2014 के विध्वंसकारी चुनावों से कुछ महीने पहले की बात है. नब्बे के दशक की शुरुआत से हर सेंट्रल बैंक के गवर्नर से मैं बिजनेस एडिटर के तौर पर मिलता था, और यह मुलाकात उसी परंपरा की एक कड़ी थी.

गवर्नर राजन बहुत ही खुशी खुशी और दोस्ताना तरीके से मिले थे. उस वक्त के हालात को देखते हुए हमने इकोनॉमिक्स पर कोई बात नहीं की थी. हमारी बातचीत राजनीति पर केंद्रित थी, और हमने जिन विषयों पर चर्चा की थी, वे मेरे पसंदीदा थे. हम दोनों एक दूसरे से पूरी तरह सहमत थे.
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इसके बाद जब गवर्नर राजन ने आरबीआई को छोड़ा (जोकि विवादास्पद भी था), और शिकागो के बूथ स्कूल में पढ़ाने चले गए तो मैं लगातार उनके कॉलम्स और इंटरव्यू पर नजर रखता रहा. चूंकि मैं भारत में नोटबंदी का काफी बड़ा आलोचक था, मुझे प्रोफेसर राजन के आर्टिकल्स पढ़ने में काफी मजा आता था. उनमें देश की आर्थिक विपदा पर राजन की सख्त और खरी टिप्पणियां होतीं थीं. अगर उस वक्त वह मिंट स्ट्रीट पर स्थित आरबीआई के मुख्यालय में होते तो निश्चित ही उसका विरोध करते.

इसलिए जब एशिया सोसायटी के मेरे दोस्तों ने मुझे प्रोफेसर राजन के साथ एक वेबिनार को ‘फेसिलिटेट’ करने को कहा तो मैंने वह मौका लपक लिया. वेबिनार का विषय था- “वैक्सीन्स, जॉब्स एंड गवर्नेंस इन पोस्ट पैंडामिक इंडिया” (भारत में महामारी के बाद वैक्सीन, नौकरियां और गवर्नेस). तय समय से दस मिनट पहले हमने “प्रैक्टिस सेशन” के लिए लॉग इन किया. फिर इस बात पर भी गपशप भी कि क्या हमें गलत विषय मिल गया है, चूंकि हर कोई अफगानिस्तान की त्रासदी के बारे में सोच रहा है. फिर हमने अपनी बातचीत को उसी मसले पर टिकाए रखा.
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पर हैरानी की बात यह थी कि हमारी बातचीत अजीब तरीके से एआई की तरफ मुड़ गई. मैंने किस्सा सुनाया कि मैं कैसे हैरान रह गया, जब एक कंप्यूटर प्रोग्राम ने अफगानिस्तान पर दर्जनों आर्टिकल्स को स्कैन किया, फिर उनमें से सुंदर लाइनों को निकाला और इसके साथ ही एक आर्टिकल तैयार कर दिया. मशीन का लिखा आर्टिकल. मैं उसे “मशीन प्लेजराइजिंग” कहने ही वाला था, कि प्रोफेसर राजन ने मुस्कुराते हुए कहा: “लेकिन राघव, क्या हममें से ज्यादातर इसी तरह से अपने आर्टिकल्स नहीं लिखते?” सभी हंस पड़े और हमारे बीच जो भी अटपटापन था, वह दूर हो गया. हम बातचीत के लिए पूरी तरह तैयार हो गए.

मैं यहां तीन मुख्य मुद्दों को पेश कर रहा हूं जो इस वेबिनार से उभरकर आए.

वैक्सीनेशन कार्यक्रम के लिए दुनिया में एक लीडर की जरूरत

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ग्लोबल वैक्सीनेशन प्रोग्राम को शुरुआती दौर में कुछ ठोकरें लगीं- ट्रायल और एरर यानी आजमाइश और गलतियां हुईं. फिर कुछ स्थिरता आई. लेकिन इसमें गैर बराबरी बनी रही. गरीब देशों ने बहुत मुश्किल से अपने नागरिकों के एक बटा दस हिस्से को ही कवर किया है. बदकिस्मती से किसी ने भी वैक्सीनेशन प्रोग्राम की ग्लोबल लीडरशिप नहीं संभाली. हर देश यह कोशिश कर रहा है कि अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखा जाए. इसकी वजह समझ आती है लेकिन एक खौफनाक और संक्रामक महामारी में इसे दूरंदेशी भरा कदम नहीं कहा जा सकता.

यह भी हैरान करने वाला है कि कैसे दुनिया ने बड़े पैमाने पर बनने वाली वैक्सीन्स के लागत लाभ अनुपात की अनदेखी की है. अगर लोगों की जान बचती है और मेडिकल केयर का खर्चा बचता है तो उसके सामने अरबों वैक्सीन्स पर होने वाला खर्चा कुछ भी नहीं. इस तरह आप मानव जीवन और चिकित्सा सेवा पर खरबों डॉलर्स बचा सकते थे. शायद दुनिया के सभी देशों की सरकारें मिल जुलकर फार्मा कंपनियों से वैक्सीन्स बनवा सकती थीं और वैक्सीन आईपीआरज को “यूनिवर्सलाइज” कर सकती थीं ताकि किसी भी जगह, और सभी जगह बड़े पैमाने पर वैक्सीन्स बनाई जा सकें.
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“वैक्सीन पासपोर्ट्स” को विश्व स्तर पर प्रभावी बनाने के लिए भी ऐसा ही किया जा सकता था. यह समझना मुश्किल है कि सभी देश अपने-अपने लिए कृत्रिम खाइयां बनाने में लगे हैं. वे ऐसे महामार्ग नहीं बना रहे, जिस पर सभी के लिए चलना आसान हो. जैसे यूके कह रहा है कि वह सिर्फ उन लोगों को स्वीकार करेगा जो उसके एनएचएस यानी नेशनल हेल्थ सर्विस के तहत वैक्सीनेटेड हैं.

वह भारत में बनने वाली और दूसरी जगहों पर बनने वाली एस्ट्रा जेनेका डोज के बीच भी भेदभाव कर रहा है! अमेरिका का कहना है कि सिर्फ वे लोग उसकी धरती पर कदम रख सकते हैं जिन्होंने अमेरिकन वैक्सीन्स ली हैं. चीन भी ऐसा ही कर रहा है. तो, एक बार फिर दुनिया भर में “वैक्सीन पासपोर्ट्स” के लिए निष्पक्ष, भेदभाव रहित और एक समान मानदंड लागू करने के लिए ग्लोबल लीडरशिप की जरूरत है.

महामारी के बाद दुनिया में गैर बराबरी डराने वाली है

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कोविड-19 महामारी का शायद सबसे अच्छा नतीजा यह रहा कि विकसित देशों, खासकर अमेरिका में गैर बराबरी को कम करने की कोशिश की गई. अमीर देशों की सरकारों ने अपने आम नागरिकों को नकदी थमाई, और निचले तबके के लोगों का आय स्तर बढ़ा. ऐसी कई मिसालें हैं. व्यक्तिगत खपत और जीवन शैली से जुड़े खर्चों में कमी आई तो लोगों ने ज्यादा बचत की. संपत्ति और दौलत बढ़ी. लेकिन ऐसा कहीं-कहीं ही हुआ.


अफ्रीका और एशिया में असमानता की जड़ें और गहरी हुईं. गरीब, बेरोजगार लोगों, औद्योगिक और सुस्त अर्थव्यवस्थाओं के बीच. इस बात का डर है कि संकट के खत्म होने के बाद लोग “सड़कों पर प्रदर्शन करेंगे और कट्टरता बढ़ेगी” जोकि सभी देशों के लिए बड़ी चुनौती साबित होगा. चूंकि सरकारें पहले ही संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं. इनमें से एक हमारा देश भी है.

स्कूली बच्चों के शुरुआती शिक्षा के दो अहम साल बर्बाद हो गए हैं. आप मानकर चलिए कि बच्चों की सीखने की क्षमता को तीन से चार साल का नुकसान हो गया है. चूंकि छोटे बच्चे जल्दी सब भूल भी जाते हैं. यह महामारी का एक “ब्लैक होल” बन सकता है. अगर उनकी पढ़ाई जल्दी शुरू नहीं की गई तो आने वाले छह दशकों तक उसका असर कायम रह सकता है. एक “शैक्षिक रूप से कमजोर” पीढ़ी दुनिया के विकास के नक्शे पर कहां टिक पाएगी? भारत में शिक्षा की जो हालत है, उसे देखते हुए यह ब्लैक होल एक अनजाना डर पैदा करता है.

संरक्षणवाद को छोड़ें और प्रतिस्पर्धी बाजार को बढ़ावा दें

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आखिर में “संरक्षणवाद” की चाबुक. वैसे, गंभीर विश्व संकट के दौर में यह लाजमी है. सभी देश अपने अपने खोल में घुस गए हैं- व्यापार और यात्रा ठप्प पड़े हैं.

बदकिस्मती से भारत संरक्षणवाद की मुट्ठी में कैद है, महामारी से पहले से. हमने आयात शुल्क बढ़ाया, “चुनींदा” क्षेत्रों को सब्सिडी के तौर पर नकदी मुहैया कराई, ताकि सरकारी मैन्यूफैक्चरिंग/निर्यात पर जोर दिया जा सके, यानी आत्मनिर्भर भारत ने अपनी प्रोडक्शन लिंक्ड इनसेंटिव स्कीम का परचम लहराया. इस फौरी उपाय ने भारत के निर्यात को बढ़ाया और उसमें घरेलू मैन्यूफैक्चरर्स का हिस्सा भी. लेकिन इससे निरंतर और लंबी अवधि का मुनाफा नहीं कमाया जा सकता.

इसके लिए देश को अपने शोध अनुसंधान को बढ़ाना होगा, दक्षता का स्तर ऊंचा करना होगा और उत्पादकता में इजाफा करना होगा. अधिक शुल्क लेने का उल्टा असर हो सकता है, यानी निर्यात और घरेलू मांग पर टैक्स.

इसलिए चीन के मैन्यूफैक्चरिंग मॉडल की नकल करने की बजाय भारत सेवाओं और डिजिटल उत्पादों के उभरते हुए व्यापार पर ध्यान दे सकता है. वह “विकसित अर्थव्यवस्थाओं” के बीच अपनी आर्थिक और कूटनीतिक ताकत का इस्तेमाल कर सकता है, और सेवा क्षेत्र को सार्वभौमिक बनाने के नए मानदंड निर्धारित कर सकता है. यह भारतीय चमत्कार से कम नहीं होगा.
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बेशक, भारत को इस बात का भी ख्याल रखना होगा कि घरेलू स्तर पर आर्थिक शक्तियों का एक जगह जमावड़ा न हो जाए. “संरक्षणवाद” से किसी को फायदा नहीं होता. भारत के प्रतिस्पर्धी बाजार में जरूरत इस बात की है कि बड़ी कंपनियां अपना प्रभुत्व या सीमित अधिकार कायम करने के लिए छोटी कंपनियों का दम न घोंट दें.

हमारे पहरेदार को अपना आलस्य छोड़ना होगा और प्रतिस्पर्धी बाजारों की हिफाजत करनी होगी. कई बार बड़े खिलाड़ियों को चुनौती देने के लिए छोटे खिलाड़ियों को ताकतवर बनाने की जरूरत होती है.

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