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ये आलेख क्रेडिटसाइट्स की रिपोर्ट के उलट विचार पेश करता है, जिसमें बताया गया था कि अडानी समूह के कर्ज के जाल में फंस सकता है.
अडानी समूह (Adani Group) पर 2.2 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है और यह सच्चाई अक्सर सुर्खियां बटोरती है. पहली नजर में बहुत बड़ा आंकड़ा लगता है. लेकिन अगर अहमदाबाद के इस कारोबारी समूह पर असली बोझ का अंदाजा लगाना है तो इस आंकड़े को नजदीक से समझना होगा.
इस आंकड़े को उन क्षेत्रों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए जहां इस समूह की कंपनियां काम करती हैं और उनका आकार और कमाई कितनी है. जिन क्षेत्रों से कर्ज लिया गया है, वे कर्ज की लागत को प्रभावित करते हैं, और इसलिए इस पर सोचना-विचारना जरूरी है.
असल में कर्ज कितना है, यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए. अगर असल ऋण 2.2 लाख करोड़ रुपए है तो इसमें से 0.35 लाख करोड़ रुपए तो प्रमोटर्स ने अलग-अलग ग्रुप एंटिटीज को दिए हैं और 0.21 लाख करोड़ रुपए रिवर्सिबल्स की एवज में छोटी अवधि के कर्ज हैं.
अब इन दोनों आंकड़ों को देखें तो बाकी कर्ज घटकर 1.64 लाख करोड़ रुपए रह जाता है. और यह बहुत अहम है.
अब अगर, हम इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर, या मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में काम करने वाली दूसरी कंपनियों से तुलना करें तो यह आंकड़ा वाजिब है, यह सोचते हुए कि यह कई क्षेत्रों में काम करने वाली कंपनियों पर है.
चूंकि इस समूह ने दूसरे क्षेत्रों में काम करना शुरू किया है, इसलिए यह देखा भी महत्वपूर्ण है कि यह ऋण कहां से आया है. यह सोचना कि बैंकों, और वह भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने बड़ी संख्या में ऋण दिया है, असल स्थिति का जायजा नहीं देता.
यह समूह पूंजी बाजार में पहुंच गया है, और नतीजे के तौर पर आधा ऋण, यानी 50% बॉन्ड्स के रूप में है. ये इनवेस्टमेंट ग्रेड के विदेशी बॉन्ड हैं और इसका असर दो तरह से देखने को मिल रहा है. एक तो यह है कि कर्ज की औसत परिपक्वता बढ़ गई है, जबकि दूसरा यह है कि पिछले पांच वर्षों में भुगतान की गई औसत ब्याज दर में कमी आई है. ऋण प्रबंधन योजना का एक और बेजोड़ पहलू है. मतलब, जब एक प्रॉजेक्ट चालू होता है, तो ऋण पूंजी बाजार की उधारियों में बदल जाता है और साथ ही उसका समय, एसेटस की जिंदगी के अनुरूप हो जाता है, यानी वह लंबी अवधि का ऋण बन जाता है.
बैंकों के कुल ऋण के एक्सपोजर का ब्रेकअप तो और दिलचस्प है. कुल ऋण में बैंकों का हिस्सा करीब 40% है. इसमें से करीब 8% तो ग्लोबल इंटरनेशनल बैंकों का है, और 11% निजी बैंकों का. इसके बाद कुल उधारियों में शेष 21% ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से आया है.
साफ है, पूरा ऋण अलग-अलग क्षेत्रों में बंटा हुआ है, और बैंकिंग स्पेस में भी, समूह के बैंकिंग संबंधो के फैलाव और पहुंच को समझा जा सकता है.
इस अनुपात में पिछले कई वर्षों से लगातार गिरावट आ रही है। साथ ही, EBITDA में बढ़ोतरी से पता चलता है कि यह मजबूती से बढ़ रहा है. इसका मतलब यह भी है कि समूह इस कर्ज को चुकाने के काबिल है. EBITDA में वृद्धि की दर वास्तव में ऋण में वृद्धि से दोगुनी है, और यही कारण है कि शुद्ध ऋण / EBITDA अनुपात कम हो रहा है.
दूसरी कंपनियों के मुकाबले अडानी समूह की कंपनियों के पास सबसे अधिक EBITDA मार्जिन है, और इसलिए लाभप्रदता की भी पूरी गुंजाइश है.
ऋण संरचना में एक बात और नजर आती है कि इसमें लंबी अवधि की योजना बहुत अच्छे तरीके से बनाई गई है. चूंकि इसमें करीब 47% ऋण की दर निश्चित है. यह एन्युनिटी की तरह काम करता है क्योंकि यहां आपको कर्ज के असल बोझ का एहसास है और वह बदलने वाला नहीं है. इस ऋण की अवधि लंबी है जो 20 साल या उससे अधिक है और इसका मतलब है कि इन उधारियो को रीफाइनांस करने की कोई जरूरत नहीं है.
इस तरह पूरी प्रक्रिया में स्थिरता आती है। यहां तक कि पूरी होने वाली परियोजनाओं के लिए, रीपमेंट तब शुरू होगा, जब परियोजना चालू हो जाती है और मोराटोरियम की अवधि खत्म हो जाती है. इन सभी वजहों से अनिश्चितता दूर होती है और प्लानिंग ज्यादा असरदार होती है.
(क्विंट डिजिटल मीडिया लिमिटेड [क्यूडीएमएल] जो द क्विंट का मालिक है और उसका संचालन करता है, ने बीक्यूप्राइम का 49% हिस्सा अडानी समूह को बेचने के लिए एक निश्चित समझौता किया है. बीक्यूप्राइम, क्यूडीएमएल के स्वामित्व वाली एक सहायक कंपनी है. यह स्पष्ट किया और दोहराया जाता है कि क्यूडीएमएल या द क्विंट में अडानी समूह का कोई स्वामित्व नहीं है.)
(शांतनु गुहा रे सेंट्रल यूरोपियन न्यूज, यूके और जेंजर न्यूज, यूएस के एशिया एडिटर हैं. वह मनी कंट्रोल में एक कॉलमिस्ट भी हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इनका समर्थन करता है और न ही इनके लिए जिम्मेदार है.)
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