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साल 2007-08 में जब अमेरिका में सबप्राइम क्राइसिस के चलते प्रॉपर्टी मार्केट का गुब्बारा फूटा, तो अर्थव्यवस्था पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. इस अमेरिकी संकट ने अगले कई बरसों तक पूरी दुनिया को मंदी की गर्त में धकेल दिया. क्या भारत में भी वैसे ही आर्थिक संकट की आहट सुनाई दे रही है? ये सवाल पिछले कुछ अरसे में सामने आए आंकड़ों की वजह से उठ रहा है.
भारत में सबप्राइम संकट की आशंका पर आगे बात करने से पहले समझ लेते हैं कि अमेरिकी संकट की वजह बने सब-प्राइम मॉर्गेज का मतलब क्या है? सब-प्राइम का शाब्दिक अर्थ है, बेहतरीन से कमतर यानी सीधे शब्दों में कहें तो असंतोषजनक. सब-प्राइम मॉर्गेज का मतलब है प्रॉपर्टी को गिरवी रखकर दिया गया ऐसा लोन, जिसमें कर्जदार की लोन चुकाने की क्षमता और गिरवी रखी गई प्रॉपर्टी की क्वॉलिटी - दोनों ही संतोषजनक नहीं होते.
जाहिर है, ऐसे मामलों में लोन देने वाले बैंकों या वित्तीय संस्थानों का जोखिम बढ़ जाता है. न सिर्फ वक्त पर लोन अदा नहीं हो पाने की आशंका ज्यादा रहती है, बल्कि कर्जदार के डिफॉल्टर होने की हालत में प्रॉपर्टी को बेचकर कर्ज वसूली की उम्मीद भी कम होती है. 2007-08 में अमेरिका में ऐसे ही कर्जों की वजह से भारी वित्तीय संकट पैदा हो गया था, जिसका जिक्र आमतौर पर सब-प्राइम क्राइसिस के नाम से होता है.
अब लौटते हैं इस सवाल पर कि भारत में अमेरिका सब-प्राइम संकट पैदा होने की आशंका क्यों जाहिर की जा रही है? दरअसल, इस आशंका की वजह हैं, अफोर्डेबल हाउसिंग यानी सस्ते घरों के लिए दिए जा रहे छोटे होमलोन के आंकड़े. देश में सस्ते घरों के लिए दिए जाने वाले इस होमलोन में हर साल करीब 40 फीसदी की चौंकाने वाली रफ्तार से बढ़ोतरी हो रही है.
वैसे तो ये आंकड़े 2022 तक सबको घर मुहैया कराने के मोदी सरकार के वादे के लिहाज से नई उम्मीद जगाने वाले हैं. लेकिन जरा और गहराई से देखने पर इस उम्मीद में आशंकाओं के बीज साफ नजर आते हैं. दरअसल देश में सस्ते घरों के लिए दिए जा रहे लोन में एनपीए (यानी चुकाए नहीं जा रहे कर्ज) का अनुपात खतरे की हद तक बढ़ रहा है.
क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल की एक रिपोर्ट के मुताबिक अफोर्डेबल हाउसिंग सेक्टर के हाउसिंग लोन में एनपीए का अनुपात 4-5 फीसदी तक है, जो काफी अधिक है. क्रिसिल ने इस सेगमेंट की एसेट क्वॉलिटी में लगातार गिरावट आने पर भी चिंता जाहिर की है.
एनपीए में बढ़ोतरी, खराब एसेट क्वॉलिटी और कर्जदारों की लोन चुकाने की घटती क्षमता के अलावा एक और आकंड़ा है, जो भारत के होमलोन मार्केट में अमेरिकी सब-प्राइम जैसे खतरे की चेतावनी दे रहा है.
अमेरिका में प्रॉपर्टी मार्केट के धराशायी होने से ठीक पहले, यानी 2004 से 2006 के दरमियान कुल हाउसिंग लोन में सब-प्राइम मॉर्गेज यानी कमजोर क्वॉलिटी वाले हाउसिंग लोन की हिस्सेदारी 8 फीसदी से बढ़कर 20 फीसदी तक पहुंच गई थी. भारत में भी करीब 16 लाख करोड़ रुपये के हाउसिंग लोन बाजार में कमजोर क्वॉलिटी वाले अफोर्डेबल हाउसिंग लोन की हिस्सेदारी 20 फीसदी के आसपास ही है.
आंकड़े संकेत दे रहे हैं भारत में सब-प्राइम जैसे खतरे की इस आहट को सरकारी बैंकों और बड़ी हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों ने पहचान लिया है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक बैंकों के अफोर्डेबल हाउसिंग लोन वित्त वर्ष 2014 में 13 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहे थे. लेकिन अब ये ग्रोथ रेट सिर्फ 2 फीसदी रह गई है. जाहिर है, अफोर्डेबल हाउसिंग लोन के तेजी से बढ़ते बाजार का बड़ा हिस्सा अब छोटी हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों के हवाले है, जिनकी रिस्क उठाने की कमजोर क्षमता हालात को और भी चिंताजनक बना सकती है.
ऐसे में सवाल ये उठता है कि जब रिजर्व बैंक छोटे होमलोन में बढ़ते एनपीए का जिक्र करते हुए सावधानी बरतने की बात कर रहा है, बड़े बैंकों और हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों ने खतरे को भांप लिया है, तो ये जोखिम भरा बाजार इतनी तेज रफ्तार से बढ़ता क्यों जा रहा है.
दरअसल, इसकी सबसे बड़ी वजह है अफोर्डेबल हाउसिंग को आक्रामक ढंग से बढ़ावा देने की सरकारी नीति. सरकार प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत अफॉर्डेबल हाउसिंग लोन पर गरीबों और मध्य वर्ग के लोगों को 6.5 से 3 फीसदी तक सब्सिडी दे रही है. सब्सिडी का ये लुभावना ऑफर ही कर्ज लेने वालों और छोटी हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों को अफोर्डेबल हाउसिंग की तरफ खींच रहा है. लेकिन एनपीए के बढ़ते आंकड़े बता रहे हैं कि अफोर्डेबल हाउसिंग लोन, भारी सब्सिडी के बावजूद लोन लेने वालों के लिए अफोर्डेबल नहीं बन पा रहा.
ऐसा इसलिए भी हो रहा है, क्योंकि सस्ते घरों के लिए सब्सिडी वाला छोटा लोन लेने वालों में बड़ी तादाद उन लोगों की है जो मीडियम, स्मॉल, माइक्रो एंटरप्राइज या असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं या फिर अपना छोटा-मोटा रोजगार-धंधा करते हैं.
ये वही लोग हैं, जिनके ऊपर नोटबंदी और जीएसटी की सबसे ज्यादा मार पड़ी है. ये क्षेत्र पहले से ही वर्किंग कैपिटल की कमी से जूझता रहा है, ऊपर से जीएसटी के कारण अब उन्हें इनपुट टैक्स क्रेडिट पाने के लिए 6-6 महीने इंतजार करना पड़ रहा है. कैपिटल की इस किल्लत ने कई इकाइयों पर ताले लटका दिए हैं. सिर्फ तमिलनाडु में ही पिछले एक साल में रजिस्टर्ड MSME इकाइयों की संख्या 19 फीसदी घट गई है.
इस बात की पूरी आशंका है कि इन बंद हुई इकाइयों में काम करने वाले बहुत से लोग या तो बेरोजगार हुए होंगे या मजबूरी में पहले से कम आमदनी और खराब हालात में काम कर रहे होंगे. जाहिर है, इसका सीधा असर उनकी कर्ज चुकाने की क्षमता पर भी पड़ेगा. छोटे हाउसिंग लोन में बढ़ते एनपीए के आंकड़ों की एक वजह ये भी हो सकती है. छोटे कर्ज पर सब्सिडी भले ही मिल रही हो, लेकिन अगर कर्ज लेने वालों का रोजगार ही छिन जाएगा तो वो लोन की किस्तें कहां से चुकाएंगे?
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