राजनीतिक सलाहकार से राजनीतिज्ञ बने प्रशांत किशोर वर्तमान में भारत के सबसे दिलचस्प राजनीतिक व्यक्तित्व हैं, जो कई महत्वपूर्ण क्षत्रपों जैसे आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, तमिलनाडु में एमके स्टालिन और किसी हद तक महाराष्ट्र में उद्धव और आदित्य ठाकरे से जुड़े हुए हैं.
लेकिन 18 फरवरी को मंगलवार के दिन किशोर ने अपने गृह प्रांत बिहार में अपनी राजनीतिक योजना की घोषणा की. पटना में प्रेस कॉन्फ्रेन्स को संबोधित करते हुए किशोर ने कहा कि वे 20 फरवरी से एक अभियान ‘बात बिहार की’ शुरू करने जा रहे हैं और उनका मकसद 20 मार्च तक 10 लाख लोगों को इकट्ठा करना है, जिनमें ज्यादातर युवा होंगे और जो बिहार के विकास के लिए एक ‘मिशन’ से जुड़ेंगे. जून तक उन्हें उम्मीद है कि यह संख्या 1 करोड़ तक पहुंच जाएगी.
किशोर के मुताबिक, “यह मिशन दीर्घकालिक योजना है और इसका मकसद राज्य में होने जा रहा आगामी चुनाव नहीं है.”
प्रशांत किशोर को हाल में जनता दल (यूनाइटेड) से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने निकाल दिया था. उन्होंने साफ तौर पर कहा कि वे किसी पार्टी या गठबंधन से जुड़ने नहीं जा रहे हैं.
किशोर की योजना- ‘बिहार के विकास के लिए युवाओं को इकट्ठा करना’- व्यापक और गैर राजनीतिक लग सकती है. लेकिन, अगर कोई इसके मायने देखे तो यह साफ नजर आता है कि इस रणनीतिकार की कोशिश क्या कुछ हासिल करने की है. ये पांच बातें किशोर के प्रेस कॉन्फ्रेन्स से कोई भी समझ सकता है:
वे बिहार में बड़े राजनीतिक शून्य को भरने की कोशिश कर रहे हैं
एक तथ्य जिसे किशोर ने समझ लिया लगता है वह यह है कि बिहार में बड़ा राजनीतिक शून्य है. बेरोजगारी, महंगाई और शासन व्यवस्था की विफलता के कारण जेडीयू-बीजेपी सरकार के विरुद्ध जबरदस्त भावना है.
यह कहा जाता रहा है कि मुख्य विपक्षी पार्टियां- राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और छोटी पार्टियों जैसे हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा, विकासशील इंसान पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और वामपंथी- इस स्थिति में नहीं हैं कि वे अभी इस राजनीतिक शून्य को भर सकें.
विपक्ष का मुख्य चेहरा हैं तेजस्वी यादव, जिनका कद अपने पिता लालू प्रसाद वाला नहीं है, मगर राजद के कथित कुशासन का बोझ उन पर जरूर है.
इसलिए विश्लेषकों का मानना है कि तेजस्वी यादव मुस्लिम-यादव के जनाधार से अलग एंटी इनकंबेंसी वोट बटोर सकेंगे, इसकी भी अपनी सीमा है.
दूसरी पार्टी बीजेपी है जो वास्तव में नीतीश से नाराज इस असंतुष्ट वोट पर कब्जा कर सकती थी, लेकिन उसे आरजेडी के सत्ता में लौटने का डर सता रहा है.
लेकिन अमित शाह की इस घोषणा के बाद कि एनडीए नीतीश के नेतृत्व में बना रहेगा, बीजेपी ने भी अपने कदम पीछे खींच लिए हैं. इसमें बदलाव तभी आएगा जब भविष्य में पार्टी का रुख बदलेगा.
यही वह राजनीतिक शून्य है जिसे किशोर भरने की कोशिश कर रहे हैं. बहरहाल, किशोर जानते हैं कि बगैर किसी दलीय तंत्र के चुनावों में कोई असर बना पाना असम्भव कार्य है. ये चुनाव बमुश्किल 8 महीने बाद होने हैं.
राजनीतिक दल से पहले ‘आंदोलन’
तोड़फोड़ से पार्टी बनाने के बजाए किशोर दूसरा रास्ता अपना रहे हैं. वे युवाओं को इकट्ठा कर पूरे बिहार में एक सामाजिक आंदोलन खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं.
अपने प्रेस कॉन्फ्रेन्स में किशोर ने लगातार कहा है कि उनकी प्राथमिकता उन लाखों बिहारियों को इकट्ठा करने की है, जो बिहार की समृद्धि के लिए काम करना चाहते हैं. युवा केंद्रित स्वाभाव के अतिरिक्त उनके प्रस्तावित आंदोलन की अन्य खासियत है बिहारी अभिमान.
अपने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान उन्होंने लगातार बिहार और दूसरे राज्यों के समांतर लकीरें खींचने की कोशिश की. खासकर गुजरात की, जो प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह का गृहप्रांत है. उन्होंने यहां तक कहा कि बिहारियों ने ही गुजरातियों को सोशल मीडिया सिखाया है.
किशोर के लिए संदेश देना कोई नयी बात नहीं है. पिछले कई अभियानों में उन्होंने भविष्य के लिए आकर्षक विज़न सामने रखा है चाहे वह 2014 का राष्ट्रीय मोदी अभियान हो, 2015 का नीतीश कुमार अभियान हो या फिर 2017 का पंजाब में अमरिंदर सिंह अभियान रहा हो.
बहरहाल जिस एकजुटता की वे कोशिश कर रहे हैं, वह किशोर के लिए बिल्कुल नया क्षेत्र है. उन्हें यह सब अपनी ओर से बहुत सीमित संसाधनों में करना होगा. इसके अलावा उन्होंने अपने इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी में जो स्वयंसेवकों के समूह इकट्ठा किया है और जो पेशेवर जोड़े हैं.
आज की तारीख में उनके समांतर एक मात्र आम आदमी पार्टी है जो जन लोकपाल आंदोलन के बाद खड़ी हुई है. लेकिन बिहार के मुकाबले दिल्ली बहुत छोटा और प्रबंधन कर लिए जाने योग्य कैनवस था.
युवा केंद्रित स्वभाव और बिहारी अभिमान का संदेश भी किशोर का एक तरीका है जिससे वे जाति आधार से बाहर निकलकर समर्थन जुटा सकते हैं.
किशोर न ब्राह्मण हैं और न उन्हें जातीय नेता के तौर पर देखा जाता है इसलिए उन्हें जाति के आधार पर बहुत समर्थन मिलने की उम्मीद नहीं थी. इसलिए उनकी रणनीति जाति से अलग आंदोलन खड़ा करने की है.
सवाल यह है : किशोर का आंदोलन सफल रहता है तो क्या होगा?
नीतीश के लिए खुले हैं दरवाजे
अगर किशोर पूरे बिहार में कुछ लाख युवाओं को इकट्ठा कर पाते हैं तो इससे उन्हें दो फायदे हो सकते हैं : राजनीतिक खिलाड़ी के तौर पर वे अपनी जगह बना सकते हैं या इससे उनके पास दूसरी पार्टियों के साथ मोलभाव करने की अपार क्षमता आ जाएगी.
घोषणा के तुरंत बाद उन्हें आरएलएसपी प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा का समर्थन मिला जिन्होंने कहा कि किशोर ने बिहार के युवाओं की भावनाओं को व्यक्त किया है.
अपने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान किशोर ने इस मसले को यह कहते हुए खुला रखा, “पहले हमें समूचे बिहार से युवाओं को इकट्ठा करने दें. तब हम तय कर सकते हैं (क्या करना है)”.
एक और संभावना जो उन्होंने खुली रखी है वह है नीतीश कुमार के साथ संबंध.
अगर नीतीश कुमार बेहतर बिहार के लिए इस पहल से जुड़ते हैं तो हमें प्रसन्नता होगीप्रशांत किशोर
उन्होंने इस प्रेस कॉन्फ्रेन्स के दौरान नीतीश को इस अभियान से जुड़ने के लिए कम से कम तीन बार आमंत्रित किया. एक अवसर पर उन्होंने यहां तक कि बीजेपी नेता व उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी को भी आमंत्रित किया.
इसलिए यह साफ नजर आता है कि नीतीश या यहां तक कि सुशील मोदी के साथ भी काम करने के लिए किशोर तैयार हैं, लेकिन उन्होंने यह भी साफ कर दिया है कि वे बीजेपी के दबाव और नियंत्रण से नाराज हैं.
बिहार को सशक्त नेता की जरूरत है न कि ऐसे नेता कि जो आश्रित हो (बीजेपी पर).प्रशांत किशोर
वे आगे कहते हैं, “मेरी नजर में 2020 में 16 सांसदों वाले नीतीश कुमार के मुकाबले 2014 में महज दो सांसदों वाले नीतीश कुमार अधिक शक्तिशाली थे.”
वैचारिक तौर पर बीजेपी का विरोध
प्रेस कॉन्फ्रेन्स के दौरान, किशोर ने लगातार इस बात पर जोर दिया कि वे वैचारिक तौर पर बीजेपी के खिलाफ हैं. किशोर ने कहा, “नीतीश कुमार ने हमेशा मुझे कहा है कि वे (महात्मा) गांधी, (राम मनोहर) लोहिया और जेपी (जय प्रकाश नारायण) का अनुसरण करते हैं. तो क्यों वे उन लोगों के साथ हैं जो गोडसे को मानते हैं?”
यह पूछे जाने पर कि क्या वे बीजेपी के साथ काम करने के लिए तैयार हैं, उन्होंने कहा कि 2014 में मोदी अभियान के बाद उन्होंने केवल बीजेपी विरोधी अभियानों से जुड़े रहे हैं.
उन्होंने यह भी कहा कि वे अपने वायदे पर कायम हैं कि बिहार में कोई एनआरसी नहीं होगा.
यह पूछे जाने पर कि उनकी विचारधारा क्या है, उन्होने कहा, “मेरी विचारधारा समतावादी मानवतावाद है और गांधी का रास्ता ही मेरा रास्ता है.”
यह भी साफ है कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के साथ किशोर की प्रतिद्वंद्विता है. कई लोग दोनों को भारतीय राजनीतिज्ञ का चाणक्य मानते हैं. प्रेस कॉन्फ्रेन्स के दौरान किशोर ने याद दिलाया कि “चाणक्य बिहार से थे.”
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आरजेडी को लेकर उत्सुक नहीं
यह भी साफ कि अभी किशोर राष्ट्रीय जनता दल के साथ होना नहीं चाहते. उन्होंने केवल लालू प्रसाद के कार्यकाल में कथित कुशासन के संदर्भ में इस पार्टी का नाम लिया.
पूरे प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान उन्होंने एक बार भी तेजस्वी यादव तक का नाम नहीं लिया. वास्तव में एक समय उन्होंने आरजेडी नेता की यह कहते हुए खिंचाई की, “मैं किसी नेता का बेटा नहीं हूं जो आसानी से राजनीतिक दल खड़ी कर लेता है.”
तो किशोर के लिए विकल्प क्या हैं?
अब बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि किशोर बिहार के विकास के लिए किस हद तक ‘युवा केंद्रित’ समर्थन जुटा पाते हैं और बिहार में राजनीतिक शून्य को भर पाते हैं. अगर वे ऐसा करने में सक्षम रहते हैं, बीजेपी से दूरी बनाए रखते हैं और आरजेडी के प्रति अपने रवैये पर अड़े रहते हैं तो उनके पास तीन विकल्प होंगे :
- अपनी पार्टी बनाएं और छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन तैयार करें जैसे हम, वीआईपी और आरएलएसपी और शायद वामपंथी भी.
- नीतीश कुमार को एनडीए छोड़ने के लिए तैयार करें और जेडीयू के नेतृत्व वाले एक और अभियान का नेतृत्व करें जो आरजेडी के साथ भी हो सकता है और उसके बगैर भी.
- बिहार में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाएं और इसे राजद से अलग स्वतंत्र रूप दें.
बहरहाल ऐसा तब होगा जब वे सफल होंगे. अगर ऐसा नहीं होता है तो वे विशुद्ध राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में आगे बने रह सकते हैं और एक राजनीतिज्ञ के तौर पर मौके का इंतज़ार कर सकते हैं.
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