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'हिरासत में अल्पसंख्यक':जेलों में महिलाओं को कोरोना से ज्यादा खतरा

महिलाओं की बात यहां खास तौर से इसलिए की जा रही है क्योंकि जेलों में महिलाओं की स्थिति अति संवेदनशील है

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जेलों में कोविड-19 के संक्रमण की खबरें बराबर आ रही हैं. पिछले दिनों बिहार के बाद मध्य प्रदेश की शहडोल जेल से खबर आई कि वहां की 14 महिला कैदी कोरोना पॉजिटिव पाई गईं. इनमें से 13 तो विचाराधीन यानी अंडरड्रायल हैं. एक संक्रमित महिला के साथ उसका डेढ़ साल का बच्चा भी है. दुनिया भर में कैदियों पर कोविड-19 के असर पर चर्चा हो रही है, खासकर महिला कैदियों पर. लेकिन भारत में इसकी तरफ कम ही लोगों का ध्यान है. क्योंकि हमारे यहां न जेलों में कोई टेस्टिंग हो रही है और न ही कोई ऐहतियात बरती जा रही है.

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जेलों में महिला कैदियों की संख्या बढ़ी है

विश्व स्तर पर महिला कैदियों की संख्या पिछले कुछ सालों में लगातार बढ़ी है. इस वक्त दुनिया भर की जेलों में लगभग सात लाख महिला कैदी बंद हैं. ग्लोबल प्रिजन ट्रेंड्स 2020 के आंकड़े कहते हैं कि पिछले बीस सालों में जेलों में महिला कैदियों की संख्या में 50% का इजाफा हुआ है. भारत में ईप्रिजन डैशबोर्ड के अनुसार, जून में देश की जेलों में लगभग 23 हजार महिला कैदी हैं जिनमें से 65% से अधिक विचाराधीन हैं. लॉकडाउन के दौरान भी लोगों की गिरफ्तारियां की गई हैं और पिछले कई महीनों के दौरान मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, स्टूडेंट्स, पत्रकारों, ब्लॉगर्स को हिरासत में लिया गया है. इनमें गर्भवती सफूरा जरगर जैसी कई महिलाएं भी शामिल हैं. जाहिर है, महामारी के दौर में जेलों में लोगों को बंद करके, संक्रमण को ही न्यौता दिया जा रहा है.

महिलाओं की बात यहां खास तौर से इसलिए की जा रही है क्योंकि जेलों में महिलाओं की स्थिति अति संवेदनशील है
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इसी के चलते विश्व स्तर पर यह विमर्श हो रहा है कि क्यों न अति संवेदनशील व्यक्तियों, खासकर महिला कैदियों को महामारी से बचाने के लिए जेलों से रिहा कर दिया जाए. जिन्हें प्रतीक्षा बख्शी जैसे स्कॉलर कस्टोडियल मायनॉरिटी यानी हिरासत में अल्पसंख्यक कहते हैं. मई में न्यूयॉर्क की जेलों से आठ गर्भवती महिलाओं को रिहा किया गया था. इसी तरफ यूके और इथियोपिया में गर्भवती और छोटे बच्चे वाली कैदियों को रिहा किया गया. यूं औरतों, बच्चों के अलावा जेंडर व सेक्सुअल मायनॉरिटीज को जेल से रिहा करने की वकालत भी की जा रही है, क्योंकि जेलों में इन्हें कई तरह की प्रताड़नाओं का सामना करना पड़ता है.


महामारी को रोकने के लिए भी कैदियों की रिहाई जरूरी

ऐसी हिमायत पर यह सवाल किया जा सकता है कि कैदियों के साथ नरमी क्यों बरती जाए. पर यहां सिर्फ मानवाधिकारों का सवाल नहीं है, इसके तार्किक आधार भी मौजूद है. 2005 के आपदा प्रबंधन एक्ट में जेलों को संक्रामक रोगों का हॉटस्पॉट कहा गया है. चूंकि जेलों में क्षमता से अधिक कैदी बंद हैं. टाटा ट्रस्ट की इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2019 कहती है कि जेलों में कैदियों की बहुत भीड़भाड़ है. वहां कैदियों की ऑक्यूपेंसी दर 114% है, यानी जहां 100 कैदी होने चाहिए, वहां 114 हैं और स्टाफ की 33% की कमी है, यानी जहां 100 कर्मचारी होने चाहिए, वहां 67 ही हैं. ऐसे में जेलों से भीड़भाड़ को कम करना जरूरी है ताकि संक्रमण की श्रृंखला को तोड़ा जा सके, जिसकी वकालत बार बार की जा रही है. यह न करने पड़े, अगर मॉडल प्रिजन मैनुअल 2016 के प्रावधानों को लागू किया जाए.

महिलाओं की बात यहां खास तौर से इसलिए की जा रही है क्योंकि जेलों में महिलाओं की स्थिति अति संवेदनशील है
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क्या है मॉडल प्रिजन मैनुअल 2016

देश में जेल प्रशासन को रेगुलेट करने वाले नियम एक समान हों, इसके लिए 2003 में मॉडल प्रिजन मैनुअल तैयार किया गया था. इसके बाद 2016 में इसमें संशोधन लाया गया. इससे पहले लोकसभा की महिला सशक्तीकरण संबंधी स्टैंडिंग कमिटी ने ‘हिरासत में महिलाएं और न्याय तक उनकी पहुंच’ जैसे विषय की समीक्षा की थी. इस कमिटी ने भाजपा की पूर्व सांसद बिजया चक्रवर्ती की अध्यक्षता में 2017 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि 20

मैनुअल में कैदियों के स्वास्थ्य से जुड़े कई प्रावधान थे. 2016 के मैनुअल के प्रावधान कहते हैं कि हर 300 कैदियों पर एक मेडिकल ऑफिसर जरूर होना चाहिए, और सेंट्रल जेलों में एक डॉक्टर हमेशा मौजूद होना चाहिए. पर उत्तराखंड की जेल में कोई मेडिकल ऑफिसर नहीं है. देश के करीब 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मेडिकल ऑफिसर्स की 50% कमी है. इस मामले में स्टैंडिंग कमिटी की रिपोर्ट में भी यही कहा गया था कि जेलों में न सिर्फ मेडिकल, बल्कि पैरा मेडिकल स्टाफ और मेडिकल उपकरणों की भी काफी कमी है.
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मर्दों के लिहाज से होती है जेलों की बनावट

महिलाओं की बात यहां खास तौर से इसलिए की जा रही है क्योंकि जेलों में महिलाओं की स्थिति अति संवेदनशील है. 2017 की रिपोर्ट में स्टैंडिंग कमिटी ने खुद कहा था कि पुलिसिया व्यवहार के कारण हिरासत में कैदियों के अधिकारों का उल्लंघन एक बड़ी समस्या है. इनमें हिरासत में बलात्कार और हत्याएं शामिल हैं. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने 2018 में ‘जेलों में महिलाएं’ नामक रिपोर्ट जारी की थी. इसमें मंत्रालय ने खुद यह माना था कि महिला कैदियों को अनेक प्रकार के उत्पीड़नों का शिकार बनाया जाता है. चूंकि वे पुलिसिया यातना के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं इसलिए कई बार अपराध न होने के बावजूद अपराध स्वीकार कर लेती हैं

किसी देश को तब तक नहीं समझा जा सकता, जब तक उसकी जेलों के भीतर के हालात न जाना जाए.
नेल्सन मंडेला

बेशक, जेलों में महिलाओं के साथ जो व्यवहार होता है, वह उनके सम्मान को छलनी करने का ही काम करता है. स्ट्रिप सर्च, यानी बिना कपड़ों के तलाशी लेना और कैविटी सर्च यानी शरीर के भीतरी अंगों की मैनुअली तलाशी लेने के दौरान यह नहीं देखा जाता कि महिला की स्थिति क्या है- वह गर्भवती है या मेनोपॉज की अवस्था में. मैन्स्ट्रुएशन की स्थिति में है या बच्चे को दूध पिलाने वाली माता है. यह जेंडर राइट्स के भी खिलाफ है, क्योंकि यह महिला की एजेंसी और देह पर उसके हक का पूरी तरह से उल्लंघन करता है.

हमारे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को पुरुषों ने, पुरुषों के लिए बनाया है और इसमें पुरुषों का ही बोलबाला है.
जैकी टर्टन, इंग्लैंड की मशहूर सोशलॉजिस्ट
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यूं भी जेलों की संरचना पुरुषों के नजरिए से की गई है, जिसे आप ‘मेल स्पेस’ कह सकते हैं. जेलों में औरतों के साथ पुरुषों की तरह बर्ताव होता है, और यह नहीं सोचा जाता कि दोनों में क्या फर्क है. जब औरतों के बारे में नहीं सोच पाते, तो थर्ड जेंडर की बात कौन करे. इसीलिए जेलों में प्राइवेसी का कोई मायने नहीं. कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव के अध्ययनों से पता चलता है कि कई बार महिला कैदियों को जगह की कमी की वजह से पुरुष कैदियों के साथ रखा जाता है.

जेलों में औरतों की स्थिति को समझना है तो सोनी सोरी, अंजुम जमरूदा हबीब, सदफ जफर का उदाहरण सामने है. उन्हें सिर्फ सबक सिखाने के लिए हवालात भेजा गया. सोनी सोरी के यौन शोषण की दास्तान दर्द से भरी है. अंजुम और सदफ को सिर्फ अपनी विचारधारा और अभिव्यक्तियों के कारण जेल जाना पड़ा.

जेल प्रबंधन में सुधार

इस बारे में महिला सशक्तीकरण संबंधी स्टैंडिंग कमिटी ने कई सुझाव भी दिए थे. अपनी रिपोर्ट (2017) में उसने कहा था कि जेल प्रबंधन को महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए अधिकारियों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए. चूंकि जेल प्रबंधन में महिला कर्मचारियों की कमी है इसलिए उनकी भर्ती के लिए विशेष अभियान शुरू किए जाने चाहिए. सभी जिलों में जिला कानूनी सहायता सोसायटीज (DLAS) हैं जो कैदियों को कानूनी सहायता देती हैं. कमिटी ने सुझाव दिया कि DLAS को सभी कैदियों को कानूनी मदद देनी चाहिए. कमिटी ने यह सुझाव भी दिया कि महिला कैदियों को आसानी से न्याय प्राप्त हो, इसके लिए महिला वकीलों को इन सोसायटीज के साथ जोड़ा जाना चाहिए.


महामारियां असाधारण परिस्थितियों उत्पन्न करती हैं. ऐसे दौर में बहुत कुछ नया भी तय किया जा सकता है. इस दिशा में केन्या ने एक अच्छा उदाहरण पेश किया है. वहां जेल प्रशासन ने कैदियों को ग्लव्स और फेस मास्क दिए हैं. कोविड-19 के लक्षणों वाली महिला कैदियों को आइसोलेशन रूम दिए हैं और नए कैदियों को 14 दिनों तक क्वारंटाइन में रखते हैं. जाहिर सी बात है, स्वास्थ्य का अधिकार जेल की दीवारों पर आकर थम नहीं जाता. अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून और संयुक्त राष्ट्र के मंडेला रूल्स भी यही कहते हैं. भारत को भी इसे याद रखना चाहिए.

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