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द क्विंट #PINK डिबेट: क्या महिलाओं को अपनी सुरक्षा खुद करनी चाहिए

फिल्म ‘पिंक’ से उठ रही चर्चा पर सुनिए द क्विंट के न्यूज रूम में हुई डिबेट.

Published
भारत
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शूजीत सरकार ने महिला यौन उत्पीड़न पर ‘पिंक’ फिल्म बनाई है. फिल्म में एक्ट्रेस तपसी पन्नू ने यौन उत्पीड़न का शिकार होने वाली वर्किंग विमेन का रोल किया है.

इस ‘पिंक’ ने देश में महिलाओं की सुरक्षा पर एक नई बहस खड़ी की है.

द क्विंट के न्यूजरूम में इस मसले पर FB Live डिबेट की गई.

बहस का सेंटर प्वॉइंट
क्या लड़कियों या लड़कों को आधी रात को घर से बाहर निकलकर खुद को खतरे में डालना चाहिए या इन लड़कियों को इन खतरों की वजह से रात में निकलना चाहिए?
राघव बहल कहते हैं: मेरे लिए महिला सशक्तिकरण और महिला सुरक्षा, दो अलग-अलग मुद्दे हैं. मैं महिला सशक्तिकरण में विश्वास रखता हूं. महिलाएं अपनी पसंद के कपड़े पहन सकती हैं. लेकिन महिलाओं की सुरक्षा की बात आती है, तो दिमाग से डिसीजन लेना चाहिए. ये पुरुषों पर भी लागू होती है. फिल्म ‘पिंक’ की बात करें, तो लड़कियों का आधी रात में असुरक्षित इलाके के रिसोर्ट के रूम में अनजान लड़कों के साथ जाना, मेरे लिए खुद को खतरे में डालने से कम नहीं है. ये डिबेट पर्सनल सेफ्टी पर है कि क्या फिल्म में लड़कियों को थोड़े और विवेक से काम लेना चाहिए था. हमारे समाज में कुछ सीमाएं हैं. हम इन्हें पसंद नहीं करते हैं, लेकिन ये हमारे सामने हैं. मेरे हिसाब से थोड़ा बचाव जिंदगी में अच्छा होता है, क्योंकि अगर आपके साथ कुछ गलत होता है, तो आपकी जिंदगी पर हमेशा के निशान छूट जाते हैं. ऐसे निशानों के साथ जीना आसान नहीं होता है.

रोहित खन्ना कहते हैं: अगर हम अपनी पर्सनल सेफ्टी के लिए जिम्मेदार नहीं हैं, तो हम अपने घरों में ताले क्यों लगाते हैं? रात में दरवाजे खुले क्यों नहीं छोड़ देते हैं? सोच लें कि पुलिस आपकी सुरक्षा में खड़ी होगी. लेकिन व्यावहारिकता में ऐसा नहीं होता है. ये हम जानते है. हम अपने कॉमनसेंस को नहीं छोड़ सकते.

खेमता कहती हैं: मेरी सेफ्टी के लिए सरकार जिम्मेदार है. महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध फोर्स ऑफ नेचर नहीं हैं कि हमें उनका सामना करना होगा. इन्हें सांस्कृतिक रूप से मान्यता मिली हुई है. इसलिए ये नहीं कहना चाहिए कि रात में छोटे कपड़े नहीं पहनने चाहिए. 
रितु कपूर कहती हैं: मैं ये मानती हूं कि ये देश और इसके शहर-गांव महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों के लिए भी सुरक्षित होने चाहिए. अक्सर हम सवाल करते हैं कि आखिर सड़कें सुरक्षित क्यों नहीं हैं? अगर सवाल ये है कि सरकार को सुरक्षा देनी चाहिए, तो जवाब हां है. लेकिन ये एक आदर्श स्थिति है. इसके लिए हमें कोशिश करते रहना चाहिए. ये कहने के बावजूद मेरे लिए रात के 2 बजे दिल्ली की सड़क पर निकलना मूर्खता है.
मेंड्रा दोरजी कहती हैं: मैं खुद मानती हूं कि सावधानी के साथ जिंदगी जीना गलत नहीं है. ये आपको खुद में सेफ होने की फीलिंग देता है. मेरे लिए यही सही तरीका है. 

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